भाररीय समाज ठठकर्म से बाहर निकलने को राजी नहीं है । भारतीय समाज की तमाम सांकेतिक कार्रवाइयां मन को समझने वाली हैं हकीकत से उनका कोई वास्ता नहीं रहा। विजयादशमी पर रावण और उसके भाई-बंधुओं के पुतला दहन की कार्रवाई भी इसी तरह की एक कार्रवाई है। अब रावण दहन एक मनोरंजक कार्यक्रम से ज्यादा कुछ नहीं है क्योंकि इस मौके पर दिए जाने वाले सन्देश और संकल्प खोखले साबित हो रहे हैं। हम हर साल रावण के रूप में बुराइयों को जलाकर अच्छाइयों की जीत का जश्न मनाते हैं लेकिन होता उसका एकदम उलटा है।
भारत में रावण का पुतला कब से जलाया जा रहा है इसका कोई प्रामाणिक दस्तवेज हमारे सामने नहीं है । हम एक परम्परा के रूप में ये काम न जाने कब से करते आ रहे है। मुमकिन है की किसी समझदार आदमी ने ये शिक्षाप्रद परम्परा शुरू की हो। बचपन में हमने देखा था कि रावण कुम्भकर्ण और मेघनाद के पुतले बनाने का काम वे लोग ही करते थे जो ताजिये बनाने में सिद्धहस्त थे । उस जमाने में पुतलों की ऊंचाई से ज्यादा उसका मजबूत होना और सुंदर होना ज्यादा प्रमुख होता था। पुतलों के भीतर नाना प्रकार की आतिश के उपकरण लगाए जाते थे ,ताकि जब पुतले जलें तब उनके भीतर से भयावह आवाजें और मनोरंजक रोशनी छोड़ती हुई उल्काएं निकलें और नीलाकाश में छा जाएँ।
अतीत में रावण दहन सालाना होने वाली रामलीलाओं का एक अनिवार्य अंग होता था । उस जमाने में रामलीला के अभिनेता राम-लक्ष्मण और उनकी सेना के महारती ही रावण दहन करते थे । दहन से पहले बाकायदा राम-रावण युद्ध होता था। संवाद सुनाई देते थे । हाँ तब रावण दहन के इस भव्य कार्यकर्म में कोई नेता नहीं होता था। पुराने जमाने के राजे-महाराजे हुआ करते थे अतीत । रामलीलाओं और रावण दहन में नेताओं का प्रवेश कांग्रेस के जमाने में शुरू हुआ और आजतक जारी है। अब तो बाकायदा नेता ही इन रामलीलाओं और रावण दहन के प्रायोजक होते हैं,क्योंकि रावण दहन देखने के लिए जो भीड़ आती है नेता उसके सामने उपस्थिति होकर अपनी आभा का भी प्रदर्शन करने लगे हैं।
अब रावण के पुतलों की संख्या और कद लगातार बढ़ रहा है । शहर और गांव लगातार विस्तृत हो रहे हैं ,इसलिए अब हमारा काम एक रावण से नहीं चलता । अब इलाकों,के रावण होने लगे हैं। उन्हें इलाकेवार ही जलाया जाता है। रावण पुतलों के रूप में ही नहीं हमारे नेताओं के रूप में भी बढ़ते जा रहे है। पुतलों की ऊंचाई यदि 177 फुट हो गयी है तो सियासी रावणों का कद हजारों फुट का हो गया है । कागज और घास-फूस के रावण तो जल जाते हैं किन्तु सियासी रावणों का कुछ नहीं बिगड़ता । इन सियासी रावणों की नाभि कुंड का अमृत सूखता ही नहीं है । अमृतकाल में तो ये अमृतकोष और बढ़ गया है। अब सुरसा का वदन और हनुमान का तन ही नहीं रावणों के कद और बल में भी लगातार इजाफा हो रहा है।
त्रेता के रावण पंडित थे ,कलियुग के रावण धूर्त है। त्रेता के रावण कैलाश पर्वत को अपने बाहुबल से उठा सकते थे ,कलियुग के रावण कैलाश को बेच सकते हैं ,वे देश की राजनीति को सिर पर उठा सकते हैं।वे दुनिया को भी सिर पर उठा सकते हैं। अब रावणों की सीमाएं केवल भारत खंड और जम्बो द्वीप तक सीमित नहीं है। अब ये आपको सात समंदर पार भी मिल सकते हैं और पहले भी । अब ये एशिया में भी हैं और योरोप में भी ये अरब में भी हैं और खरब में भी। ये सतत युद्धरत रहते है। युद्ध आज के रावणों की पहली पसंद है। आधुनिक रावण बिना युद्ध के रह नहीं सकते।अब इनके आयुधों में त्रेताकालीन आयुधों से भी ज्यादा घातक आयुध शामिल हो गए है। आधुनिक रावण के आयुधों का असर देखना है तो फिलस्तीन चले जाइये । इजराइल चले जाइये। सब एक -दूसरे की लंका का विध्वंश करने में लगे है। सबकी अपनी-अपनी सोने की लंकाएँ हैं।
हम भारतीय कागज का रावण जलाकर खुश है। हम भ्र्ष्टाचार,भाई-भतीजावाद,वंशवाद, बेईमानी, कालाधन,रोग,अशिक्षा ,वैमनष्य,साम्प्रदायिकता के रावणों का कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रहे । इन तमाम बहुरूपिया रावणों का अट्टहास लगातार तेज होता जा रहा है । इनका प्रताप बढ़ता जा रहा है । इनके रथों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है । अब कलियुग में जो राम बनना चाहते हैं या राम बनने का अभिनय करते हैं वे सब विरथी है। पैदल हैं क्योंकि तमाम संसाधनों पर उनका कब्जा है । कलियुग के तमाम नवग्रह आधुनिक रावणों की मुठ्ठी में हैं या ये वन इन नवग्रहों या नवरत्नों की मुठ्ठी में हैं। रावणों के कुबेरों ने दुनिया की हर चीज मुठ्ठी में कर ली है । कलियुग में लोकतंत्र रावणों का सबसे बड़ा शत्रु है । आधुनिक रावण लोकतंत्र और उसकी तमाम संस्थाओं को अपनी मुठ्ठी में करने के लिए जो मुमकिन हो रहा है सो कर रहे हैं और कोई इन्हें रोकने वाला भी नहीं है।
बचपन में मै भी रावणों को जलते हुए देखकर खुश होता था लेकिन अब मै जान चुका हूँ कि ये रावण जलते ही नहीं है। ये जनता की आँखों में धूल झौंक कर अपने पुतले जलवा लेते हैं। खुद परदे के पीछे रहकर अपने ही पुतलों को जलाकर खुश होती जनता की मूर्खता पर ठहाके लागते हैं, जश्न मानते हैं। अब रावणराज के प्रचार-प्रसार के लिए सेनाओं तक का इस्तेमाल किया जा रहा है । सेनाएं युद्धकाल में युद्ध के लिए और शांतिकाल में आपदाओं से निबटने के काम आती रहीं हैं किन्तु अब उन्हें विकास कार्यों का प्रचार करने, सेल्फी केंद्र बनाने का काम सौंपा दिया गया है। लोग जल रहे हैं ,लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा।
बावजूद इसके मै अपने देशवासियों को विजयादशमी की शुभकामनाएं देता हूँ,क्योंकि कम से कम हमारे समाज के पास अभी ये बोध तो जीवित है कि समाज में रावण हैं और उन्हें जलाना जरूरी है । मुझे उम्मीद है कि आज यदि कागज-लुगदी से बने रावण जलाये जा रहे हैं तो आने वाले कल में जनता असली रावणों को भी पहचानकर जलायेगी जरूर । भले ही उसके हाथों में दियासलाई नहीं है । उसके पास मताधिकार का आयुध तो है ही ।
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubts, please let me know