संपूर्ण तत्वज्ञान से भरपूर, प्रेम रस सिद्धांत

अशोक कुमार मिश्र 

जगद् गुरु 1008 श्री कृपालु जी महाराज द्वारा लिखित ग्रंथ प्रेम रस सिद्धांत तत्वज्ञान से भरपूर है. गागर में सागर भरे इस ग्रंथ में वेदों व शास्त्रों के प्रमाणों के अतिरिक्त कृपालु जी ने अपने अनुभव के आधार पर जीव का चरम लक्ष्य, जीव एवं माया तथा भगवान का स्वरूप, कर्म, ज्ञान, भक्ति, साधना आदि तमाम विषयों का निरूपण किया है एवं कर्मयोग सम्बन्धी प्रतिपादन पर विशेष जोर दिया हैं. इस पुस्तक के माध्यम से संसारी अपना कार्य करते हुए लक्ष्य प्राप्त कर सकता है.

जगद् गुरु 1008 श्री कृपालु जी महाराज की इस पुस्तक को नई दिल्ली, द्वारका, गोलोकधाम की राधा गोविंद समिति ने प्रकाशित किया हैं. यह ग्रंथ अत्यंत रोचक तथा पढ़ने के लिए लुभाता है. साधारण सरल भाषा में ब्रह्मतत्व, श्रीकृष्णातत्व, अवतारतत्व आदि का जिस प्रकार वर्णन किया गया है वह अतुलनीय है.

 भक्तियोगरसावतार जगद् गुरु श्री कृपालु जी महाराज का जन्म 1922 में प्रतापगढ़ के मानगढ़ ग्राम में शरद पूर्णिमा की शुभ रात्रि को हुआ था. 16 वर्ष की अल्पायु में ही वह वृंदावन में वंशीवट व चित्रकूट में सारभंग आश्रम के समीप वनों में वास करने लगे थे. उन्होंने कई पुस्तकों का लेखन किया है.

 प्रेम रस सिद्धांत में 14 अध्याय हैं. पहले अध्याय जीव का चरम लक्ष्य में वह वेदों व शास्त्रों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि ईश्वर में मन एक कर देने से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है. मानव देह पाकर यदि ईश्वर को नहीं जाना तो पुनः 84 लाख योनियों में चक्कर लगाना पड़ेगा. मानव देह का महत्व समझकर ईश्वर को समझना है, जिससे हम अपने परम चरम लक्ष्य परमानंद को प्राप्त कर सके.

 दूसरे अध्याय ईश्वर का स्वरूप में वह बताते हैं कि जीवो का स्वामी ईश्वर है. आत्मा रथी है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है.बिना विश्वास के ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी व बिना उसकी प्राप्ति हुई परमानंद का परम चरम लक्ष्य हल न होगा. तीसरे भगवत्कृपा अध्याय में गीता के एक श्लोक का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि तुम ईश्वर की कृपा से परम शांति एवं उसके शाश्वतानंदमय दिव्या धाम को प्राप्त कर सकते हो. ईश्वर को युगों तक परिश्रम करके कोई भी नहीं जान सकता, किंतु उस ईश्वर की जिस पर कृपा हो जाती है वह उसे पूर्णतया जान लेता है एवं कृतार्थ हो जाता है. जो काल, कर्म, ईश्वर को दोषी ठहरा कर मनमाना पाप करता है उसे इस लोक में सुख शांति नहीं मिल सकती एवं परलोक की सुखों की भी कल्पना नहीं की जा सकती.

 शरणागति अध्याय में वेदों का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं कि शरणागति से ही ईश्वर की कृपा हो सकती है. हम उस परमेश्वर की शरण में है, जिनकी कृपा से आत्मा एवं बुद्धि में प्रकाश प्राप्त होता है. शरणागति के लिए यह आवश्यक है कि हम संसार का वास्तविक स्वरूप समझे एवं वहां से मन को उदासीन करें तभी ईश्वर शरणागति संभव है.

आत्म स्वरूप, संसार का स्वरूप तथा वैराग्य का स्वरूप अध्याय के आत्म स्वरूप में वह कहते हैं कि व्यक्ति सोचता है कि अमुक वस्तु से सुख मिल जाएगा, वह वस्तु उसे मिल जाता है, परंतु सुख नहीं मिलता. संसार में सुख आवश्य है एवं अवश्य मिलेगा तभी तो हम प्रयत्नशील है. संसार का स्वरूप में वह कहते हैं कि संसार दो प्रकार का होता है, एक वासनात्मक संसार, दूसरा स्थूल संसार. इस पुस्तक में इसका वह व्यापक वर्णन करते हैं. बैरागी का स्वरूप में वह एक उदाहरण देते हुए कहते हैं कि किसी शराबी को शराब के लिए मदिरालय जाना पड़ता है. मदिरालय जाते समय अन्य सामानों की कई दुकानें पड़ती है. वह उन दुकानों के सामने से जाता तो है, देखता भी है, किंतु सबसे विरक्त है. यही वैराग्य है. इस संसार के सब दुकानों को छोड़ता हुआ परमानंद के केंद्र भगवान की दुकान पर जाना.

महापुरुष अध्याय में वह कहते हैं कि ईश्वर शरणागति में कौन सा मार्ग किस साधक के लिए श्रेयस्कार होगा, इसका निर्माण वही महापुरुष करता है. ईश्वर की प्राप्ति के उपाय अध्याय में वह कहते हैं की प्रथम कर्म, द्वितीय ज्ञान एवं तृतीय भक्ति या उपासना है.

इसमें कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का व्यापक वर्णन हैं.इस पुस्तक में कृपालु जी महाराज निराकार, साकार ब्रह्म एवं अवतार रहस्य का व्यापक वर्णन करते हुए भक्ति योग के बारे में बताते हैं कि भक्ति रूपी शक्ति एकमात्र ईश्वर के पास ही है. किसी मूल्य पर अमूल्य वस्तु नहीं मिलती. वह हमारे सर्वस्व हैं, हम उन्हें जब जो चाहे मन लें. कर्मयोग की क्रियात्मक साधना में वह कहते हैं की कर्तव्य कर्म के साथ मन निरंतर श्याम सुंदर में रहें.

 पुस्तक का अंतिम अध्याय कुसंग का स्वरूप है. इसमें वह कहते हैं कि संसार में सत्य एवं असत्य केवल दो ही तत्व हैं, जिनके संग को ही सत्संग एवं कुसंग कहते हैं. सत्य हरि एवं हरिजन है, इसके अतिरिक्त सब कुसंग है. साधकों को साधना से भी अधिक दृष्टिकोण कुसंग से बचने पर रखना चाहिए.

लेखक:अशोक कुमार मिश्र 

समूह संपादक

यूनाइटेड भारत

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