राजकुमार गुप्ता
 हमारा देश क्रांतिकारियों की वीरगाथाओं से भरा पड़ा है। अफुल्ल चाकी देश के पहले ऐसे युवा और वीर क्रांतिकारी थे, जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। इस युवा क्रांतिवीर ने अंग्रेजों से घिरने पर अपने सिर में गोली मार ली और स्वर्य को जीते जी देश के लिए बलिदान कर दिया।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में देश के लिए 
नवयुवक अमर बलिदानी प्रफुल्ल चाकी के त्याग और बलिदान को ठाकुर संजीव कुमार सिंह (राष्ट्रीय नेता कांग्रेस एआइसीसी एवं एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया) ने याद कर नमन किया और कहा कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में मुजफ्फरपुर का किंग्सफोर्ड बम कांड खासा महत्व रखता है। यह कांड क्रांतिकारियों के अपमान के बदले के रूप में भी चर्चित है। 30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड बम कांड को प्रफुल्ल और खुदीराम द्वारा अंजाम दिया गया था। इसके चलते गुलामी के इतिहास का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मुकदमा अलीपुर बम केस हुआ और बंगाल के क्रांतिकारियों के निर्भीक आत्मोत्सर्ग की क्रांतिकारी विचारधारा पूरे देश में आग की तरह फैल गई। सन् 1888 में 10 दिसम्बर के दिन जन्मे क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। 

उन्होंने कहा, "मात्र 19 वर्ष के नवयुवक प्रफुल्ल चाकी ऐसे महान क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने जीवन की आहुति स्वतंत्रता संघर्ष के यज्ञ में हंसते-हंसते दे दी। उनका जन्म 10 दिसम्बर, 1888 को उत्तरी बंगाल के बोगरा जिला (अब बंगलादेश में) के बिहारी गांव में एक ग़रीब दलित परिवार में हुआ था। वह 2 साल के थे तो पिता राजनारायण चाकी का निधन हो गया। माता स्वर्णोमयी देवी ने इनका पालन-पोषण अत्यंत कठिनाई से किया। विद्यार्थी जीवन में ही प्रफुल्ल का परिचय स्वामी महेश्वरानंद द्वारा स्थापित गुप्त क्रांतिकारी संगठन से हुआ और उनके अन्दर देश को स्वतंत्र कराने की भावना बलवती हो गई। वह स्वामी विवेकानंद के साहित्य से भी बहुत प्रभावित थे। इसी बीच 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ जिसके विरोध में लोग उठ खड़े हुए। विद्यार्थियों ने भी इस आंदोलन में आगे बढ़कर भाग लिया। कक्षा 9 के छात्र प्रफुल्ल ईस्ट बंगाल कानून तोड़ने वाले छात्र प्रदर्शन में भाग लेने के लिए रंगपुर जिला स्कूल से निकाल दिए गए। इसके बाद क्रांतिकारी बारीद्र घोष उन्हें कलकत्ता ले आए, जहां इनका सम्पर्क क्रांतिकारियों की ‘युगांतर’ पार्टी से हो गया। क्रांतिकारियों को अपमानित करने के लिए कुख्यात कलकत्ता के चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को क्रांतिकारियों ने जान से मार डालने का निर्णय लिया, तो यह कार्य प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। दोनों क्रांतिकारी इस उद्देश्य से मुजफ्फरपुर पहुंचे, जहां किंग्सफोर्ड को सैशन जज बनाकर भेज दिया गया था। उन्होंने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का अध्ययन किया और 30 अप्रैल, 1908 को उसकी बग्घी पर बम फैंका लेकिन वह उसमें सवार नहीं था। उसकी जगह उसकी पत्नी और बेटी मारी गईं।

उन्होंने आगे कहा,"जब प्रफुल्ल और खुदीराम को यह बात पता चली कि किंग्स्फोर्ड बच गया और उसकी जगह गलती से दो महिलाएं मारी गई हैं तो वे दोनों दुखी और निराश हुए। खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर में पकड़े गए और उन्हें इसी मामले में 11 अगस्त, 1908 को फांसी हो गई। उधर प्रफुल्ल चाकी ने समस्तीपुर पहुंच कर कपड़े बदले और ट्रेन में बैठ गए। उसी डिब्बे में पुलिस सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी बैठा था, जिसे इन पर शक हो गया और उसने इसकी सूचना आगे दे दी। जब इसका अहसास प्रफुल्ल को हुआ तो वह मोकामा रेलवे स्टेशन पर उतर गए पर तब तक पुलिस ने पूरे मोकामा स्टेशन को घेर लिया था। 1 मई, 1908 की सुबह मोकामा में रेलवे की एक पुलिया पर दोनों ओर से दनादन गोलियां चल रही थीं। लगभग अढ़ाई घंटे तक बहादुर जांबाज ने खुद को चारों ओर से घिरा जानकर भी न तो अपने कदम पीछे खींचे और न ही आत्मसमर्पण किया। जब उन्होंने देखा कि आखिरी गोली बची है तो उन्होंने मां भारती को नमन किया, अपने आप को भारत माँ के चरणों में कुर्बान करने की कसम तो वो पहले ही ले चुका था पर उसकी आँखों से बहते आंसू ये बयान कर रहे थे कि वह जो अपनी धरती माँ के लिए करना चाहता था, वह अधूरा रह गया। पर उसका संकल्प कि जीते जी कभी भी किसी अंग्रेज के हाथों नहीं आएगा, पूरा होने जा रहा था। उसने अपनी आखिरी गोली को चूमा, वहां की धरती का आलिंगन किया और उस गोली से अपने ही सर को निशाना बना कर रिवाल्वर चला दी।

श्री सिंह ने बताया कि यह देख वहां मौजूद अंग्रेज भी हक्के बक्के रह गए और वहां मौजूद लोगों के मुंह खुले के खुले रह गए। जब गोलियों की आवाज आनी बंद हुई तो लोगों ने देखा कि पुलिया के उत्तर भाग में एक 20-21 साल का लड़का लहूलुहान गिरा पड़ा है और अंग्रेज पुलिस उसे चारों ओर से घेरे हुए है। कोई कुछ समझ पता उससे पहले ही अंग्रेज उस नवयुवक की लाश को अपने कब्जे में लेकर चलते बने। आजादी का ये दीवाना कोई और नहीं, प्रफुल्ल चंद चाकी ही थे। आजादी का ये वीर सपूत अपने बलिदान से मोकामा की धरती को भी अमर बना गया। अपने माता पिता की एकमात्र संतान होने के बावजूद चाकी ने देश को खातिर अपने को कुर्बान कर दिया। बिहार के मोकामा स्टेशन के पास प्रफुल्ल चाकी की मौत के बाद पुलिस उपनिरीक्षक एनएन बनर्जी ने चाकी का सिर काट कर उसे सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश किया। यह अंग्रेज शासन की जघन्यतम घटनाओं में शामिल है। 

उन्होंने कहा, चाकी का बलिदान जाने कितने ही युवकों की प्रेरणा बना और उसी राह पर चलकर अनगिनत युवाओं ने मातृभूमि की बलिवेदी पर खुद को होम कर दिया। अमर बलिदानी प्रफुल्ल चाकी राष्ट्रवादियों के दमन के लिए बंगाल सरकार के कालॉइस सर्कुलर के विरोध में चलाए गए छात्र आंदोलन को उपज थे। 16-17 वर्ष के छात्र अंग्रेजों और उनके पिटू सरकारी अधिकारियों पर प्रहार कर रहे थे। ये नवयुवक 'छात्र-भंडार' खोलकर नगरों में स्वदेश की बनी वस्तुएं बेचते थे और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करते थे। अरविन्द घोष ने स्वयं ही मिदनापुर के सत्येन्द्र नाथ बसु जैसे युवकों को क्रांति की शिक्षा दी थी। मिदनापुर के मियां बाजार में किराए के मकान में एक अखाड़ा चलता था, जिसमें लाठी, तलवार चलाने के साथ ही बंदूक से लक्ष्य भेद और घुड़सवारी का प्रशिक्षण दिया जाता था। यही अखाड़ा गुप्त क्रांतिकारी समिति के रूप में सक्रिय हुआ।

उन्होंने यह भी कहा, अमर बलिदानी प्रफुल्ल चाकी का बलिदान जाने कितने ही युवकों का प्रेरणा स्त्रोत बना और उसी राह पर चलकर अनगिनत युवाओं ने मातृभूमि की बलिवेदी पर खुद को होम कर दिया। क्रांतिकारी प्रफुल्ल चंद्र चाकी के सम्मान में आजाद स्मारक समिति भी बनी। उनकी याद में दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में वर्ष 2006 में एक श्रद्धांजलि सभा का भी आयोजन किया गया, जिसमें मोकामा के सांसद की मौजूदगी में अमर बलिदानी प्रफुल्ल चाकी की प्रतिमा के साथ ही उन पर डाक टिकट भी जारी करने की मांग की गई लेकिन भारत माता के लाड़ले चाकी फिर भी विस्मृत और अबूझ ही बने रहे। उन पर 2010 में डाक टिकट जारी हुआ पर मोकामा में आज तक एक स्मारक भी नहीं बन सका है। जिस स्थान पर चाको शहीद हुए, वह जगह आज भी सरकार के कब्जे में है फिर भी वहां अमर बलिदानी प्रफुल्ल चाकी का स्मारक बनाने की अनुमति अब तक क्यों नहीं दी जा सकी है यह विचारणीय प्रश्न है। सत्यता तो यही है कि क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी को सरकारें भले ही भूल जाएं लेकिन आम जन मानस में जब भी क्रांतिकारियों की चर्चा होगी प्रफुल्ल चाकी का नाम सबसे पहले लिया जाएगा। आज उनके जन्मदिन पर पुनः नमन और यह विश्वास कि शायद अब उनकी स्मृतियों को संजोया जाएं।

उन्होंने अंत में कहा, अमर बलिदानी प्रफुल्ल चाकी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नायकों में से एक थे, और उनकी वीरता ने न केवल उस समय के राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों को बल्कि आज के युवाओं को भी प्रेरित किया। उनकी आत्मसमर्पण की भावना और अपने देश के लिए बलिदान का उदाहरण आज भी हमारे दिलों में जीवित है। किंग्सफोर्ड बम कांड, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक था। उनके द्वारा उठाया गया कदम और उनका संघर्ष आज भी हमारे देश की स्वतंत्रता की यात्रा को जीवित रखते हैं। उनका बलिदान हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत है, और यही कारण है कि उनके नाम को भारतीय इतिहास में हमेशा सम्मान से याद किया जाएगा। आज भी, उनकी वीरता और संघर्ष को जानने के लिए लोग प्रेरित होते हैं, और यह हम सभी का कर्तव्य है कि हम उनके बलिदान को सहेजकर रखें और आगामी पीढ़ी को इसके बारे में बताएं।

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