जला सकूं मैं दीपक केवल


अंधेरों  में  रहकर  देखा,  बहुत  उजाला  क्या होगा।
जला सकूं मैं दीपक केवल, अक्षत-माला क्या होगा।।

छाती  फुला-फुलाकर  देखा, गहराई  की  थाह नहीं।
सुनकर मुझको सब हंस देते,इससे काला क्या होगा।।

सच्चाई को  मार  दिए  तुम, कलम बेच डाली तुमने।
कौन सुनेगा  तेरी कहानी, मिर्च- मशाला क्या होगा।।

होती  जहरीली  नदियों को, आखिर कौन बचाएगा।
सुख रही हैं  सब पानी बिन, गन्दा नाला क्या होगा।।

इतना लंबा फेंक रहा है, कहा हुआ कुछ किया नहीं।
दिवाली  के  दीपक  सूखे, और दिवाला क्या होगा।।

रस्म  निभाते  देख  रहा  हूं,  सजी  हुई  दुकानों पर।
लेकर 'डिग्री' घूम रहे सब,  और घोटाला क्या होगा।।

भरा खजाना  लूट रहा है, जिसको  चाभी सौंपी थी।
खेल  रहे संग  थाने उसके, भारी ताला  क्या होगा।।

जिन्हें भुलाने की कोशिश की, स्वप्नों ख्वाबों में आए।
किश्तों में वो मार रहे हैं,  बरछी - भाला क्या होगा।।

फुर्सत  में  वे  गढ़े  गए  हैं, जितना देखा प्यास बढ़ी।
आंखों से जो पी ली हमने, लेकर प्याला क्या होगा।।…"अनंग"

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