राजकुमार गुप्ता 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस था। पर कुछ गुणी और सुधी मित्रों की ऐसी टिप्पणियाँ दिखीं, जिनमें इन दिनों की पत्रकारिता का मखौल उड़ाते-उड़ाते पत्रकारों का भी उपहास जैसा किया गया लगा। यह एक तो जर्मन कहावत "दास काइंड मिट डेम बडे ऑस्चुटेन" (बच्चे को नहलाकर बाहर निकालें, नहाने के पानी के साथ उसे भी न फेंक दें)  जैसा है, दूसरे यह देश और समाज के लोकतंत्र को जिंदा रखने में असाधारण जोखिम उठाकर किये जा रहे पत्रकारों के योगदान की अनदेखी करना है। इस बारे में पांच आग्रह हैं !!

*एक*

इस देश के पत्रकार कभी नहीं बिके । जब से प्रेस नाम की संस्था और मीडिया शब्द अस्तित्व में आया है, तब से पत्रकारों ने अपना काम किया है ; निडर, बेबाक और पूरी दमदारी के साथ। ब्रिटिश राज में कंपनी, वायसरायों और उनके मैस्सी साहबों की लूट और निर्ममता को पत्रकारों ने ही बेनकाब किया था, जिसके नतीजे में पूरी दुनिया और खुद इंग्लैंड की जनता में इस बर्बरता के विरुद्ध भावनाएं भड़कीं और बर्तानिया हुकूमत को तरीके बदलने के लिए विवश कर दिया। ये अनेक थे, ऐसे ही एक पत्रकार का नाम था कार्ल मार्क्स, जिन्होंने 1852 से 1861 के बीच लन्दन की लाइब्रेरी में बैठकर और ब्रिटिश संसद में रखी गयी रिपोर्ट्स के आधार पर अमरीका के अखबार 'द न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून' के लिए डिस्पैच लिखे । उन्होंने दुनिया के अखबारों के लिए 1857 की लड़ाई को भी कवर किया और उसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम करार दिया । तब का उनका लिखा भारत में उपनिवेशवाद की लूट का आज भी प्रामाणिक दस्तावेज माना जाता हैं। यह हिंदी में किताब के रूप में भी मौजूद है। 

आजादी की लड़ाई के कवरेज और उसके लिए प्रेरणा देने का काम भारत के भीतर भी अनगिनत पत्रकारों ने किया। उनके अखबार जब्त हुए, जुर्माना चुकाने में घर और जायदाद बिक गयी, जेलें काटनी पड़ीं । इनके नाम इतने ज्यादा हैं कि उन्हें गिनाने के लिए जगह कम पड़ जायेगी। युवा भगत सिंह पत्रकार थे, खुद गांधी पत्रकार थे, अम्बेडकर ने अखबार निकाले, नेहरू ने नेशनल हैराल्ड अखबार शुरू किया। नाम और भी हैं, अभी सिर्फ एक बाल गंगाधर तिलक का उदाहरण ही ले लें, जिन्हें  1891 में अपने अखबार ‘केसरी’ में ‘भारत की दुर्दशा’ लेख लिखने पर 6 साल की सजा हुयी थी। इस सजा के खिलाफ बंबई के 6 लाख मजदूरों ने 6 दिन की प्रतीकात्मक हड़ताल कर ऐसा विरोध जताया था कि दुनिया चकित हो गयी थी। दूर बैठे लेनिन ने भी प्रेस की स्वतन्त्रता की हिमायत में औद्योगिक मजदूरों की इस राजनीतिक हड़ताल के महत्त्व को दर्ज करते हुए उसका अभिनंदन किया था। 

आजादी के बाद भारत के पत्रकारों की निर्भीकता और उनकी खोजी पत्रकारिता की मिसाल 75-77 की इमरजेंसी में देखी गयीं । उसके बाद के दौर में, आज भी उनकी क्षमता कायम है। किसान आन्दोलन को उसके लायक जरूरी कवरेज देने के चलते न्यूज़क्लिक पर ताला डला हुआ है और प्रबीर पुरकायस्थ जेल में हैं, बर्बरों को बर्बर, फासिस्टों को फासिस्ट कहने वाली गौरी लंकेश मारी जा चुकी हैं। राजा का बाजा बजाने से इंकार करने वाले सैकड़ों रवीश, परान्जोय गुहा ठाकुरता, अभिसार, अजीत अंजुम और पुण्य प्रसून वाजपेई नौकरियों से निकलवा दिए गए हैं। 

खड़े-खड़े नौकरी से निकलवाना क्या होता है, ये अमेठी के दो पत्रकार, इन दिनों स्वयं को राजमहिषी मान बैठी सत्ता पार्टी की नेत्री से सवाल पूछने की हिमाकत करके देख चुके हैं। अखबार के मालिक इत्ते डरे कि अपने इन दोनों पत्रकारों का अस्तित्व तक मानने से इंकार कर दिया।  

यह दशा सिर्फ वामपंथी या जिन्हें संघी कुनबा प्यार से सिकुलर कहता है, उस विचार को मानने वाले पत्रकारों भर की नहीं है, उनकी ज्यादा है। मगर दक्षिणपंथ में विश्वास करने वाले "पत्रकार" भी इस विपदा से बचे नहीं है। उनमें से कुछ के नाम लिए जा सकते हैं, मगर इससे उनका बचा खुचा "भविष्य" भी  खराब होने की आशंका है, इसलिए फिलहाल छोड़िए।  

मतलब यह कि पत्रकारों को कोसने से या उनका मजाक बनाने की बजाय पत्रकार मानने की कसौटी को जाँचा जाना चाहिए। यह सारे धान पंसेरी के भाव तौलने का मसला नहीं है, यह जिन्हें धान मानकर तौला जा रहा है, वह धान है भी कि नहीं यह पहचानने का मामला है ।  चंद नामजद बंदे-बंदियां खुद को पत्रकार कहते हैं और उन जैसा काम करते दिखते हैं, इसलिए वे पत्रकार नहीं हो जाते। वे चारण और भाट और चीखाओं की किस्म हैं और यह प्रजाति हमेशा रही है। यह समय उलटा-पुलटा समय है, इसलिए इन दिनों इनका बसंत आया हुआ लगता है। मगर चांदी के कितने भी बर्क लगा लेने से कीच  चंदन नहीं हो जाता। लिहाजा इन्हें पत्रकार मानकर समूची पत्रकार बिरादरी को धिक्कारा जाना शुरुआत ही गलती से करना होगा।   

*दो*

आज भी पत्रकार हैं और अपनी जान दांव पर लगाकर, कई तो जान गंवाकर भी पत्रकारिता को बचाए हुए हैं!! नवउदारीकरण के हावी होने के बाद से ही प्रेस की भूमिका में बदलाव आया है। उसमें असहमति, विरोध और तार्किक तथ्यपरक विश्लेषण घटे हैं। सत्य की हाजिरी भी घटी है। मोदी काल के दस वर्ष – बाकी सबके साथ प्रेस और मीडिया के लिए बेहद घुटन – जो हुआ है, उसके अनुपात में घुटन एक छोटा शब्द है -- वाले रहे हैं। दबाव, धमकी, गिरफ्तारी और संस्थान की तालाबंदी से लेकर बात इस सबके बावजूद समर्पण न करने वाले पत्रकारों की हत्याओं तक जा पहुंची है। प्रबीर और गौरी लंकेश का जिक्र पहले किया जा चुका है -- मगर वे अकेले नहीं हैं। अनेक हैं उनके जैसे, जिनकी चर्चा कम ही हुई है। 

‘इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स’, ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’, ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ सहित अन्य प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा दुनिया भर के देशों में प्रेस की दशा का आंकलन कर विश्व स्वतंत्रता सूचकांक तैयार किया जाता है। इनकी रिपोर्ट के अनुसार भारत में पत्रकारों की हत्या और उन पर दमन तालिबानी राज में अफगानिस्तान में पत्रकारों पर हुए दमन से भी ज्यादा है। यही वजह है कि प्रेस स्वतन्त्रता सूचकांक में भारत 2023 में 180 देशों में 161वें नम्बर पर था । यह अत्यंत खतरनाक स्थिति है, इसलिए और अधिक खतरनाक कि पिछली वर्ष की रैंक 150 से यह एक ही वर्ष में 11 की छलांग लगाकर और नीचे गयी है । जो नीचे गया, वह पत्रकार  नहीं है – कारपोरेट नियंत्रित मीडिया है ।

*तीन*

पत्रकार और प्रेस/मीडिया के मालिक दो अलग-अलग, एकदम अलग-अलग, गुणात्मक रूप से भिन्न चीजें हैं। उन्हें गड्डमड्ड करने पर गलत नतीजे पर पहुंचेंगे ही। बीन मालिक की है, स्वरलिपि वही लिखता है। जाहिर है कि बेसुरेपन का दोषी भी वही होगा। पत्रकार या मीडिया पर्सन, भले कितना बड़ा और नामी क्यों नही हो, कवरेज और उसकी प्रस्तुति का निर्णय नहीं करता। यह फैसला वे करते हैं, जो पत्रकारिता का ‘प’ तक नहीं जानते, अलबत्ता मुनाफे की भाषा, वर्तनी, व्याकरण और सबसे बढ़कर गणित खूब अच्छी तरह जानते हैं। ऐसा आज से नहीं है, आज कुछ ज्यादा है, मगर ऐसा हमेशा से है। 1886 के शिकागो और अमरीका के कुछ ख़ास अखबारों में मई दिवस के शहीदों की ट्रायल का कवरेज देख लीजिये। एक अखबार है, जिसके सेठ ने आज से नहीं, जब से उसने पड़ोसी राज्य से अखबार का धंधा शुरू किया है, तबसे अपने पत्रकारों को स्टैंडिंग इंस्ट्रक्शन दिया हुआ है कि उनके अखबार में लेफ्ट-वेफ्ट, मजदूर-वजदूर, कामरेड-वामरेड और लाल झंडा दिखना नहीं चाइये!! अब यह "नहीं चाइये" थोड़ा और आगे बढ़ गया है। 

लुब्बोलुबाब ये है कि पत्रकार की जो थोड़ी बहुत दिखावटी आजादी थी, वह भी खत्म हो चुकी है। अब जो भी है, वह धनकुबेर है - मीडिया उसका धंधा है, अख़बार और चैनल धंधा चमकाने, अपने धंधे के अपराध छुपाने और राजनेताओं से साझेदारी कर और अधिक माल कमाने का औजार है। इस वर्ष की शुरुआत में अंबानी का रिलायंस समूह 72 टीवी चैनल्स का मालिक था, इस वर्ष में यह संख्या 100 होने वाली है। एनडीटीवी के अधिग्रहण के बाद अडानी समूह भी इस धंधे में कूद चुका है। जो इनके स्वामित्व में नहीं हैं, उनमें भी इनका पैसा लगा हुआ है और ये उसके सम्पादकीय रुझान, कवरेज और कंटेंट को निर्धारित करते हैं। नतीजा यह है कि सच गायब हो गया है, सच की पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों का जीना मुहाल हो गया है।

*चार*

इसकी शुरुआत हुयी सम्पादक नाम की संस्था - जो कभी सर्वोपरि हुआ करती थी – के खात्मे के साथ। सम्पादक मतलब खबर के लिए लड़ जाने, संवाददाता और पत्रकार के लिए अड़ जाने वाला कप्तान!! सच्ची घटना है कि एक मुख्यमंत्री ने एक अंग्रेजी अखबार के  सम्पादक से कहा था कि वह अपना ब्यूरो चीफ बदल दे। उस सम्पादक ने उस ब्यूरो चीफ की तनखा बढ़ाकर उसे पांच साल और उसी जगह रहने का पत्र जारी कर दिया। अब इस तरह के सम्पादक नहीं रखे जाते। जो रखे जाते हैं, वे इस तरह के नहीं हों, यह पक्का करने के बाद ही रखे जाते हैं। यह प्रजाति ही लुप्त हो गयी है।

जो सुधी जन नोस्टाल्जिया में जी रहे हैं और राहुल बारपुते, राजेन्द्र माथुर, वर्गीज, कुलदीप नैय्यर, एन राम यहाँ तक कि अरुण शौरी की याद में दुबले हुए जा रहे हैं, वे भूल रहे हैं कि इन जैसा होने के लिए बाबू लाभचन्द छजलानी, गोयनका और द हिन्दू समूह जैसे मालिक और नेहरूवियन काल जैसा वातावरण चाहिए होता है। कल्पना कीजिये कि आज यदि राहुल बारपुते या राजेन्द्र माथुर, यहाँ तक कि प्रभाष जोशी भी होते, तो क्या इंदौर में कांग्रेस उम्मीदवार को कैलाश विजयवर्गीय द्वारा ‘अत्यंत प्यार से  बिठाए जाने’ के मुद्दे पर वह लिख पाते, जिससे इंदौर हिल और दहल उठता? नहीं !! उन्हें भी यही लिखना पड़ता कि ‘बम भाई ने जो बम बम बोली है वह कांग्रेस के अन्दर परेशानी और घुटन की वजह से बोली है -- वो तो उसे निर्वाचन कार्यालय का पता नहीं पता था, इसलिए कैलाश भिया तो उसे ठीये तक पहुंचाने के लिए गए थे। 'कैलाश भिया और मेंदोला भिया' के जागरूक नागरिकत्व और जरूरतमन्द को राह दिखाने के सत्कृत्य पर दो चार सम्पादकीय भी ठेल दिए जाते।  गरज ये कि आज उन आदर्श कहे जाने वालों में से कोई भी सम्पादक होता, तो वह भी कोई कद्दू नहीं उखाड़ पाता, या तो दरबार में बैठकर घुइयाँ छील रहा होता या फिर बिना पेंशन या गुजारे भत्ते के अपने घर बैठा होता।

*पांच*

इस सबके होते हुए भी पत्रकारों का लोहा अभी जंग नहीं खाया, उनकी रीढ़ अभी तनी हुई है। अनेक स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियां ऐसी हैं, जिनमे बारपुते, माथुर, नैय्यर, वर्गीज और राम बनने की काबिलियत है ; बल्कि सूचना के विस्फोट के इस काल में उनसे भी ज्यादा बेहतर बनने की क्षमता भी है, संभावना भी है। वे यह काम कर भी रहे हैं। अपने-अपने संस्थानों की सीमा से बाहर जाकर अभिव्यक्ति के नए माध्यम ढूंढ तलाश रहे हैं। सोशल मीडिया के अनगिनत प्लेटफॉर्म्स पर, यूट्यूब के सैकड़ों चैनल्स पर वे डटे हुए, वेब मैगजीन्स और साइट्स चला रहे हैं। जोखिम उठाकर भी सच सामने ला रहे हैं। कथित मुख्यधारा के मीडिया आउटलेट्स द्वारा ब्लैकआउट और सेंसर कर देने के बाद भी सारा सच यदि लोगों तक पहुँच रहा है, तो इन्ही फुट सोल्जर्स के कंधों पर सवार होकर पहुँच रहा है। ठीक है, उनके पास चकाचौंध नहीं है, सच तक पहुँचने का जज्बा और उसे दर्ज करने का साहस तो है।

*जुगनुओं का साथ लेकर राह रोशन कीजिये! रास्ता सूरज का देखा तो सुबह हो जायेगी !!*

हालांकि पत्रकार जुगनू नहीं है। स्वतंत्रता मिले, तो उनमें सूरजों का भी सूरज बनने की काबिलियत है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर इन्हें सराहिये, इनके योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कीजिये। देश में जो लोकतंत्र बचा है, उसमें एक बड़ा योगदान इन पत्रकारों का भी है, जिन्हें न कभी निश्चित जीवन जीने लायक वेतन मिला, न काम करने के लिए निरापद वातावरण मिला। मगर तब भी उन्होंने अपनी कलम गिरवी नहीं रखी।

*(लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। 

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