गजब की कारीगरी कर कारीगर ताज़िए को चार महीना पहले से बनाना शुरू कर देते हैं।
उतरौला के मोहल्ला गांधी नगर निवासी फखरूद्दीन बताते हैं कि उनके यहां मोहर्रम पर शीशे से ताज़िए को बनाया जाता है। यह काम उनके बाप दादा भी करते थे। शीशे की ताज़िए को चार महीना पहले से बनाना शुरू कर दिया जाता है। पहले इसके लिए कागजों पर ताज़िए का प्रारुप बनाया जाता है। उसके बाद उसके साइज से शीशा की कटिंग कराई जाती है। उसके बाद कटिंग शीशे पर फूल, नक्श,व तमाम तरह के डिजाइन बनाए जाते हैं। सबसे मेहनत का काम शीशे पर डिजाइन बनाना होता है। शीशे पर डिजाइन बनाने में काफी सावधानी बरती जाती है। इसमें शीशे के टूटने का खतरा रहता है। शीशे पर नक्काशी होने के बाद उसे आपस में जोड़ा जाता है और ताज़िए का रूप दिया जाता है। शीशे का ताजिया बनने के बाद उसकी सजावट कर बिजली की रोशनी से सजाया जाता है। अद्भुत कलाकारी होने से शीशे की ताजिया देखने वालों की भीड़ नववी की रात से जुटने लगती है। इस क्षेत्र में शीशे की ताज़िए का निर्माण पुश्तैनी होने से लाखों रुपए खर्च कर उनके परिवार के लोगों द्वारा कराया जाता है।
शीशे की ताज़िए के साथ बास की तीली से ताज़िए का निर्माण कारीगर द्वारा किया जाता है। गांधी नगर मोहल्ले के निवासी कल्लू बताते हैं कि बास के तीली से ताज़िए के निर्माण के लिए बांस को इकट्ठा करके ताज़िए की साइज से बास की तीली को काटा जाता है। उसके बाद उसे एक दूसरे से बाधकर ताज़िए का रुप दिया जाता है। कल्लू बताते हैं कि बास की तीली से बनी ताजिया को बनाने में परिवार के बूढ़े बच्चे शामिल रहते हैं।
बांस की तीली से ताज़िए को बनाकर उसे घर के बने चबूतरे पर नववी मोहर्रम को रखा जाता है। इसके कलाकारी को देखने वालों की भीड़ लगी रहती है। इस बार इसके निर्माण में पचासों हजार रुपए का खर्च आया है।
असगर अली
उतरौला
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