क्या नई विश्व व्यवस्था के लिए अपरिहार्य है विश्वयुद्ध ? - अनुज अग्रवाल
और इसराइल पर हमास द्वारा आतंकी हमला करा, रुस व चीन ने अमेरिका व नाटो पर निर्णायक चोट कर ही दी। हालाँकि मंच पर ईरान , तुर्की व कतर खेल खेल रहे हैं किंतु पर्दे के पीछे डोरियाँ रुस - चीन के हाथो में ही हैं।यह सीधा सीधा अमेरिका पर हमला है और अमेरिका इसी रूप में इसको ले भी रहा है क्योंकि इसराइल का जन्म व अस्तित्व अमेरिका पर ही टिका हुआ है।नृशंस, ख़ूँख़ार व घातक इस युद्ध के लंबा और बहुत लंबा चलने के आसार हैं क्योंकि लगभग सभी इस्लामिक कट्टरपंथी गुट व राष्ट्र इससे जुड़ते जा रहे हैं। तेल - गैस की आर्थिक व्यवस्था पर क़ब्ज़े के इस खेल में सदियो से चल रहा इस्लाम बनाम ईसाई - यहूदी संघर्ष भी उभर कर सामने आ गया है, बल्कि इसी को हथियार बनाया है रुस व चीन ने। प्रथम व दूसरे विश्व युद्ध के साथ बनी विश्व व्यवस्था जिसके माध्यम से अमेरिका नाटो की मदद से दुनिया को हाँक रहा है , को बदलने का निर्णायक युद्ध। यूएसएसआर के विघटन एवं चीन में थ्येनआमन नरसंहार के बाद इन दोनों देशों में आयी बाज़ार अर्थव्यवस्था के बाद पिछले दो दशकों में रुस व चीन दोनों फिर से आर्थिक ताक़त बनते गए और क्षेत्रीय सैन्य महाशक्ति भी। चीन सन् 2008 से ही अमेरिका को पिछाड़ने की कोशिश में है। सन् 2008 की आयी आर्थिक मंदी अमेरिकी व नाटो देशों की अर्थव्यवस्था तोड़ने का चीनी षड्यंत्र ही था तो उसके जवाब में कोरोना वायरस को चीन में छोड़ना व रुस के पुराने साथी यूक्रेन में अपनी कठपुतली सरकार बना रुस को घेरना अमेरिकी षड्यंत्र। किंतु अमेरिकी खेल उल्टे पड़ गए और चीन ने कोरोना वायरस को वुहान से निकलने नहीं दिया उल्टे पूरी दुनिया में फैला दिया तो रुस ने यूक्रेन का ऐसा सर्वनाश किया कि पूरे यूरोप की हालत पतली हो गई और अमेरिकी भी यूक्रेन को सहायता देता देता मंदी का शिकार हो चला। रुस व चीन गठजोड़ हो सकता है आत्मघाती खेल खेल रहे हों किंतु अमेरिका व नाटो देश भी बुरी तरह हाँफ रहे हैं। यूक्रेन पर रुस के आक्रमण के चक्कर में अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान से बीच में ही भागना पड़ा तो हाल ही में फ़्रांस नाइजर को छोड़ भाग निकला क्योंकि यूक्रेन युद्ध में उनके संसाधन कम पड़ते जा रहे हैं और उस पर अब मध्य पूर्व एशिया का महासँकट। यूक्रेन संकट से कई गुना बड़ा भी और ख़तरनाक भी। फ़िलिस्तीन - इसराइल विवाद की यह उलझन तेल कूटनीति व अरब देशों से कमजोर पड़ते रिश्तों के बीच अमेरिका को इस क्षेत्र व खेल से बाहर न कर दे। अगर अरब लीग, ओपेक देश, इस्लामिक देश व इस्लामिक जिहादी गुट रुस - चीन के इस खेल के खिलाड़ी बन इसराइल को मिटाने पर आमादा हो गए तो अपनी साख व अपने प्यादे इसराइल का अस्तित्व बचाने के लिए अमेरिका व नाटो देशों को स्वयं मैदान में कूदना होगा और इसके परिणाम विश्व का दो गुटों में विभाजन व भयंकर व दीर्घकालिक विश्वयुद्ध होगा। ऐसा होना अब लगभग तय हो ही चुका है।आमने - सामने का घातक हथियारों से लड़े जाने वाला यह युद्ध तब ही ख़त्म होगा जब पुरानी विश्व व्यवस्था बदलने की स्थिति आएगी। शायद ऐसा न भी हो क्योंकि विनाशक हथियारों को इतनी बड़ी खेप दोनों पक्षों के पास है कि वे एक दूसरे का संपूर्ण विनाश न कर बैठें।
महाशक्तियों के इस खेल को कुछ ऐसे समझा जा सकता है -
1) रुस और चीन , अमेरिका व नाटो के पिछले तीस सालों से दुनिया पर चले आ रहे वर्चस्व को तोड़ने पर उतारू हैं। चूँकि रुस के पास तेल और गैस के बड़े भंडार हैं और चीन का कब्जा दुनिया के आधे से अधिक विनिर्माण क्षेत्र पर है इसलिए वे अमेरिका व नाटो के वर्चस्व को तोड़ने का माद्दा रखते हैं।यूक्रेन युद्ध के बीच रुस व चीन ने अरब मुस्लिम देशों से अपनी दोस्ती व संबंध बहुत तेज़ी से अच्छे किए हैं व उनकी अमेरिका व नाटो से दूरी पैदा कर दी है।
2) रुस - चीन गठजोड़ ने अमेरिकी ख़ेमे की तरह दुनिया के हर देश में अपनी व्यापक पकड़ व घुसपैठ कर ली है। वैचारिक स्तर पर यह बाज़ार समाजवाद बनाम बाज़ार पूंजीवाद का युद्ध है जो वैचारिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व सामरिक सभी मोर्चो पर लड़ा जा रहा है। स्थिति यह हो चुकी है कि लगभग सभी देशों में दो प्रमुख राजनीतिक दलों/ गुटों में से एक रुस - चीन गुट के बाज़ार समाजवाद का तो दूसरा अमेरिका व नाटो के बाज़ार पूंजीवाद का समर्थक है। भारत में भी यह एनडीए व इंडी गठबंधन की विचारधारा में स्पष्ट दिखता है।
3) आर्थिक के साथ साथ इन दोनों गुटों में कई जगह व देशों में धार्मिक विभाजन का रूप भी लिए हुए है। विशेषकर एशिया व अफ़्रीका में यह इस्लाम व ईसाईयत के खूनी संघर्ष व वर्चस्व की लड़ाई में सदियों से चला आ रहा है यद्यपि यहाँ के अधिकांश हिंदू व बौद्ध या तो निरपेक्ष हैं अथवा ईसाइयों के साथ खड़े हैं।
4) प्रथम विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों विशेषकर इंग्लैंड द्वारा तुर्की का 46 इस्लामिक देशों में विभाजन और दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका की शह पर मुस्लिम देशों के बीच यहूदी देश इसराइल का गठन नाटो देशों की तेल कूटनीति और बाँटो व राज करो की कूटिलनीति का हिस्सा था। कुछ ऐसा ही खेल उन्होंने भारत का विभाजन करके किया था। जिसके दंश दक्षिण एशिया आज भी झेल रहा है। इसके बाद से पिछले 75 वर्षों से अमेरिका के नेतृत्व में नाटो देश तेल उत्पादक मुस्लिम देशों का सफलतापूर्वक शोषण व दोहन कर रहे हैं, इनके विवादों को हवा देते हुए कट्टरपंथी व आतंकी गुटों को बढ़ावा देते रहते है व अपना उल्लू साधते रहते हैं। रुस व चीन के उभरने से इन देशों को नया सहारा मिल गया है और वे अमेरिका व नाटो से पल्ला झाड़ने व अपने मतभेद भुलाने की ठान बैठे हैं। “उभरते - उगते एशिया” से नाटो दहशत में है व इसको बिखेरने की पूरी कोशिश में लगा है। बड़ा संघर्ष यानि विश्व युद्ध ही इस संघर्ष को निर्णायक स्वरूप दे सकता है। इसलिए हर नया संघर्ष दुनिया को विश्व युद्ध की ओर धकेल रहा है।
5) यूक्रेन युद्ध में अपने बड़े साधन व हथियार गँवाए नाटो के लिए खाड़ी में नया युद्ध बहुत बड़ी आफ़त जैसा है जो उसकी कमर तोड़ के रख देगा और यही रुस - चीन गुट चाहता भी है। इसलिए उम्मीद है कि चीन ताइवान पर जल्द ही हमला कर दे और नाटो एक और युद्ध का मोर्चा खुलने से बुरी तरह उलझ जाए व हार मान बैठे या भयानक विनाश को न अंजाम दे बैठे।कोरोना महामारी से चोट खाए विश्व के कम से कम सौ देश आर्थिक मंदी, अराजकता व गृहयुद्ध का शिकार हैं। अफ़्रीका व दक्षिण अमेरिका के देशों में भी हालात बहुत ख़राब हैं। ऐसे में विश्व युद्ध दुनिया को भीषण तबाही, नरसंहार, भूख, ग़रीबी व बेरोज़गारी की ओर ले जाएगा।
6) आर्थिक मंदी से जूझ रहे विश्व को क्लाइमेट चेंज की मुसीबतें भी रोज़ाना छका रही हैं और हर दिन विश्व के किसी न किसी भाग में प्राकृतिक आपदाएँ व विनाश अब आम बात है ऐसे में युद्ध के नित नए मोर्चे खुलते जाने से सप्लाई चैन फिर से टूटने के आसार हैं , शेयर बाज़ार का फिसलना व अर्थव्यवस्था का गर्त में जाना तय है। ऐसे में होने वाले भयावह विनाश व मौत के मंजरों की कल्पना मात्र से ही सिहरन पैदा हो जाती है। WHO एक और घातक वायरस एक्स के शीघ्र फैलने की घोषणा कर ही चुका है जो कोरोना से कई गुना घातक हो सकता है। यह वायरस दोनों गुटों के बीच चल रहे युद्ध का ही हिस्सा हो सकता है।
7) बढ़ता संघर्ष अंतरराष्ट्रीय संगठनों, संधियों, समझौतों, आयात - निर्यात, व्यापार, प्रोजेक्टो सभी के लिए श्मशान सिद्ध होगा। यूएन, जी -20, ब्रिक्स आदि सभी पहल बेमानी सिद्ध होती जायेंगी। बाज़ार अर्थव्यवस्था में बाज़ार भी जब उत्कर्ष पर पहुँच जाता है तो युद्ध ही बाज़ार के पुनर्गठन का एकमात्र रास्ता होता है इसलिए भी विश्व युद्ध अपरिहार्य है और नई विश्व व्यवस्था भी।
दुनिया में बढ़ते संघर्ष के बीच भारत की स्थिति व भूमिका क्या हो यह भी विचारणीय, गंभीर व संवेदनशील मुद्दा है। अमेरिका व नाटो भारत को चीन के विरुद्ध खड़ा करना चाह रहा है और इसीलिए विशेष महत्त्व दे भी रहा है। हाल ही में भारत में हुए जी - 20 शिखर सम्मेलन की उपलब्धियाँ व भारत को मिली बढ़त व महत्व नए अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों में फीका पड़ गया है और परिस्थिति बहुत तेज़ी से बदल रहीं हैं।
कूटनीति शक्ति व संसाधनों को पाने का संघर्ष होता इस बार यह संघर्ष लंबा चलने की उम्मीद है शायद एक दशक तक भी। शांति व संवाद भी कूटनीति के हथियार हैं और ये हथियार तभी काम आते है जब आपके पास असली हथियार पर्याप्त मात्रा में हों। भारत को यह बात समझनी होगी और तय करना होगा कि वह किस रूप में इस निर्णायक संग्राम में भागीदार बनेगा - एक व्यापारी के रूप में , मूक दर्शक के रूप में या पक्षकार के रूप में।
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