*कबीर दास जी हिन्दू मुस्लिम एकता के सच्चे प्रतीक थे और भगवान राम के अनन्य भक्त थे*
*प्रभु जी अपन से आप नही बिसरो, जैसे स्वान कंचन मंदिर मा भूकी मरो।- संत कबीर दास जी*
*लेखकः डा0 मुरली धर सिंह ‘शास्त्री‘*
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03 जून 2023 अयोध्या/लखनऊ। महात्मा कबीर दास जी भगवान राम के अनन्य भक्त, गृहस्थ जीवन के समर्पित व्यक्ति स्वामी रामानंदाचार्य जी के 12 शिष्यों में प्रमुख थे। भगवान राम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान गौतम बुद्व वैष्णो अवतार थे। भगवान श्रीकृष्ण एवं भगवान गौतम बुद्व के शिष्यों में ज्यादातर राजकुमार थे। पर हमारे भगवान राम के शिष्यों में ज्यादातर लोग समाज के निचले समुदाय से आने वाले थे, जिसमें भक्त शिरोमणि निषाद राज, माता सबरी, जटायु जी, कागदेव जी, स्वयं हनुमान जी महाराज और महात्मा कबीर दास जी, तुलसीदास जी महाराज आदि प्रमुख है। कबीर दास जी ने कभी भी भगवान राम के नाम का स्मरण करते रहे, चाहे वह जुलहा के रूप में कपड़ा बुनते हो, चाहे गृहस्थ के रूप में कमाल और कमाली अपने पुत्र पुत्रियो की सेवा करते रहे वह हमेशा भगवान राम में लीन होकर रहते थे तथा स्वयं वे भगवान के पार्षदों में से एक हो गये थे कि उनके मृत्यु के समय जब हिन्दू मुस्लिम का झगड़ा होने लगा तो उनके शरीर के स्थान पर दो गुलाब का फूल मिला वह शरीर के साथ साकेत चले गये। ऐसी घटनायें भगवान चैतन्य महाप्रभु, माता मीराबाई, संत तुकाराम जी, संत रामदास जी आदि के साथ भी हुई है।
कबीर दास जी ने कभी भी हिन्दु मुस्लिम का चोला नही पहना वे हमेशा रामानंद जी के बताये मार्गो पर चलकर भगवान राम को अपना लिया था और भगवान राम ने भी उनको अपना लिया था इसलिए कबीर दास जी ने कहा है कि-
प्रभु जी अपन से आप नही बिसरो,
जैसे स्वान कंचन मंदिर मा भूकी मरो।
कबीर का जन्म कब और कहाँ हुआ था इसके बारे में विद्वानों के बीच में द्वन्द हैं। कबीर के जन्म स्थान के बारे में कई मत सामने आते हैं मगहर, काशी में हुआ है। कबीरदास या कबीर साहब जी 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में परमेश्वर की भक्ति के लिए एक महान प्रवर्तक के रूप में उभरे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिक्खों के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है। वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को मानते हुए धर्म एक सर्वोच्च ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना भी उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें बहुत सहयोग किया। कबीर पंथ नामक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें मस्तमौला कहा। एक प्रचलित कथा के अनुसार कबीर का जन्म 1438 ईसवी को गरीब विधवा ब्राह्मणी के यहाँ हुआ था, जिसे ऋषि रामानंद जी ने भूलवश पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। विधवा ब्राह्मणी ने संसार की लोक-लाज के कारण नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास छोड़ दिया था। शायद इसी कारण शायद कबीर सांसारिक परम्पराओं को कोसते नजर आते थे। एक कथा के अनुसार कबीर का पालन-पोषण नीरू और नीमा के यहाँ मुस्लिम परिवार में हुआ। नीरू को यह बच्चा लहरतारा ताल के पास मिला था। कबीर के माता-पिता कौन थे इसके बारे में एक निश्चित राय नहीं हैं। कबीर नीरू और नीमा की वास्तविक संतान नही थे उन्होंने सिर्फ उनका लालन-पोषण किया इसके बारे में विद्वानो के अपने-अपने मत है। कबीर की शिक्षा के बारे में यहाँ कहा जाता हैं कि कबीर को पढने-लिखने की रूचि नहीं थी। बचपन में उन्हें खेलों में किसी भी प्रकार शौक नहीं था। गरीब माता-पिता होने से मदरसे में पढ़ने लायक स्थिति नहीं थी। दिन भर भोजन की व्यवस्था करने के लिए कबीर को दर-दर भटकना पड़ता था, इसी कारण कबीर कभी किताबी शिक्षा नहीं ले सके। आज हम जिस कबीर के दोहे के बारे में पढ़ते हैं वह स्वयं कबीर ने नहीं बल्कि उनके शिष्यों ने लिखा हैं। कबीर के मुख से कहे गए दोहे का लेखन कार्य उनके शिष्यों ने किया था, उनके शिष्यों का नाम कामात्य और लोई था। लोई का नाम कबीर के दोहे में कई बार इस्तेमाल हुआ हैं। कबीर का पालन-पोषण बेहद ही गरीब परिवार में हुआ था, जहाँ पर शिक्षा के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता था। उस दौरान रामानंद जी काशी के प्रसिद्द विद्वान और पंडित थे। कबीर ने कई बार उनके आश्रम में जाने और उनसे मिलने की विनती की लेकिन उन्हें हर बार भगा दिया जाता था और उस समय जात-पात का भी काफी चलन था। ऊपर से काशी में पंडों का भी राज रहता था। एक दिन कबीर ने यह देखा कि गुरु रामानंद जी हर सुबह 4 से 5 बजे स्नान करने के लिए घाट पर जाते हैं। कबीर ने पूरे घाट पर बाड लगा दी और बाड का केवल एक ही हिस्सा खुला छोड़ा, वही पर कबीर रात को सो गए। जब सुबह-सुबह रामानंद जी स्नान करने आये तो बाड देखकर ठीक उसी स्थान पर से निकले जहाँ से कबीर ने खुली जगह छोड़ी थी। सूर्योदय से पूर्व के अँधेरे में गुरु ने कबीर को देखा नहीं और कबीर के पैर पर चढ़ गए। जैसे ही गुरु पैर पर चढ़े कबीर के मुख से राम राम राम निकल पड़ा। गुरु को प्रत्यक्ष देख कबीर बेहद ही खुश हो गए उन्हें उनके दर्शन भी हो गए, चरण पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया और इसके साथ ही राम नाम रूपी भक्तिरस भी मिल गया। इस घटना के बाद रामानंद जी ने कबीर को अपना शिष्य बना लिया। कबीर दास के एक पद के अनुसार जीवन जीने का सही तरीका ही उनका धर्मं हैं। वह धर्मं से न हिन्दू हैं न मुसलमान, कबीर दास जी धार्मिक रीति रिवाजों के काफी निंदक रहे हैं। उन्होंने धर्म के नाम पर चल रही कुप्रथाओं का भी विरोध किया हैं। कबीर दास का जन्म सिख धर्मं की स्थापना के समकालीन था इसी कारण उनका प्रभाव सिख धर्मं में भी दिखता हैं। कबीर ने अपने जीवन काल में कई बार हिन्दू और मुस्लिमो का विरोध झेलना पड़ा। संत कबीर की मृत्यु सन 1518 ई0 को मगहर में हुई थी। कबीर के अनुयायी हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों में बराबर थे, जब कबीर की मृत्यु हुई तब उनके अंतिम संस्कार पर भी विवाद हो गया था, उनके मुस्लिम अनुयायी चाहते थे कि उनका अंतिम संस्कार मुस्लिम रीति से हो जबकि हिन्दू, हिन्दू रीति रिवाजो से करना चाहते थे। इस कहानी के अनुसार इस विवाद के चलते उनके शव से चादर उड़ गयी और उनके शरीर के पास पड़े फूलों को हिन्दू मुस्लिम में आधा-आधा बाँट लिया। हिन्दू और मुसलमानों दोनों से अपने तरीकों से फूलों के रूप में अंतिम संस्कार किया। संत कबीर दास जी साकेत गमन मगहर में हुआ था, जो जनपद संत कबीर नगर में स्थित है। इस स्थान पर हिंदू एवं मुस्लिम दोनों समुदाय द्वारा एक ही परिसर में अलग-अलग समाधिया बनाई गई हैं जो आजकल के श्रद्धालुओं का पूजनीय स्थल है। हमारी वर्तमान सरकार द्वारा इसका विकास का कार्य किया जा रहा है तथा कबीर एकेडमी भी बनाई गई है। मा0 प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने जून 2018 में यहीं से लोकसभा 2019 के चुनाव की रैली का शुभारंभ किया था, उस रैली में मा0 मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी आदि गणमान्य व्यक्ति एवं नेता उपस्थित थे।
*जय हिंद, जय श्रीराम, जय संत समाज।*
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