श्री गोरखनाथ मन्दिर परिसर, गोरखपुर में युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की 55वीं एवं राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज 

की 10वीं पुण्यतिथि पर सप्त दिवसीय पुण्यतिथि समारोह-2024


भारतीय सभ्यता व संस्कृति दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता व संस्कृति: मुख्यमंत्री


भारतीय सभ्यता का उद्देश्य वैदिक उद्घोष ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, 

सर्वे सन्तु निरामया’ को चरितार्थ करना, जिसको प्रधानमंत्री जी 

ने सबका साथ, सबका विकास के माध्यम से व्यक्त किया

 

जनता की आवाज व महत्व को सर्वोपरि रखना ही लोकतंत्र


हम सभी को भारत के लोकतंत्र पर गौरव की अनुभूति करनी चाहिए


हमें लोकतंत्र के मूल्यों को सुरक्षित व संरक्षित रखने के लिए, पवित्र 

भावना के साथ तथा व्यक्तिगत स्वार्थ को परे रखकर कार्य करना चाहिए


देश सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहा, भारत दुनिया 

में तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा


सभी भारतवासियों का यह दायित्व है कि संविधान के प्रति सम्मान व्यक्त 

करते हुए आगे बढ़ें, इससे हमारा लोकतंत्र और मजबूत व पुष्ट होगा 


भारत सच्चे मायनों में लोकतंत्र की जननी, इसे बचाए 

व बनाये रखने की जिम्मेदारी हम सभी की: उप सभापति


पूर्वी उ0प्र0 में शैक्षणिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक 

चेतना जागृत करने में गोरक्षपीठ का महत्वपूर्ण योगदान 


लखनऊ: 15 सितम्बर, 2024: मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने राज्यसभा के उप सभापति श्री हरिवंश की उपस्थिति में आज श्री गोरखनाथ मन्दिर परिसर, गोरखपुर में युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय नाथ जी महाराज की 55वीं तथा ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की दसवीं पुण्यतिथि पर सप्त दिवसीय पुण्यतिथि समारोह-2024 के अन्तर्गत ‘लोकतंत्र की जननी है भारत’ विषयक संगोष्ठी में समारोह के उद्घाटन सत्र को सम्बोधित करते हुए कहा कि गोरक्षपीठ की परम्परा के अनुसार अपने आचार्यों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए, उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर प्रतिवर्ष महत्वपूर्ण मुद्दों तथा जीवन मूल्यों पर आधारित समसामयिक विषयों से संबंधित महत्वपूर्ण संगोष्ठी, स्मृति व्याख्यान माला आदि का आयोजन किया जाता है। साप्ताहिक पुण्यतिथि कार्यक्रम, प्रथम सत्र में स्मृति व्याख्यान माला और द्वितीय सत्र में धार्मिक और आध्यात्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से निरंतर आगे बढ़ता है। उन्होंने मुख्य अतिथि के तौर पर प्रथम सत्र के शुभारम्भ तथा उद्बोधन के लिए राज्यसभा के उप सभापति श्री हरिवंश के प्रति आभार व्यक्त किया।  

मुख्यमंत्री जी ने कहा भारतीय सभ्यता व संस्कृति दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता व संस्कृति है। जब दुनिया में सभ्यता, संस्कृति तथा लोगों के मन में मानवीय मूल्यों के प्रति किसी प्रकार का आग्रह नहीं था, तब भारत में सभ्यता अपने चरम उत्कर्ष पर थी। इसका उद्देश्य किसी पर शासन करना या सत्वहरण करना नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य वैदिक उद्घोष ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया’ को चरितार्थ करना रहा है। जिसको प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने सबका साथ, सबका विकास के माध्यम से व्यक्त किया तथा जिसको हमारी ऋषि परम्परा में ‘जियो और जीने दो’ कहा गया। ‘जियो और जीने दो’ की अवधारणा ही सच्चा लोकतंत्र है। यह भारत की ही देन है।

 मुख्यमंत्री जी ने कहा कि प्राचीन काल में यदि राजा निरंकुश या दुराचारी हो जाता था, तो गणपरिषद उसकी निरंकुशता व दुराचार की सजा देने के लिए, उसे सत्ता से च्युत् करने का अधिकार रखती थी। यह स्थिति प्राचीन काल से लेकर प्रत्येक कालखण्ड में देखने को मिली। वैदिक, रामायण तथा महाभारत काल में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। लोकतंत्र की परिभाषा भले ही अमेरिका से उद्भूत हुई हो, जिसके अंतर्गत अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को जनता का शासन, जनता द्वारा तथा जनता के लिए बताया, लेकिन सही मायने में इस प्रकार की शासन व्यवस्था प्राचीन काल के वैदिक कालखण्ड से लेकर अर्वाचीन काल तक भारत में देखने को मिलती है।

मुख्यमंत्री जी ने कहा कि जनता की आवाज व महत्व को सर्वोपरि रखना ही लोकतंत्र है। इस सत्र के मुख्य अतिथि ने अपने उद्बोधन में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया कि प्रजा का सुख ही राजा का दायित्व है। आचार्य चाणक्य ने इस बात के लिए तत्कालीन सत्ता को आग्रही बनाया था। भीष्म पितामह ने जब युधिष्ठिर को उनके कर्तव्यों का एहसास कराया तो भी इसी बात का उल्लेख किया था। इसकेे पूर्व भी रामायण कालखण्ड में भगवान श्रीराम ने भी जनता की आवाज को ही महत्व दिया। यह क्रम लगातार चलता रहा और आज भी जारी है। महाभारत में उल्लेख किया गया है, कि भगवान श्रीकृष्ण ने कभी स्वयं को राजा नहीं माना। उनकी गण परिषद के वरिष्ठतम सदस्य, परिषद प्रमुख के रूप में काम करते थे। भगवान श्रीकृष्ण उनकी सलाह के अनुसार अपना व्यवहार करते थे। आम जनमानस की सुनवाई होती थी। 

द्वारका में अंतर्द्वंद्व का दृश्य भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही घटित हुआ। गणपरिषद के सदस्यों ने अधिकारों के लिए आपस में संघर्ष शुरू कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि इस संघर्ष में उनका पुत्र व सगे सम्बन्धी भी हैं। जब उन्होंने अपने पुत्र को अंतिम जल दिया तो उनकी आंखों में आंसू थे। उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि राज्य के नियम प्रत्येक नागरिक पर समान रूप से लागू होते हैं। कानून जनता व जनता पर शासन करने वाले लोगों पर भी समान रूप से लागू होते हैं। तुमने इस नियम को नहीं माना, इसलिए इस प्रकार की दुर्गति के शिकार हो रहे हो। भगवान श्रीकृष्ण यही बात आज से 5000 वर्ष पूर्व इस दुर्गति के शिकार हुए गण परिषद से जुड़े अन्य सदस्यों के बारे में भी कहते हैं। इसके उपरान्त भी अलग-अलग कालखण्डों में यह चीज देखने को मिली। 

मुख्यमंत्री जी ने कहा कि जब दुनिया में सभ्यता और संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं थी तब भारत में गणपरिषदों का अस्तित्व था। वैशाली इसका एक उदाहरण है। यह अत्यंत प्राचीन व्यवस्था जनता के हितों के लिए समर्पित थी। परिषद के सुझावों को सर्वोपरि रखा जाता था। जब हम अपनी विरासत को संजो कर नहीं रख सकते तो हमारे सामने भयावह स्थिति पैदा होती है। जैसा कि हमें गुलामी के कालखण्ड में देखने को मिला। हम सभी को तत्कालीन परिस्थितियों पर एक बार फिर से मंथन करने की आवश्यकता है।

मुख्यमंत्री जी ने कहा कि देश सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहा है। भारत दुनिया में तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है। हम सभी को भारत के लोकतंत्र पर गौरव की अनुभूति करनी चाहिए। हमें लोकतंत्र के मूल्यों को सुरक्षित व संरक्षित रखने के लिए, पवित्र भावना के साथ तथा व्यक्तिगत स्वार्थ को परे रखकर कार्य करना चाहिए। लोकतंत्र जाति, मत तथा संप्रदाय आदि के आधार पर विभेद को प्रतिषिद्ध करता है। संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा स्वतंत्र भारत में आगे बढ़ने का अवसर दिया। सभी भारतवासियों का यह दायित्व है कि संविधान के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए आगे बढ़ें। इससे हमारा लोकतंत्र और भी मजबूत व पुष्ट होगा। 

इस अवसर पर राज्य सभा के उप सभापति श्री हरिवंश ने समारोह को मुख्य अतिथि के तौर पर सम्बोधित करते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अतीत के महान लोगों को जानना चाहिए। हम अतीत से सीख लेकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकेंगे। भारत में संास्कृतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना जगाने में पीठों की अकल्पनीय भूमिका रही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में शैक्षणिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना जागृत करने में गोरक्षपीठ ने लम्बे समय से महत्वपूर्ण योगदान दिया है। स्वाधीनता आन्दोलन के समय में भी यह मठ राष्ट्रीय चेतना के प्रसार व विस्तार का केन्द्र रहा था। स्वतंत्रता पश्चात भी इस मठ ने मन्दिर आन्दोलन से लेकर आपात काल आन्दोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई है। 

उपसभापति ने कहा कि मर्यादा के साथ अपने विचारों को व्यक्त करना लोकतंत्र है। यह हजारों वर्षों से भारत की परम्परा में शामिल रहा है। वेद एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थों में लोकतंत्र के दर्शन होते हैं। पहले इस पर चर्चा नहीं की जाती थी, किन्तु आज चर्चा की जा रही हैं। प्रधानमंत्री जी ने जी-20 सम्मेलन में सबूत के आधार पर इस बात को सशक्त तरीके से रखा कि हमारे लोकतांत्रिक मूल्य सबसे प्राचीन है। भारत में यूरोप जैसे निरंकुश शासक नहीं थे, क्योंकि यहां के शासक वेद, पुराण में उद्धृत नैतिक मूल्यों से बंधे रहते थे। हमारे यहां हर्ष जैसे शासक हुए, जिन्होंने सबकुछ दान कर दिया था। चन्द्रगुप्त मौर्य सबकुछ छोड़कर जैन साधु बन गये। सम्राट अशोक विजय यात्रा के स्थान पर धम्म यात्रा के लिए निकले। 

हमारे यहां नैतिकता की परम्परा थी। पूर्व राष्ट्रपति डॉ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि भारत की वैचारिक एवं भाषायी विविधता में परिवादवाद एवं निरंकुशता नहीं, बल्कि संस्कृतियों का संगम था। हमारे यहां प्रजातंत्र का रूप कौटिल्य के अर्थशास्त्र के पहले अधिकरण में देखा जा सकता है। जिसमें उसने कहा ‘प्रजा सुखे सुखम राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्। नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितं।।’ अर्थात प्रजा के सुख में राजा का सुख है तथा प्रजा के हित में ही उसका हित है। राजा का अपना प्रिय कुछ नहीं है, बल्कि प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है। उन्होंने कहा कि यह कथन अब्राहम लिंकन के लोकतंत्र की परिभाषा से 2,700 साल पहले ही लिखा गया है। जिससे पता चलता है कि भारत ही लोकतंत्र की जननी है। हमारे वेदों में सभा और समिति का उल्लेख मिला है जो तत्कालीन समय में नियम बनाने वाली संस्था थी। इसमें जन सामान्य की भागीदारी होती थी। कात्यायन स्मृति में लिखा गया है कि राजा कोई भी कर्म अपने मर्जी से न करे बल्कि शास्त्रों के अनुरूप नियमों के अनुसार चले। यह सारे उदाहरण हमारे प्राचीन भारत में लोकतंत्र के दर्शन कराते है। 

उपसभापति ने कहा कि आजादी के बाद औपनिवेशिक शासन काल में भारत को असभ्य देश बताने का नरेटिव चलाया गया था। हमारे यहां प्राचीन काल से ही गणतंत्र रहा है। बौद्ध कालीन 19 गणतंत्रों में लोकतंत्र था, जहां सहभागी शासन व ग्रामस्वराज्य के माध्यम से शासन व्यवस्था संचालित होती थी। विश्व में 13वीं शताब्दी में ब्रिटेन में मैग्नाकार्टा से लोकतंत्र की शुरूआत मानी जाती है, जबकि हमारे यहां भगवान बसवन्ना ने 12वीं शताब्दी में ही अनुभव मण्डप जैसी संस्था शुरू की थी जिसमें सभी सामाजिक, अर्थिक पृष्ठभूमि के लोगों को शामिल किया गया था। इससे बड़ा कोई लोकतंत्र नही था। 

भारत ने प्राचीन काल से ही अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को आगे बढ़ाया है। प्रसिद्ध साहित्यकार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने राष्ट्रपति डॉ0 जाकिर हुसैन से पूछा था कि सभी सभ्यताएं नष्ट हो गयी, लेकिन भारत की सभ्यता कैसे बच गयी। उन्होंने कहा कि भारतीय सभ्यता इसलिए बची क्योंकि भारत सदैव अपने वेद और उपनिषदों के नैतिक मूल्य के आधार पर चला। उपसभापति ने कहा कि भारत सच्चे मायनों में लोकतंत्र की जननी है। इसे बचाए व बनाये रखने की जिम्मेदारी हम सभी की है।

सवाई, आगरा के ब्रह्मचारी दास लाल और सुग्रीव किलाधीश अयोध्या के स्वामी विश्वेष प्रपन्नाचार्य तथा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष प्रो0 सदानन्द गुप्त नेे भी कार्यक्रम को सम्बोधित किया।

इस अवसर पर जगद्गुरु रामानुजाचार्य, महंत सुरेश दास जी महाराज, महंत शिवनाथ जी महाराज, महंत राममिलन दास जी महाराज, महामंडलेश्वर महंत संतोष दास जी महाराज, महंत कमलनाथ जी महाराज, महंत योगी विलासनाथ जी महाराज, योगी भयंकर नाथ जी महाराज, महंत रवींद्र दास जी महाराज, विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थानों के पदाधिकारी, प्रधानाचार्य, शिक्षक, बच्चे तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।

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