सिरोही:- (आलेख) नौ रात्रियों का समूह या समाहार जिसमें 'शक्ति' अर्थात्  भगवतीपराम्बा का पूजन किया जाता है। भगवती के नौ अलग-अलग स्वरूप शाक्तविद्या में समादृत और समपूज्य है जो अन्तश के तमशः का उपशमन कर उत्कर्ष प्राप्ति का मूल है। 
प्रथमं शैलपुत्री द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघन्टेती कुष्माण्डेति चर्तुथकं।
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठम् कात्यायनीति च।।
सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना।। 
शक्ति की उपासना के पर्व नवरात्र के मूल में है- मार्कण्डेयपुराणोक्त- दुर्गासप्तशती,दैवीभागवत, तंत्रचूडामणि व शिवचरित्र सभी ग्रन्थ शाक्तविद्या के मूलआधास्तम्भ है। शतचण्डी, नवचण्डी आदि यज्ञहवन, जप,तप,यंत्र,मंत्र,तंत्र आदि समस्त साधनाओं व शक्तिप्राप्ति का आधार भी यहीं है। नवरात्र में विशेष प्रकार की साधनाएँ इन्हीं में आएं सिद्ध मंत्रों व स्त्रोतो के आधार पर होती है। 
शाक्तउपासकों में शक्तिपीठों को लेकर काफि मतभेद है। पाठभेद भी इसका एक प्रमुख कारण है। दक्ष के यज्ञ में भस्म शती की मृतदेह को भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से काँटा था। जहाँ-जहाँ शती के अंग गिरे वे सभी कालान्तर में शक्तिपीठ बने।  दक्षिण की पुजापद्धति, मैथिल प्रदेश की शाक्तविद्या अनुपम होने से शाक्तउपदेशकों, विद्वानों ने 51 सर्वमान्य शक्तिपीठ स्वीकार किएं है फिर भी पृथक-पृथक ग्रन्थों में संख्या भेद बताया गया है। शाक्तविद्या के जानकार और देवीभागवत के राष्ट्रीय प्रवक्ता आचार्य वीरेन्द्र कृष्ण दौर्गादत्ती बताते है कि-
शिवचरित्र में 51, देवीभागवत में 108, तंत्र चूडामणि में 52, मारकण्डेयपुराण में 52, 
 इसमें '51शक्तिपीठ' ही मुख्य हैं। कहीं 52 शक्तिपीठों का वर्णन भी प्राप्त होता है। भारत की मुख्य भूमि पर कुल 27 शक्तिपीठ स्थित है जो पश्चिम भारत में 5, दक्षिण भारत में 5,पश्चिम बंगाल में 10, पूर्वोत्तर भारत में 5 व मध्यप्रदेश में 2 है। कुछ शक्तिपीठ भारत की भूमि से बाहर अर्थात् विदेशों में है उसमें पाकिस्तान में 1,श्रीलंका में 2, बंगाल में 4 शक्तिपीठ स्थित है। सात शक्तिपीठों के स्थलों पर काफी गहरा विवाद है। जो भी हो आरासुरी अंबिका अंबाजी गुजरात, कामाख्या माता असम आदि शक्ति के प्रमुख स्तम्भ है।
तांत्रिक शक्तिपीठों का भी शाक्तविद्या में विशेष महत्व है जो शक्तिपीठों के अतिरिक्त है पर शक्ति उपासना के मुख्य स्थलों के रूप में प्रसिद्ध है। कुछ लोकदेवियाँ है तो कुछ स्थानीय देवियाँ है जैसे- सुंधापर्वत सुंधामाताजी,आशापुरा राय के स्थल नाडोल,कच्छ,सांभर,पचपदराआदि खीमज़ माता,करणीमाता, नागणेच्यामाता नागाणाधाम, चामुण्डामाता मेहरानगढ़,  ओसियांभवानी साचियामाता, तनोटभवानी, भोपों की कुलदेवी विरात्रा माता, सदका भवानी, अर्बुदामाता, जसोल भवानी, कैला देवी आदि राजस्थान में तो मोंगलमाता, ऊमिया माता, चेहर माता, मेलडी माता आदि गुजरात में एवं चौषठ जोगिणी व चौषठ यक्षिणी के देशभर में पूजा स्थल  प्रमाण स्वरूप विद्यमान है जो देश ही नहीं दुनियाँ भर के हिन्दू, सिख व सिंधी धर्मावलम्बियों की आस्था और श्रद्धा के प्रमुख केन्द्र है।
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते 
रमन्ते तत्र देवता।।" "जहाँ नारियों की पूजा की जाती हैं वहाँ देवता निवास करते है।" इस प्रतिज्ञा वाक्य ने नारियों की पूजा का बीजारोपण कर दिया। लेकिन क्या वस्तुतः नारी की पूजा हो रही है। सबकुछ स्पष्ट है महिलाओं का स्तर देखिएं। समाज में आज भी महिलाएं न तो पुरुषो जितनी स्वतंत्र है और न स्वच्छंद है। सारे अवरोध केवल महिलाओं के लिए ही है। स्त्री आज भी केवल भोग, विलास से ज्यादा न आंकी  जा रही है। जबकि हरक्षेत्र में महिलाओं ने उत्कृष्ट उलब्धियाँ अर्जित की है। शासन-प्रशासन, सत्ता व वैश्विक उन्नति में महिलाओं ने अपनी प्रतिभा, ऊर्जा से विकास को गति दी है। होना भी लाजमी है आखिर नारी ही शक्ति है। स्त्री ही पूर्ण जेंडर है। युगों-युगों से असुरों, शत्रुओं का वध करने में नारी ही पुरुष का आधार बनी है। 
"प्रकृति ही शक्ति है।" यहीं मान कर युगों से मानव प्रकृति का उपास्य रहा है। उसने प्रकृति की उपासना की है। उसके साथ सहवास किया है। उसका संरक्षण, संवर्द्धन व संपोषण किया है। ' नौ' दुर्गाओं के अनुसार आयुर्वेद में नौ ही औषधियों के विशेष भक्षण का प्रावधान नवरात्रि में किया गया हैं। ब्राह्मी, शतावरी, कुष्माण्ड आदि के औषधियों गुणों को स्वीकारते हुए नवरात्र में भगवती की उपासना के साथ इनका सेवन कर आरोग्य प्राप्त किया जा सकता है। साधना होती ही साधक के कल्याण व मंगल के लिए है। 
गुजरात प्रदेश में होते है नवरात्र में "गरबा" वैसे अब गुजरात का लोकनृत्य "गरबा" देश ही नहीं विदेश में भी बड़ी आत्मीयता और तल्लीनता से किया जाता है। गरबा जो मूल प्राचीनरूप में था उसमें देवी- देवताओं के श्वांग विशेषकर नवदुर्गा के धरकर चण्डमुण्ड वध, महिषासुर वध, रक्तबीज वध, शिव-सती संसर्ग, भैरव चरित आदि को खेला जाता था। समय के साथ काफी कुछ परिवर्तन आ गया। 'गरबा' एक रास था जो परमार्थ, कल्याण व उन्नति का हेतु था। आज पारंपरिक गरबा पर पश्चिम का प्रभाव बढ़ता जा रहा हैं। डांडिया रास ने जो मनमाेहा वो हरमन भा गया। अलग- अलग वेशभूषा में होने वाले डांडिया रास में अगनित नवाचार, नए- नए आयाम युवाओं के मनभावन है। उस पर भी लगातार बढ़ता पाश्यात्य संस्कृति का प्रभाव खासा रास आ रहा है। भारत के अधिकांश राज्यों में शक्ति के आराधना पर्व पर होने वाला गरबा मनभावन डांडियाँ रास हो गया है। देशभर व विदेश में 'गरबा रास' होना हमारी संस्कृति के लिए गर्व का विषय है।विडम्बना यह है गरबा अपनी मूल संस्कृति को खोता जा रहा है। पीछले वर्ष एक सर्वे प्रतिष्ठित अखबार में छपा जिसका शीर्षक कोंडम (नीरोध) बिक्री था। पूरे वर्षभर में जीतने निरोध नहीं बिकते उससे दूगने नवरात्र में बिकते है। मैंने भी जब पढ़ा आँखे फटी की फटी रह गयी।"अगर यह सत्य है तो निर्मम है, विभत्स है, वेदना की अतिश्यता है,दुःख की पराकाष्ठा है।" 'नारी' 'शक्ति' और 'शक्ति' की आराधना में नवरात्र में घटती इसप्रकार की घटनाएं वास्तव में दुःखी करती है। सोचने विचारने पर विवश करती है ? ये कैसी शक्ति आराधना है? कैसी नारी भक्ति? जब नीरोध बिक्री इतनी ज्यादा है तो कितने गर्भपात होते होंगे? कितने गर्भधारण? कितने परिवार टूट जाते होंगे? अनेक विचार हृदय को कुंठित करते है। हगारी नवरात्रि किस ओर बढ़ रही है? शक्ति के जगरातों और नवरात्रि के क्या मायने रह गए है ? 
मंदिर- मंदिर में शोर है,
जय माता दी जय माता दी।
तो वृद्धावस्था में किसकी माताएं,
दम तोड रही है।
मेरी दृष्टि में हमारा नवरात्रि मनाना तभी सार्थक है जब हमारी घर वाली माता सुरक्षित हो और ससम्मान घर में विराजीत है। पहले हम स्त्रीयों का सम्मान करें। उन्हें सम्मान के भाव व दृष्टि से देखे। तभी हमारा नवरात्रि मनाना सार्थक है एवं वस्तुतः सच्चे अर्थों में शक्ति की सफल आराधना है वरना ढोंग, पाखंड व आडम्बर ही है जो मनोविनोद के लिए अनवरत है। जिसमें भोग,काम और छल-कपट, रोमांस व फूहड पहनावे व दिखावे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।मेरा सभ्य समाज से आग्रह है कि स्त्रियों को समुचित मान-सम्मान व अधिकार दे। हमारी संस्कृति के मूल स्थित वो संस्कार जो हम में अंतश से गूढ़ हैं कि 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता' को समस्त मानव जाती पुनःपुनः स्मरण कर कन्या पूजन ही नहीं वर्षभर सर्वत्र स्त्रियों का सम्मान करे और प्रथम स्थान के साथ सम्मान देवे,तभी सच्चे अर्थों में हमारा नवरात्रि मनाना सार्थक हैं| 

 _खुशवन्त कुमार माली उर्फ 'राजेश'
शोधार्थी- संस्कृतविभाग जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर राज़।_

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