*रंगो तथा उमंगो का त्यौहार है होली-स्वामी मुक्तिनाथानन्द जी*

लखनऊ 

*दिनांक 14 मार्च को चैतन्य महाप्रभु की जयंती के शुभ अवसर पर रामकृष्ण मठ में होलिकोत्सव भव्य रूप से मनाया गया।* 

कार्यक्रम की शुरूआत प्रातः 5ः00 बजे मंगलारति के बाद प्रातः 6ः50 बजे से श्री मदन मोहनाष्टकम की विशेष स्तुति और श्रीमद्भगवद्गीता में भक्ति योग का पाठ रामकृष्ण मठ, लखनऊ के स्वामी इष्टकृपानन्द के नेतृत्व में किया गया। 

प्रातः 7ः15 बजे से एक विशेष सत् प्रसंग (ऑनलाइन) *‘रामकृष्ण संघ की परम्परा में होली उत्सव का परिपालन’ पर स्वामी मुक्तिनाथानन्दजी महाराज द्वारा प्रवचन* दिया गया। उन्होंने कहा कि इस दिन मुख्य मंदिर में चैतन्य महाप्रभु की तस्वीर रखी जाती है और संन्यासी, ब्रह्मचारी और भक्तगण श्रीकृष्ण और चैतन्य महाप्रभु पर भक्ति गीत गाते हैं। बाद में वे नाचते-गाते मठ परिसर में घूमते हैं। मुख्य मंदिर में श्री रामकृष्ण की शाम की आरती के बाद, चैतन्य महाप्रभु की पूजा की जाती है। फिर एक वरिष्ठ संन्यासी महाप्रभु के जीवन और शिक्षाओं पर एक व्याख्यान देते हैं। होलिका दहन और होली, दोनों ही रामकृष्ण संघ  में मनाए जाते हैं क्योंकि इस परंपरा का सम्मान और उत्सव भगवान श्री रामकृष्ण देव और उनके पार्षदों द्वारा स्वयं मनाया जाता था ।
उन्होंने कहा कि होली को भगवान विष्णु और उनके भक्त प्रह्लाद के सम्मान में बुराई पर विजय के उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

तत्पश्चात प्रातः 10:00 बजे से मठ के मुख्य मंदिर में भजन मठ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानन्दजी महाराज द्वारा कई तरह के भजन गाये गये उस दौरान ढोलक एवं मंजीरा का वादन भी हुआ एवं वहां पर मठ के अन्य साधुवृन्द व भक्तगण उपस्थित थे। भजनोपरान्त उपस्थित कुछ भक्तों ने भजन गाते हुये भावयुक्त मुद्रा के साथ पूरे मंदिर की तीन बार परिक्रमा की। स्वामी मुक्तिनाथानन्दजी महाराज ने सर्वप्रथम त्रिमूर्ति, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अबीर गुलाल लगाया उसके बाद उन्होंने वहां पर उपस्थित कुछ भक्तों को अबीर गुलाल लगाकर होली का उत्सव मानाया। इसके बाद सभी लोग उमंग पूर्वक नृत्य करते हुये प्रभु को स्मरण कर रहे थे साथ ही साथ हरि लूट का आयोजन स्वामी मुक्तिनाथानन्दजी महाराज के नेतृत्व में हुआ तथा सभी उपस्थित भक्तों को प्रसाद वितरण किया गया। 
*रामकृष्ण मठ निराला नगर, लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानन्दजी महाराज ने बताया कि* होली रंग तथा उमंग का त्यौहार है और अगर इस त्योहार की शुरूआत भगवान के स्मरण से तो भक्तों का जीवन सदैव के लिए रंगों में सराबोर हो जाता है साथ ही साथ  स्वामीजी ने बताया कि प्रेम के अवतार चैतन्य महाप्रभु की जयंती भी आज के दिन मनायी जाती है।  

संध्या आरती के पश्चात श्यामनाम संकीर्तन रामकृष्ण मठ, लखनऊ के  स्वामी पारगानन्द के नेतृत्व में हुआ। तत्पश्चात *प्रेमावतार श्री श्री चैतन्य महाप्रभु (श्री चैतन्य महाप्रभु - शुद्ध प्रेम के अवतार) विषय पर रामकृष्ण मठ, लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानन्दजी महाराज ने प्रवचन देते हुये बताया कि* शक संवत 1407 की फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन होलिका दहन के दिन  नवद्वीप (नदियां नगर, पश्चिम बंगाल) में महाप्रभु चैतन्य देव का, श्री जगन्नाथ मिश्र के पुत्र रूप में माता शची के गर्भ से प्राकट्य हुआ। संयोगवश उसी रात्रि पूर्ण चन्द्रग्रहण होने से सभी भावुक भक्त ‘हरि बोल, हरि बोल’ भगवन्नाम का उच्चारण सहज ही कर रहे थे, नीम के पेड़ के तले जन्म होने से माता वसुन्धरा उन्हें निमाई कहती थी। चन्द्रग्रहणवश चन्द्रमा काला पड़ गया था। ये पांचभौतिक विग्रह में तप्तकांचनगौरांग थे, अतः गौरचन्द्र कहे गये।
‘अन्तः कृष्णः बहिर्गौरः’ होने से गौरांग कहे गये। षडैश्वर्य-सम्पन्नता के प्रतीकार्थ में माता-पिता ने विश्वम्भर नाम दिया।
चैतन्य महाप्रभु को भगवान श्रीकृष्ण का ही रूप माना जाता है तथा इस संबंध में एक प्रसंग भी आता है कि एक दिन श्री जगन्नाथजी के घर एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में आए। जब वह भोजन करने के लिए बैठे और उन्होंने अपने इष्टदेव का ध्यान करते हुए नेत्र बंद किए तो बालक निमाई ने झट से आकर भोजन का एक ग्रास उठाकर खा लिया। जिस पर माता-पिता को पुत्र पर बड़ा क्रोध आया और उन्होंने निमाई को घर से बाहर भेज दिया और अतिथि के लिए निरंतर दो बार फिर भोजन परोसा परंतु निमाई ने हर बार भोजन का ग्रास खा लिया और तब उन्होंने गोपाल वेश में दर्शन देकर अपने माता-पिता और अतिथि को प्रसन्न किया।
चैतन्य देव जी ने जीव मात्र पर दया करना, भगवन्नाम से सतत रूचि रखना और जगत हितकारी सदाचार सम्पन्न विनीत व्यक्तित्व वालों का संग करना यही धर्म का सार अपने परम अनुयायी पार्षद सनातन गोस्वामी के समक्ष विश्व को अवदान के रूप में निरूपित किया।
चैतन्य महाप्रभु श्रीकृष्ण के प्रेमावतार यानी श्री राधाजी के अवतार माने जाते हैं, श्रीरामकृष्ण चैतन्य ‘भक्ति’ के अवतार थे, जीव को भक्ति सिखाने आए थे। उनके ऊपर भक्ति होने से ही सब कुछ हो गया।
ठाकुर कहते हैं, ‘प्रेमे हासे काँदे नाचे गाय। 
“अध्यात्म (रामायण) में है, लक्ष्मण ने राम से पूछा, ‘हे राम! तुम कितने भावों में तथा कितने रूपों में रहते हो! किस रूप में तुम्हारा चिन्तन कर सकता हूँ?’ राम बोले, ‘भाई! एक बात जान रखो, जहाँ पर ऊर्जिता भक्ति है, वहाँ पर निश्चय ही मैं हूँ।’ ऊर्जिता भक्ति में हँसता, रोता, नाचता, गाता है। यदि किसी में ऐसी भक्ति हो जाती है, निश्चय जानो, ईश्वर वहाँ स्वयं वर्तमान हैं। चैतन्यदेव का ऐसा ही हो गया था।”
श्रीरामकृष्ण (ब्राह्म और अन्य भक्तों के प्रति), तुम लोग ‘पैम, पैम’ करते हो; किन्तु प्रेम क्या सामान्य वस्तु है? चैतन्यदेव को ‘प्रेम’ हुआ था। प्रेम के दो लक्षण हैं। प्रथम, जगत भूल जाएगा। द्वितीय अपना शरीर को भी भूल जायेगा। इतना ईश्वर मे प्यार हो जाता है कि बेहोश! चैतन्यदेव को वन देखकर वृन्दावन का भाव और समुद्र देखकर श्री जमुना जी का भाव हो जाता था।
*स्वामी जी ने कहा कि* भगवान चैतन्य के रूप में कृष्ण के प्रकट होने की एक अनूठी विशेषता यह है कि यद्यपि भगवान चैतन्य स्वयं कृष्ण हैं, वे भगवान के रूप में नहीं बल्कि भगवान के भक्त के रूप में प्रकट होते हैं।
भगवान द्वारा अपने भक्त की भूमिका निभाने के दो कारण हैं,
उनमें से एक बाहरी और सार्वजनिक है, दूसरा आंतरिक और निजी।
भगवान के भक्त के रूप में आने का सार्वजनिक कारण सबसे आकर्षक और शक्तिशाली तरीके से भगवान के नामों का जाप सिखाना है। अपने स्वयं के भक्त की भूमिका निभाते हुए - सभी में सबसे महान भक्त - कृष्ण अपने स्वयं के अद्वितीय उदाहरण द्वारा शुद्ध भक्ति सेवा की महिमा दिखाने में सक्षम हैं। चूँकि भगवान चैतन्य स्वयं भगवान हैं जो हमें बताते हैं कि वे कैसे सेवा करना चाहते हैं, भगवान चैतन्य की शिक्षाएँ सबसे अधिक भक्ति सीखाते हैं।
जब भी भगवान कृष्ण आनंद लेना चाहते हैं, तो वे अपनी आध्यात्मिक शक्ति को “ह्लादिनी“ के रूप में प्रदर्शित करते हैं। वास्तव में, भगवान की आनंद देने वाली ऊर्जा ह्लादिनी-शक्ति का साक्षात् रूप होने के कारण, श्री राधा भगवान के आनंद का एकमात्र स्रोत हैं। भगवान कभी भी अपने से कम आध्यात्मिक किसी भी चीज़ का आनंद नहीं ले सकते। इसलिए राधा और कृष्ण एक समान हैं। हालाँकि, भगवान की ह्लादिनी विशेषता होने के कारण, वह सभी जीवों के लिए सभी सुखों का अंतिम स्रोत भी हैं। सत् जिसके द्वारा वे स्वयं में विद्यमान हैं और दुनिया का अस्तित्व रखते हैं; चित जिसके द्वारा वे सर्वज्ञ हैं और लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं; और ह्लादिनी जिसके द्वारा वे सर्व-आनंद हैं और अपने भक्तों को आनंद प्रदान करते हैं।

वैराग्यविद्यानिजभक्तियोग-शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः।
श्रीकृष्णचैतन्यशरीरधारी कृपाम्बुधिर्यस्तमहं प्रपद्ये।। (1)
अर्थात-जिस पुराणपुरुष ने जीवों को अपनी अहेतुक भक्ति और वैराग्य-विद्या आदि सिखाने के निमित्त ‘श्रीकृष्ण-चैतन्य’ नामवाला शरीर धारण किया है, उन कृपा के सागर श्री चैतन्य देव की हम शरण में जाते हैं।

कार्यक्रम के समापन उपस्थित भक्तगणों के बीच प्रसाद का वितरण के साथ हुआ।   


*(स्वामी मुक्तिनाथानन्द)*
अध्यक्ष
रामकृष्ण मठ, लखनऊ


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