स्वामी विवेकानंद एक महान व्यक्तित्व -पी सी गिरी 
नोबल पुरस्कार से सम्मानित फ्रेंच साहित्यकार रोमां रोलां (1866-1944ई.)ने अपनी अनेक कृतियों के अलावा तीन महान भारतीयों के जीवन का गहराई से अध्ययन करने के उपरांत उनकी जीवनियां लिखीं।1924 ई.में उन्होंने महात्मा गाँधी के ऊपर एक पुस्तक लिखी फिर 1928 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस और 1929 में स्वामी विवेकानंद की जीवनी लिखी।
स्वामी विवेकानंद की उनके द्वारा लिखी जीवनी का हिंदी में सर्वप्रथम अनुवाद अज्ञेय जी द्वारा 1968 में किया गया जिसे साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया लेकिन उस अनुवाद में मूल पुस्तक के अनेक अंशों का संपादन कर दिए जाने के कारण असंतुष्ट होकर अद्वैत आश्रम,कलकत्ता ने इसके प्रकाशन का अधिकार वापस ले लिया।कई वर्षों बाद अद्वैत आश्रम ने रघुराज गुप्त द्वारा इस पुस्तक का अविकल हिंदी अनुवाद कराया जिसका प्रथम संस्करण नवें दशक में प्रकाशित हुआ।तब से इस पुस्तक के लगभग दो दर्जन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।

रोमां रोलां पाश्चात्य जगत के उन गिने-चुने विद्वानों में अग्रगण्य हैं जिन्होंने भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति को गहराई से समझा।उन्होंने भारत की हज़ारों वर्ष पुरानी परंपरा को गहनता से समझने के बाद उसे आत्मसात किया और उसके आदर्शों की हृदयग्राही व्याख्या प्रस्तुत की।परमहंस जी व विवेकानंद जी की उनके द्वारा लिखी जीवनी के प्रत्येक वाक्य में इन दो महान भारतीय सन्तों के प्रति उनका आदर व सम्मान अनुभव किया जा सकता है।

आज स्वामी विवेकानंद जी की पुण्यतिथि पर उनके बारे में रोमां रोलां द्वारा रचित उनकी जीवनी के कुछ वाक्यों से स्वामी जी के महान व्यक्तित्व का अनुमान किया जा सकता है।अद्वैत आश्रम,कोलकाता द्वारा प्रकाशित यह जीवनी स्वामी जी के सभी प्रेमियों को अवश्य पढ़नी चाहिए।स्वामी विवेकानंद जी के बारे में रोमां रोलां, पुस्तक की प्रस्तावना में ही अग्रलिखित बातें कहते हैं।

" वे मूर्तिमान ऊर्जा थे।मानव के लिए कर्म ही उनका संदेश था।उनके सिंह हृदय में शक्ति का तूफान हिलोरें मारता था।उन्हें निष्क्रियता से घृणा थी तभी उन्होंने कहा - ' सबसे पहले बलवान और पुरुषार्थी बनो।मैं उस दुष्ट का भी सम्मान करता हूँ जो बलवान और पुरुषार्थी है क्योंकि उसकी शक्ति उसे किसी दिन दुष्टता और स्वार्थी कर्म को त्याग करने के लिए बाध्य करेगी और अन्ततः उसे सत्य तक पहुंचा देगी।' विवेकानंद का बलिष्ठ शरीर रामकृष्ण परमहंस के सुकुमार-कोमल शरीर से सर्वथा भिन्न था।चौकोर कंधे,चौड़ी छाती,पुष्ट और भारी भुजाएं सुडौल और व्यायाम की अभ्यस्त थीं।रंग गेहुंआँ, चेहरा भरा हुआ, चौड़ा माथा और दृढ़ जबड़े थे।बड़ी काली उभरी हुई भारी पलकों वाली भव्य आँखें थीं जो कमल की पंखुड़ी की उपमा याद दिलाती थीं।उनकी नज़र के जादू से कुछ छिप नहीं सकता था।उन आंखों का दुर्निवार आकर्षण, उनकी बौद्धिकता,विनोदप्रियता या करुण आनंद में खो जाने की क्षमता और चेतना की गहराई तक डूबना व आक्रोश से मुरझाना  भी उतना ही व्यापक था। "

" विवेकानंद का प्रमुख गुण उनका राजसी भाव था।वे जन्मजात राजा थे।भारत और अमेरिका में जो भी व्यक्ति उनके सामने आया उसने उन्हें सिर नवाया। तीस वर्ष का यह युवक जब सितम्बर 1893 में कार्डिनल गिबन्स द्वारा उदघाटित शिकागो के धर्मसम्मेलन में प्रकट हुआ तब उसके भव्य व्यक्तित्व के सामने अन्य सभी प्रतिनिधि भुला दिए गए।उनके द्वितीय स्थान पर होने की कल्पना असम्भव थी।जहाँ कहीं वे गये, उन्हें प्रथम स्थान मिला।ऐसा लगता था मानो उनके इष्टदेवता ने उनका नाम उनके  मस्तक पर अंकित कर दिया था।संग्राम और जीवन उनके लिए पर्यायवाची थे।उन्हें थोड़े दिन ही जीना था। गुरु रामकृष्ण और उनके महान शिष्य की मृत्यु के बीच सोलह वर्ष का ही अंतराल है।भीषण संघर्ष और ज्वालाओं में गुज़रे वर्ष....वे अभी चालीस वर्ष के भी न हुए थे कि उनका शरीर चिता पर रख दिया गया।किन्तु इस चिता की ज्वाला अभी भी धधक रही है।पौराणिक भृंगराज की तरह उसकी राख से भारत की नयी चेतना का जन्म हुआ है।"

(स्वामी विवेकानंद :12 जनवरी 1863- 4जुलाई1902)
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     -- प्रो.प्रकाश चन्द्र गिरि
        एम.एल.के.पी.जी.कॉलेज,
                    बलरामपुर
की कलम से......

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