राजकुमार गुप्ता 
ये तो विपक्ष वालों की अच्छी बात नहीं है। मोदी जी ने पहले ही चेता दिया था कि कृष्ण और सुदामा का रिश्ता पवित्र है। उनका लेन-देन पार्थिव लेन-देन नहीं, दैवीय प्रेमोपहारों का आदान-प्रदान है। कम-से-कम ऐसे दैवीय दोस्ताने पर किसी को उंगली नहीं उठानी चाहिए। लेकिन, विपक्ष वाले चिकने घड़े ठहरे। अपनी राजनीति के लिए कृष्ण और सुदामा के रिश्ते तक को कलंकित कर रहे हैं। चुनावी बांड जैसे प्रेमोपहार में घूसखोरी से लेकर धंधेबाजी तक, न जाने क्या-क्या इंसानी बुराइयां खोज लाए हैं।

इसी के अंदेशे से तो मोदी जी की सरकार ने पहले ही कहा था कि इस लेन-देन को पर्दे में ही रहने दो। पर्दा जो उठ गया, तो भारतीय संस्कृति और संस्कारों का भट्ठा बैठ जाएगा। खैर! विपक्ष वालों का पर्दा हटवाने पर अड़ना तो स्वाभाविक था, पर सुप्रीम कोर्ट भी उनकी बातों में आ गया। सरकार ने आखिर-आखिर तक समझाया कि यह तो लेने वाले और देने वाले के बीच का जाति मामला है। वे उसे पर्दे में रखना चाहते हैं, तो पर्दे में ही रहने दिया जाए। मियां-बीबी राजी, तो बीच में टांग क्यों अड़ाए काजी! लोगों के घरों में फालतू ताक-झांक करनी ही क्यों? पब्लिक को खामखां में यह जानना ही क्यों, किस ने क्या दिया और किस ने क्या लिया? जानकर ही पब्लिक किसी का क्या उखाड़ लेगी। पर सुप्रीम कोर्ट तो काजी बनकर, बीच में टांग अड़ाने पर ही अड़ गया। एक झूठा सिद्धांत और खड़ा कर दिया कि यह राजशाही नहीं, डैमोक्रेसी है; डैमोक्रेसी में पब्लिक को यह पता होना ही चाहिए कि मिस्टर कृष्ण को मिस्टर सुदामा ने क्या दिया और बदले में मिस्टर सुदामा ने मिस्टर कृष्ण से क्या लिया? और नतीजा वही हुआ, जिसका मोदी जी को डर था। कलियुग का कमाल, उधर बांड की जानकारी आयी और इधर कृष्ण-सुदामा की दोस्ती बदनाम हो गयी।

बात सिर्फ बदनामी तक रहती, तब भी गनीमत थी। एक-एक मुट्ठी चावल के बदले में कृष्ण ने सुदामा को क्या-क्या नहीं दिया था? बांड के बदले में ठेके, रेड के बाद बांड, यह तो कुछ नहीं है! पर कलियुगी दोस्ताने में एक लोचा है। लोग कह रहे हैं कि द्वापर के टैम पर रुक्मिणी थी, तीसरी मुट्ठी पर हाथ पकडऩे के लिए। कलियुगी कृष्ण का क्या है, दोस्तों को सब थमाकर, एक दिन झोला उठाकर चल दिए तो?

(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं।)

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