राजकुमार गुप्ता 
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पैरोडी सिर्फ फिल्मी गीतों की नहीं अपितु कहावतों की भी बनाई जा सकती है ।  एक पुराणी  कहावत है कि - मजबूरी का नाम महात्मा गांधी होता है । लेकिन जेएनयूं  के प्रोफेसर डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इसे बदल दिया ।  प्रमाणित किया कि ' मजबूरी  का नाम महात्मा गांधी नहीं ,बल्कि मजबूती का नाम महात्मा गांधी  होता है । इसी तरह हमारे सूबे मध्यप्रदेश में एक नया मुहावरा चाल पड़ा है। इसके मुताबिक़ ' मजबूरी का नाम ज्योतिरादित्य सिंधिया है। अर्थात सिंधिया इस समय मध्यप्रदेश के सबसे मजबूर नेता हैं।
सोने-चांदी की चम्मच  मुंह में लिए पैदा हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया को सियासत विरासत में मिली ।  वैसे सियासत उनका खानदानी पेशा है ।  ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी कांग्रेस और भाजपा की नेता रहे ।  पिता माधवराव सिंधिया कांग्रेस के बड़े नेता थे ।  खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया पूरे 18  साल कांग्रेस के एक मजबूत नेता कहे जाते थे,किन्तु तीन साल पहले उनके कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश के सबसे मजबूर नेता बन गए है। सिंधिया को ये पेशा मजबूरी में करना पड़ रहा है या उनका दिल दरिया हो गया है जो वे अपने कट्टर  राजनीतिक शत्रुओं के सामने नतमस्तक हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया जब कांग्रेस में केंद्रीय मंत्री थे उस समय भाजपा ने जिन दो नेताओं को सिंधिया के पीछे छोड़ा था उनमें  से एक पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया और उनके कनिष्ठ पूर्व पत्रकार तथा राज्य सभा के सदस्य रहे प्रभात झा थे। दोनों ने सिंधिया को प्रदेश का सबसे बड़ा भूमाफिया कहा ।  असंख्य आरोप लगाए और मिलजुलकर उन्हें गुना संसदीय सीट से 2019  में लोकसभा का चुनाव  हरा भी दिया। इस सीट से ज्योतिरादित्य की दादी और पिता अजेय रहे ।  तमाम राजनितिक ऊँचनीच  के बाद बीते 73  साल में सिंधिया राजघराने की कलई नहीं उतरी।  
कांग्रेस में अपने आपको अपमानित अनुभव करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तीन साल पहले भाजपा की सदस्य्ता ली। सिंधिया जिस दिन से भाजपा में शामिल हुए हैं तभी से उन्हें लगातार अपमानित होना पड़ रहा है।  पार्टी में अपनी विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए उन्हें सबसे पहले अपने धुर विरोधियों की आरती  उतारना पड़ रही है ।  पार्टी के दबाब में सबसे पहले उन्होंने पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया के साथ न केवल मंच शेयर  किया बल्कि उन्होंने   राष्ट्रपति के सम्मान में जय विलास  पैलेस में आयोजित रात्रि भोज में भी आमंत्रित करना पड़ा। बात यहां तक तो ठीक थी ,किन्यु अब  सिंधिया को प्रभात झा के घर जाना पड़ा। प्रभात झा  में घर सिंधिया की मौजूदगी के अनेक अर्थ निकाले जा रहे है। निकाले भिजा सकते हैं
भाजपा ने इस समय  सिंधिया और प्रभात झा को भी उपेक्षित  कर रखा है।दोनों अपने बेटों को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाना
 बनाना चाहते हैं ,लेकिन दोनों को ही कामयाबी नहीं मिल पायी है। प्रभात झा खानदानी नेता नहीं हैं। उधर  सिंधिया की एक लंबी  राजनीतिक विरासत है । किसी भी मामले में एक -दूसरे  की कोई बराबरी नहीं है ।  झा ने अपने राजनीतिक जीवन में सिंधिया और उनके खानदान को जितना कोसा ,जितना बदनाम किया उतना पूरी भाजपा भी शायद न कर पायी हो। सिंधिया हर बार खून का घूँट पीकर रह गए ।  जब कांग्रेस में थे तब भी और आज भाजपा में हैं तब भी उन्हें कोई राहत नहीं मिली है।
जानकार कहते हैं कि या तो ज्योतिरादित्य सिंधिया का दिल दरिया हो गया है ,या फिर सिंधिया अपमानित होने की आदत डाल चुके हैं। सिंधिया अपना महल छोड़कर पहले जयभान सिंह पवैया के घर उनकी  भतीजी की शादी में शामिल होने गए और बाद में अभी उन्हें भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे प्रभात झा के गोला का मंदिर स्थिति नव निर्मित घर में जाना पड़ा। सिंधिया के समर्थक रहे कांग्रेस और भाजपा के तमाम लोग मानते हैं कि अब सिंधिया के पास भाजपा में अपनी धमक बनाये रखने के लिए अपने पुराने विरोधियों के आगे झुकने कोई विकल्प बचा ही नहीं है। सिंधिया कि गत  ' सांप-छंछूदर ' जैस हो गयी है ।  उनके एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई है। ग्वालियर में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का मुकाबला करने के लिए सिंधिया को झा और पवैया जैसों की आरती उतारना पड़ रही है।
अगले महीने होने वाले मप्र विधानसभा चुनावों में अपने बेटों के अलावा अपने समर्थकों को भी टिकिट दिलाने के लिए संघर्ष
करना पड़ रहा है । ग्वालियर में ये कहावत चरितार्थ हो रही है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। जो कल तक सिंधिया के दुश्मन थे, उन्हें बिना पानी पिए राजनीतिक रूप से निवस्त्र करते रहते थे ,वे ही अपने दुश्मनों से निबटने के लिए गले मिल रहे हैं। पवैया ने हमेशा सिंधिया को गद्दार कहा और झा ने भूमाफिया,किन्तु  सिंधिया ने लगता है दोनों को माफ़ कर दिया है ,या जानबूझकर इन दोनों विरोधियों का अतीत का व्यवहार भुला दिया है।  झा तो सिंधिया के खिलाफ अदालत तक गए थे। सिंधिया का मिशन आदित्य एल-1  क्या है कोई नहीं जानता । उनका मिशन कामयाब होगा या ये भी कहना अभी कठिन है ,क्योंकि कुल मिलाकर सिंधिया की हालत भाजपा में खराब है ।  उनकी दाल  जैसी गलना चाहिए थी वैसी गलती नहीं दिखाई दे रही है। सिंधिया अपने धुर विरोधी भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के यहां तो पहले ही ढोक लगा आए है।  विजयवर्गीय ने तो सिंधिया को राजनीति के अलावा खेल की राजनीति में भी छकाने की कोशिश की थी ।  कैलाश एमपीसीसी के चुनाव में भी सिंधिया के खिलाफ लड़  चुके  हैं ।
आने वाले दिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए एक तरह की ' अग्निपरीक्षा ' के दिन है ।  सिंधिया के भाजपा में आने के बाद से ही उनके चुनाव और प्रभाव क्षेत्र से भाजपा के पूर्व और वर्तमान विधायक भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए है।  वे किसी को रोक पाने में नाकाम साबित हुए हैं। ये सिंधिया की पहली नाकामी है ।  विधानसभा चुनाव के लिए अपने समर्थकों को टिकिट दिलाने में उनकी सामर्थ्य का दोबारा अम्ल परीक्षण होगा। सिंधिया के समर्थकों को आशंका है कि वे भाजपा में उन्हें टिकिट दिला भी पाएंगे या नहीं ? सिंधिया की बदकिस्मती है कि तीन सालपहले वे जिन शिवराज सिंह चुहान के खिलाफ आग उगलते थे आज उन्हीं की जय-जय करना पड़ रही है ।  यहां तक कि जिस भाजपा नेता ने उन्हें गुना से लोकसभा चुनाव हराया था उसी के साथ मंचासीन होना पड़ रहा हैआप कह सकते हैं कांग्रेस का ' टाइगर ' भाजपा में आने के बाद ' मेमना ' बन गया है। सिंधिया जिस तरिके से कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के सामने गुर्राते थे ,उस तरीके से उन्हें भाजपा में अपने समकक्ष केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के सामने भी गुर्राने कि हिम्मत नहीं हो रही है।  
आने वाले विधानसभा और लोक सभा के चुनाव में भाजपा सिंधिया को चुनाव प्रचार में झोंकेगी इससे किसी को इंकार नहीं है ,क्योंकि आज भी सिंधिया के पास भीड़ खींचने की सामर्थ्य बची ह।  वे अच्छे वक्ता ही नहीं अच्छे मिमिक्रीकर्ता भी है।  भाजपा में उनके जैसी मिमिक्री कोई और नहीं कर पाता। यानी अब सिंधिया भाजपा के नेता कम विदूषक ज्यादा बना दिए गए हैं और वे उफ़ तक नहीं कर पा रहे। उनका बाग़ी स्वभाव कहीं गम हो गया है। अब वे भाजपा सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरने की धमकी देने की बात सपने में भी नहीं सोच  सकते। कांग्रेस में तो उन्हें ये आजादी थी। आप कह सकते हैं कि सिंधिया ने भाजपा के पास अपनी आजादी,अपना मन-सम्मान और अपनीइ विरासत गिरवी रख दी है। एक मजबूर नेता के यही तो लक्षण है।  

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