चला परिंदा घर की ओर

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चला परिंदा घर की ओर, 

हरा भरा है मेरे घर का आंँगन, 

सुदूर भ्रमण कर आया , 

 नहीं दिखा मातृछाया जैसा कोई, 

जहांँ खुशियों का अंबार है, 

रिश्तो का लिहाज़ है , 

संस्कार दिया है हम सबको, 

भूल कोई ना हमसे हो, 

 कोई हवा छू न सके अभिमान को, 

 चला  परिंदा घर की ओर ‌। 


माटी में जन्मे हैं  माटी के लाल हैं हम, 

माटी की मोल को समझे हम, 

सर्दी हो या गर्मी  तूफ़ान को झेले हैं हम , 

मातृभूमि से बढ़कर , 

इस जहांँ में  कोई दूसरा स्वर्ग नहीं, 

चला परिंदा घर की ओर ‌। 


दादा - दादी  का प्यार हमें  बुलाता है पास, 

जब हम कभी मायूस होते, 

चाचा -  चाची , बुआ  , ताऊ - ताई दिलाते हमें उपहार , 

पिता की डॉट भी छुपा है प्यार , 

  सबसे दूर होने पर अपनेपन का एहसास , 

मुझे खूब रुलाते , 

चला परिंदा घर की ओर। 


पढ़ा लिखा  युवा , बेरोजगारी का मारा , 

ढूंँढता है कामकाज  , थका हारा ,

 लौटता है लगता औरों को बेचारा , 

 इसमें किस्मत का कोई दोष नहीं, 

चला परिंदा घर की ओर‌।


मांँ भारती के हम सपूत, हिम्मत न कभी हारेंगे , 

माटी का तिलक माथे पर लगा के , 

फावड़ा, कुदाल हाथों में लें निकलें हम खेतों में, 

अपना काम करने में कोई शर्म नहीं , 

मेहनत से बड़ा कोई अर्थ नहीं , 

चला परिंदा घर की ओर। 


(मौलिक रचना) 

चेतना प्रकाश चितेरी , प्रयागराज , उत्तर प्रदेश

@सर्वाधिकार सुरक्षित

९ /५/२०२४ , ६: २१ अपराह्न

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