दिनांक:- 14/10/2024
कल्पना के पृष्ठ नूतन पढ़ रही हूँ।
किसकी छवि जंगल-जंगल ढूँढ़ रही हूँ,
ख्वाब किसके खयालों में गढ़ रही हूँ।
मृग समान दिग्भ्रमित पागल मन मेरा
निराश हार,जीत के पथ पर बढ़ रही हूँ ।
प्रतिदिन निकलती किसी घर को खोजने,
नहीं मिलता, लगता आहत मन कोसने।
वीरान पथ पवन का शोर घनघोर लगता,
उर ओज भर विस्मित शिखर पर चढ़ रही हूँ।
पगलाई सुधि झुंझकुरों से किसको गुहारती,
किसके लिए हूँ मैं, नयन पथ पर पसारती।
नदी बहती सागर में समाने की चाह लेकर,
पर मैं तो कल्पना के पृष्ठ नूतन पढ़ रही हूँ।
आया एक दिवस प्रश्न,नहीं पहचाना प्रिये,
दिल ने प्रियतम बस तुमको ही माना प्रिये ।
बादल सा विकल, प्रेम-वृष्टि करने को आतुर,
दोनों प्रतिरूप बने कहाँ इसलिए कुढ़ रही हूँ ।
भावना की रस्सी का एक सिरा पकड़े कौन,
मेरे आजाद रूह को जकड़ने वाले तुम कौन?
क्या लिखकर मेरे विषय में पन्ना जलाते हो,
खोजती दिलों के तेज धड़कनों में, गूढ़ रही हूँ।
टूटी टहनी से कब डबडबाता है कोई फूल ,
सोना थी कभी,किंचित मात्र रह गई हूँ धूल!
बेसुरा गीत हूँ, कौन भला मुझे गा पाएगा ??
धूप में उड़ती धूल-सी, मैं निरंतर उड़ रही हूँ ।
पत्थर समझ घाट किनारे लग जाने दो मुझे,
मैं बाँसुरी की धुन कर्ण प्रिय सुनाने दो मुझे।
मैं लहर,पावनता का सम्बोधन कौन दे मुझे,
पुकारती स्वयं को,अपनी आवाज सुन रही हूँ।
(स्वरचित)
प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
चेन्नई
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