राजकुमार गुप्ता
स्त्री तत्व की जो परम अभिव्यक्ति है उसी के नौ पहलू दुर्गा के रूप में बनाए गए हैं। नवरात्रि अर्थात् नौ दिनों तक उसका एक-एक रूप पूजा जाता है। जन्म ग्रहण करती हुई कन्या 'शैलपुत्री' स्वरूप होती है। कौमार्य अवस्था तक 'ब्रह्मचारिणी' का रूप होती है। विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल होने से वह 'चंद्रघंटा' समान होती है। नए जीवन को जन्म देने के लिए गर्भ धारण करने पर वह 'कूष्मांडा' स्वरूप में होती है। संतान को जन्म देने के बाद वही स्त्री 'स्कन्दमाता' हो जाती है। संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री 'कात्यायनी' स्वरूप होती है। एक तरफ वह सुंदर है मां की तरह, स्रोत की तरह। और एक तरफ अंत की तरह, काल की तरह अत्यंत काली है, इसलिए वह 'कालरात्रि' जैसी है। संसार (कुटुंब ही उसके लिए संसार है) का उपकार करने से 'महागौरी' हो जाती है। धरती को छोड़कर स्वर्ग प्रयाण करने से पहले संसार में अपनी संतान को सिद्धि(समस्त सुख-संपदा) का आशीर्वाद देने वाली 'सिद्धिदात्री' हो जाती है। लेकिन देखने और समझने बाली बात है कि क्या समाज में जीवंत स्त्री का और स्त्रैण का कोई सम्मान है? या उसे देवी बनाकर ही छोड़ दिया है? वस्तुत: हर स्त्री को यह प्रश्न पूछना चाहिए। देवी के सभी रूप स्त्री की संभावना के ही प्रतीक हैं। अगर सामान्य स्त्री को अवसर मिले तो वह भी विकसित हो सकती है। देवी की अधिकांश प्रतिमा किसी जानवर पर सवार है, अधिकतर शेर पर, एक-एक बार बैल और गधे पर सवार हैे। पूर्वज इन चित्रों के द्वारा पूर्वज जरूर कोई गहरा संदेश देना चाहते थे। वास्तविक सृजन और पालन-पोषण वही करती है। इसलिए सामान्य स्त्री भी पूजने योग्य है। अब स्त्री इतनी जाग्रत और सशक्त हो गई है कि वह देवी के सभी रूपों से प्रेरणा ले सकती है। आधुनिक स्त्री अपने साथ हो रहे शोषण, अन्याय के खिलाफ न्याय मांग रही है लेकिन अभी उसे हर स्तर पर चुनौतियों का गम्भीर सामना करना पड़ रहा है। न्याय के लिए उसे कदम कदम पर लड़ना पड़ रहा है। सड़कों से लेकर घरों, दफ्तरों, थानों पर उसे न्याय के लिए जूझना पड़ रहा है। मेरा मानना है कि दुर्गा की पूजा करने के साथ स्त्रियां उसके सभी पहलुओं को जीना शुरु करें, उसे न्याय के लिए जूझना नहीं पड़ेगा।
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