सावन मास पर पत्रकार असगर अली की विशेष रिपोर्ट-



उतरौला(बलरामपुर) महंगाई व आधुनिकता की दौर में भारतीय संस्कृति प्रेम सौहार्द त्यौहार व रीति रिवाज सब विलुप्त होते जा रहे हैं।पूर्व के समय में समाज में सावन के महीने में हर दरवाजे पड़ने वाले झूले और उस पर बैठकर महिलाओं व बच्चों द्वारा गाया जाना वाला कजरी गीत आज सिर्फ किस्से कहानियों की बात बन चुका है।सावन महीने में धान की रोपाई के समय महिलाएं रिमझिम फुहारों के बीच कजरी गीत गाया करती थीं जिससे पूरा माहौल ही त्योहारों वाला बन जाता था।आज की भागम भाग वाली जिन्दगी में लोग गांव समाज की बात तो दूर अपने घर परिवार को भी समय नही दे पा रहे हैं।पूर्व के समय में सावन का महीना त्यौहार की तरह मनाया जाता था,इसी महीने में धान की रोपाई होती थी तथा नाग पंचमी व भाई बहन के रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने वाला रक्षा बंधन का पावन पर्व भी इसी महीने में होता था। बरसात का मौसम व सावन के महीने में पड़ने वाली रिमझिम फुहारें व चारो तरफ छाई हरियाली लोगों को मस्ती करने पर मजबूर कर देती थी।बहन बेटियां भी अपने मायके आती थीं, गांव में सावन लगते ही बच्चे झूले डलवा देते थे जिस पर शाम को महिलाएं एकत्र होकर झूला झूलती और कजरी गीत गातीं फिजा में यह सावन का एहसास होने लगता।वहीं धान की रोपाई करने वाली मजदूर महिलाएं भी सामूहिक कजरी गीत गाती थी जिससे उनका कार्य आसान हो जाया करता था।पर आज परिवेश पूरी तरह बदल चुका है लोग इन त्यौहारों को भूलते जा रहे हैं।मौसम भी फुहारों वाला नहीं रह गया तेज धूप व जोरदार गर्मी से लोग बेहाल हैं।गांव में झूलों व कजरी गीत सुनने को कान तरस रहे हैं। मजदूर भी धान रोपाई तो कर रहे हैं पर कजरी वह भी भूल ग‌ए हैं।
गांव समाज तो दूर हम अपने परिवार के साथ भी समय नही दे पा रहे हैं।जिससे हमारी सामाजिक संरचना परंपराओं व रीति रिवाजों को तगड़ा झटका लगा है।
असगर अली
 उतरौला 

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