*सेल्फी विद प्लांट का मोह-व्यंग्य*


 शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिला हो जिसे पर्यावरण बचाने की चिंता हो। इसका कारण भी है। मैंने कहीं पढ़ा था कि जितना पानी भारत में लोगों को उपलब्ध है उतना दुनियां के किसी अन्य देश में नहीं है। कहना चाहिए कि भारत के लोगों पर भगवान की कृपा है और इसलिये ही यहां भगवान के भक्त अधिक दिखते हैं भले ही दिखावे के हो।
यहां प्रकृति की विशेष कृपा रही है और लोगों को लगता है कि यह सब तो मुफ्त का माल है इसकी क्या सोचना। 

बड़े-बड़े भक्त हैं भगवान के पत्थरों को पूजते हैं। पेड़ कट रहे हैं। हमे प्राणवायु प्रदान करने वाले पेड़ हमारे सामने ही ध्वस्त हो जाते हैं। अखबार,टीवी और अन्य सभाओं में वक्ता भाषण करते हैं। मगर पेड़ कटने का सिलसिला थम नहीं रहा। लगाने की बात करते हैं। एक पेड़ को लगाना आसान नहीं है। पहले पौधा लगाओ और फिर उसकी रक्षा करो। घर के अंदर तो कोई लगाना नहीं चाहता और घर के बाहर अगर सरकारी संस्था लगा जाये तो उसकी देखभाल करने तक को कोई तैयार नहीं। अनेक संस्थाओं ने भूखंड बेचे और सभी के मकानों में पेड़ पौधे लगाने के लिऐ नक्शें मेें जगह छोड़ी पर लोगों ने वहां पत्थर बिछा दिये। कई लोगों ने उस जगह पूजाघर बना दिये। ताकि लोग आयें और देखे कि हम कितने भक्त है और स्वर्ग में टिकट सुरक्षित हो गया है। उससे भी मन नहीं भरा बाहर पेड़ पौधे लगाने की सरकारी जगह पर भी पत्थर बिछा दिये कि वहां कीचड़ न हो। कहीं दुकान बनवा दी। कौन हैं सब लोग? जो लोग पर्यावरण बचाने के लिये इतने सारे प्रपंच कर रहे हैं उनके व्यक्तिगत जीवन का अवलोकन किया जाये तो सब पता लग जायेगा। मगर नहीं साहब यहां भी बंदिश है। सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं उनके निजी जीवन पर टिप्पणियां करना ठीक नहीं है। अब यह सार्वजनिक जीवन और निजी जीवन का अंतर हमारी समझ से बाहर हैं।
पत्थर से कभी प्राणवायु प्रवाहित नहीं होती। वह जल का प्रवाह अवरुद्ध करने की ताकत रखता है पर उसके निर्माण की क्षमता उसमें नहीं है। उसी पत्थर को पूरी दुनियां में पूजा जाता है। अरे, आप देख सकते हैं सभी लोगोंं ने अपने इष्ट के नाम पर पत्थरों के घर बनवा रखे हैं और वहीं के चक्कर लगाते रहते हैं। जिन पेड़ों से उनको प्राणवायु मिलती है और जल का संरक्षण होता है वह उनके लिए कोई मतलब नहीं रखता। विदेशों का तो ठीक है पर इस देश में क्या है? पेड़ों को देवता स्वरूप माना जाता है इस देश में ऐसे पेड़ों को प्रतिदिन जल देने की भी परंपरा रही है पर यहां पत्थरों की पूजा करने का भी विधान किया गया। पता नहीं कैसे? भारतीय अध्यात्म में तो निरंकार की उपासना करने का विचार ही देखने को मिलता है। कई जगह पेड़ों के आसपास इष्ट देवों के घर बनाकर वहां पत्थर रख दिये गये। धीरे-धीरे पेड़ गायब होता गया और लोगों की श्रद्धा पत्थर के घरों को बड़ा करती गयी।

कहते हैं जो चीज आसानी से मिलती है उसकी कद्र इंसान नहीं करता? मगर अनेक ज्ञानी और ध्यानियों को मानने वाले इस देश में अज्ञानी कहीं अधिक हैं नहीं तो उनको समझ में आ जाता कि पेड़ पौद्यों की बहुलता और जल की प्रचुरता सृष्टि की देन है इसलिये सहज सुलभ है वरना लोग तरस रहे हैं इन सबके लिए। हर कोई अपने इष्ट का बखान करता है पर जो पेड़ इस दैहिक जीवन का संचालन करते हैं उसकी बजाय लोग मरने के बाद के स्वर्ग के जीवन के लिए संघर्ष करते नजर आते हैं। जहां से पैट्रोल आता है वहां पानी नहीं मिलता। वहां लोग ऐसी जलवायु को तरसते हैं। जिन पश्चिमी देशों में कारों का अविष्कार किया गया वही आज सायकिल को स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त बताते हैं। ऐसी और कूलरों के वश में होते जा रहे लोगों का इस पर्यावरण प्रदूषण का पता नहीं चलता। आजकल अस्पताल फाइव स्टार होटलों जैसे हो गये हैं उनको अगर अपनी बीमारी के इलाज के लिये वहां जाने पर घर जैसी सुविधायें मिल जातीं हैं। मगर गरीब जिसके लिये स्वास्थ्य ही अब एक पूंजी की तरह है उसको भी कहां फिक्र है? किसी ने पेड़ काटने के लिये बुलाया है तो उसे अपनी रोटी की खातिर यह भी करना पड़ता है।

पर्यावरण के दुश्मन कहीं हमसे अधिक दूर नहीं है और न अधिक शक्तिशाली है पर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से गुलामी की मानसिकता से लबालब इस देश में केवल बातें ही होती हैं। पेड़ इसलिये काट दो कि सर्दी में धूप नहीं आती या फिर घर में शादी है शमियाना लगवाना है। किसी भी जंगल में शेर कितने हैं पता ही नहीं चलता। आंकड़े आते हैं पर कोई उनको यकीन नहीं करता। आखिर वहां शिकारी भी विचरते हैं। शेरों के खालों के कितने तस्कर पकड़े गये सभी जानते हैं। आदमी के मन में ही पर्यावरण का दुश्मन। शेर हो या हिरण उसका शिकार करना ऐसे लोगों के लिए शगल हो गया है जो उसकी खाल से पैसा कमाते हैं या अपनी प्रेमिका को प्रभावित करने के लिए अपना कौशल दिखाते हैं। एक नहीं पांच-पांच खालें बरामद होने के समाचार आते हैं पर जो नहीं आते उनकी गणना किसने की है।

लोग पेड़ पौधों के लिए चिंतित नहीं है जितना पेट्रोल के पैसे बढ़ने से दिखते हैं। वह पैट्रोल जो गाड़ी में डलने से पहले और बाद दोनों स्थितियों में चिंता का विषय है।ऐसे में पर्यावरण पर मैं क्या  लिखती !!
*नेहा नीरज खरे* 
अध्यक्ष 
प्रगति विचारधारा फाउंडेशन

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