राजनीति में मजहब है, अर्थ शास्त्र में मजहब है और भूगोल तो मजहबी आधार पर ही रचा गया है लेकिन अब विज्ञान भी मजहब की हदों से बाहर नकलने को तैयार नहीं है। ' यथा राजा,तथा प्रजा ' वाली बात हो रही है। जिस देश का पंत प्रधान तमाम फैसले मजहबी बुनियाद पर लेता हो उस देश का विज्ञान मजहबी छाया से मुक्त कैसे हो सकता है ? ये तमाम बातें मै एक सामान्य नागरिक के रुप में कह रहा हूँ,एक अधर्मी या विधर्मी के रूप में नहीं।
चंद्रयान- 3 की कामयाबी के बाद हमारे देश के वैज्ञानिक ' आदित्य -एल -1 की तैयारी में लग चुके है । लगना भी चाहिए क्योंकि विज्ञान संतुष्टि का नहीं सतत अन्वेषण का दूसरा नाम है। चन्द्रमा पर हमारी मशीनें उतरने के बाद उन्हें सूर्य की और भेजना हमारी जिज्ञासा का द्योतक ह। इसकी सराहना की जाना चाहिए। लेकिन इस नए अभियान का आगाज जिस तरह से पूजा-पाठ के साथ हुआ है उसे देखकर मुझे तो हैरानी होती ह। किसी वैज्ञानिक का धार्मिक होना बुरी बात नहीं है किन्तु उसका सार्वजनिक प्रदर्शन भयभीत करता है।सूर्य के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए भारत पहली बार मिशन लॉन्च कर रहा है. इसकी सफलता के लिए इसरो प्रमुख एस सोमनाथ ने आंध्रप्रदेश के तिरुपति जिले के में चांगलम्मा परमेश्वरी मंदिर में पूजा-अर्चना की ।
पूरा देश इस तरह के अभियानों की कामयाबी की कामना करता है । इस तरह के अभियानों में पूरे देश का पैसा लगाया जाता है इसलिए सवाल उठता है की एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी वैज्ञानिक अभियान की कामयाबी के लिए किसी एक धर्म विशेष के इष्ट की पूजा- अर्चना क्यों की जाए ? क्या इस अभियान को हमने धर्म के आधार पर हाथ में लिया है ? क्या इस अभियान की कामयाबी के लिए दुसरे धर्मों को मानने वालों की आस्थाओं से कोई लेना-देना नहीं है ? क्या इस अभियान में किसी एक धर्म के लोगों का ही पैसा लगा है ?
मुमकिन है की इस तरह के सवाल जब खड़े किये जायेंगे तो नेताओं से लेकर देश के वैज्ञानिक तक या तो कोई उत्तर नहीं दे पाएंगे या फिर तिलमिलाकर आय-बांय बकने लगेंगे। हमारे यहां आरसे से यही होता आया है। जब किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता तो हम या तो कुतर्क करने लगते हैं या फिर प्रश्नकर्ता को अराष्ट्रवादी,अधार्मिक ,अनैतिक बताकर उसके सवाल की निंदा करने लगते हैं। पिछले दिनों मै आजादी के पहले के एक वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे के बारे में एक व्याख्यान सुन रहा था । उन्होंने भी वैज्ञानिक होते हुए अपनी पुस्तक हिन्दू रसायन कह कर लिखा । जबकि रे साहब कहते थे कि 'विज्ञान प्रतीक्षा कर सकता है किन्तु आजादी नहीं। रे गांधीवादी थे ,लेकिन हिन्दू धर्म के प्रति आस्थावान थे। उन्होंने भारतीय रसायन ज्ञान की बात नहीं की थी। वे हिन्दू रसायन ज्ञान की बात करते थे।
रे साहब आजादी के पहले के वैज्ञानिक थे इसलिए उन्हें ये आजादी थी की वे अपने विज्ञान को हिन्दू कह सकें लेकिन आजादी के बाद जब देश ने एक संविधान के तहत धर्मनिरपेक्षता को अपना धर्म अंगीकार कर लिया है तब 76 साल बाद देश के वैज्ञानिक अपनीइ खोज को हिन्दू-मुसलमान कैसे बना सकते है ? मै इसरो के वैज्ञानिकों का मुरीद हूँ । हमारे ग्वालियर में जन्में वैज्ञानिक इसरो के शीर्ष पदों तक पहुंचे हैं। आजकल वे नीति आयोग के सदस्य हैं लेकिन उन्हें भी मैंने कभी इस तरह का आचरण करते नहीं देखा। एक वैज्ञानिक का आचरण एक वैज्ञानिक जैसा होना चाहिए न की एक पण्डे-मौलवी जैसा।
चूंकि हमारे देश में प्रधानमंत्री से लेकर सरपंच तक आजकल धार्मिक रंग में नख-शिख तक डूबा है इसलिए आप वैज्ञानिकों को भी आदित्य - एल-1 अभियान की कामयाबी के लिए किसी को पूजा पथ से नहीं रोक सकते । किसी से नहीं कह सकते कि वो पूजा पथ के लिए कौन से धर्म का चयन करे । वैज्ञानिकों के इस कदम की सराहना भी की जायेगी और आलोचना भी । आलोचक संख्या में बहुत कम होंगे क्योंकि धर्म की आलोचना करना आजकल महंगा सौदा है। मै जन्मना हिन्दू होते हुए भी वैज्ञानिकों के इस आचरण को अवैज्ञानिक और गलत मानता हूँ। क्या हमारे वैज्ञानिक हिन्दू-मुसलमान,सिख या ईसाई होकर खोज करते हैं ? उत्तर आएगा शायद नहीं। हमारी सरकार आजकल ऐसा ही करती है ।हर नए काम का श्रीगणेश करने से पहले हमारे पंत प्रधान पूजा -अर्चना करते हुए दिखाई देते हैं। वे ये कैसे कर लेते हैं ,ये वे जानें लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष देश के पंत प्रधान को ये शोभा देता है या नहीं ये सोचने की बात है।
भारत की दंतकथाओं और साहित्य में मनुष्य ही नहीं गीद्ध तक जिज्ञासु हुए है। रामचरित मानस में सबसे पहले सम्पाती और जताऊ ने आदित्य एल-1 अभियान शुरू किया था । इस कोशिश में हालाँकि उन्हें कामयाबी नहीं मिली और वे अपने पाँख जला बैठे । सम्पाती और जटायु ने गलती ये की वे खुद उड़कर आदित्य के नजदीक पहुँचने की कोशिश कर बैठा । उनके पास कोई मानव रहित यान भेजने की विधा शायद तन रही हो।सूर्य के ताप से अपने पंख जला बैठे गिद्ध बंधुओं का उपचार चन्द्रमा नाम के ही एक ऋषि ने किया था। हमारी कामना है की हमारे आदित्य एल-1 के पंख न जलें। वो कामयाब हो और जिस लक्ष्य के लिए इस अभियान को हाथ में लिया गया है वो भी कामयाब हो। लेकिन इसके लिए हमें पूजा-पाठ की जरूरत नहीं है । जैसा उन्माद पिछले दिनों हमने चंद्रयान-3 की कामयाबी के लिए देश में देखा वो भी उचित नहीं था।
हमें अगर विज्ञान की ध्वजा में धर्म की ध्वजा ही जोड़ना है तो बेहतर है की हम अपने 73 साल पुराने सामविधान को समुद्र में या गंगा में विसर्जित कर दें और एक नया संविधान गढ़ लें जैसा की नागपुर वाले चाहते है। संयोग से सरकार ने संसद का विशेष सत्र भी आहूत किया है सरकार के पास दोनों सदनों में पूर्ण समर्थन भी है ,इसलिए संविधान को आसानी से बदला जा सकता है। लेकिन जब तक संविधान नहीं बदला जाता तब तक तो भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और उसे इसी संवैधानिक भावना के अनुरूप आचरण भी करना होगा । यदि हम और हमारी सरकार,हमारे वैज्ञानिक संविधान की भावना के अनुरूप आचरण नहीं करेंगे तो सबकी जगहंसाई होगी। और इससे हमें बचना चाहिए। सरकारों को चाहिए की वे इसी तरह के आचरणों को प्रोत्साहित न करें। कोशिश करें की या तो उनके आचरण में सर्वधर्म समभाव हो या फिर धर्म सरकार का नहीं व्यक्ति का ही आचरण बना रहे।
हम अपने वैज्ञानिकों ,शिक्षाविदों,कलाकारों और मनीषियों का समादर इसीलिए भी करते हैं क्योंकि वे धर्म से ऊपर उठकर आचरण करते हैं। उनके लिए धर्म से बड़ी मनुष्यता है। उस्ताद विस्मिल्लाह खान से लेकर पंडित रविशंकर तक इसका उदाहरण हैं। हमारे नेताओं ने भी 1980 से पहले कभी राजनीति के रथ पर धर्मध्वजाएं नहीं लगाएं थी । हालानकी 1980 से पहले राजनीति रथारूढ़ थी भी नही। ज्यादा से ज्यादा जीप का इस्तेमाल होता था। जिस देश में हम राकेट को बैलगाड़ी और साइकल पर ले जाने के चित्र दिखाकर अपने पूर्वज नेताओं को कोसते हैं उसी देश में हम ये नहीं दिखते की हमारे नेता 8500 करोड़ रूपये के विमान पर भी चलते हैं और कोई उन्हें नहीं रोकता। बहरहाल ये विषय से भटकना होगा । इसलिए वापस अभियान आदित्य एल-1 पर आते हैं। जब आप ये आलेख पढ़ रहे होंगे तब इस अभियान का आगाज हो चुका होगा।
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