गुरु सुधांशु द्विवेदी की कलम से
मेरा बलरामपुर!
लोगों के ऊपर तो बहुत अच्छे संस्मरण और जीवनियाँ लिखीं गयी हैं , पर शहरों , स्थानों और जगहों के बारे में उस जोड़ का साहित्य थोड़ा कम ही लिखा गया ...(लिखा ज़रूर गया होगा पर यूँ कहूँ मैने पढ़ा नहीं है )
...... हाँ रसूल हमजातोव का " मेरा दागिस्तान " एक शानदार अपवाद है इस बात का ... बनारस के ऊपर भी काशी का अस्सी और बना रहे बनारस जैसी किताबें आयीं ... लखनऊ के ऊपर स्वतन्त्र रूप में तो नहीं पर यत्र तत्र अमृत लाल नागर ने खूब लिखा .. दिल्ली के ऊपर खुशवन्त सिंह , विलियम डेलरिम्पल और कलकत्ते पर कालिंस लैपियर और अमिताव घोष ने अच्छा लिखा है ... पर मेरा दागिस्तान इनमें से अद्वितीय रचना है
... मेरे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के धनी शहर बलरामपुर में दागिस्तान जैसी प्राकृतिक विविधता और खूबसूरती तो नहीं है ..पर अपने बचपन के शहर की खूबसूरती तो य़ादों में छिपी होती है जो वहाँ की पुरानी गलियों को टीस भरी नजरों से खंगालती हुयी बार बार उसाँसें भरती है ... इसी टीस ने लिखने के लिये मजबूर कर दिया ... हर शहर के स्वाद की अपनी कुछ खासियत होती हैं ...बलरामपुर की भी हैं वहाँ की शानदार मीठी दही, चौक की रबड़ी , मुंसियाइन का पेड़ा , भर्तू का घमंजा , नन्हे लाल का चूरन , नूरी की लस्सी , बिहारी की ज़लेबी और समोसा, बाबू राम की चाट , गोपाल की फुल्की ... मैं कहीं भी रहूँ इस स्वाद को मिस करता हूँ क्योंकि मैं चटोर किस्म का प्राणी हूँ ... हर शहर को सबसे पहले उसके स्वादानुसार ही याद करता हूँ ... मुझे बलरामपुर जैसा संतोष भरा स्वाद केवल बनारस में मिल पाया पर वहाँ जैसा समोसा और मीठी दही कहीं नहीं मिली , बनारस में भी नहीं ... और वे लोग जिन्होने मेरी दुनिया बनाई वे तो केवल वहीं के हो सकते थे ... क्योंकि हर आदमी के बचपन का शहर या गाँव ही उसके व्यक्तित्व का अधिकतर हिस्सा निर्मित करता है ....
कहते हैं कि बलरामपुर छोटा मोटा लखनऊ है, उसी तरह की तहज़ीब व विरासत को संजोए हुए, बलरामपुर सबसे अधिक बलरामपुर स्टेट वालों का है , उसके बाद अली सरदार जाफरी , नानक चंद इशरत , बेकल उत्साही और अटल बिहारी बाजपेयी का। बलरामपुर स्टेट ने ही इसकी पहचान बनाने वाली इमारतें दीं, शिक्षा संस्थान दिए...एम एल के पीजी कॉलेज उससे जुड़े चतुर्वेदी जी व डॉ पीपी सिंह के किस्से , अखिल भारतीय हॉकी टूर्नामेंट , बिजलीपुर मंदिर, सिटी पैलेस, नील बाग पैलेस, माया होटल यह सब बलरामपुर की पहचान बन गए।
दुःख इस बात का है कि अटल बिहारी वाजपेयी की कर्मभूमि होने के बावजूद यह भूमि नेतृत्व विहीन व अनाथ जैसी रही है , पूरा पूर्वांचल कितना आगे चला गया और बलरामपुर जहाँ का तहाँ है , थका, अलसाया और हाँफता हुआ सा।
बलरामपुर वासी ही बताएँ कि इसकी गरिमा कैसे स्थापित हो ?
उमेश चन्द्र तिवारी
हिन्दी संवाद न्यूज
बलरामपुर
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubts, please let me know