शिमला डायरी: हिमाचल प्रदेश को समझने के लिए एक जरूरी किताब - डॉ हरेराम सिंह
कभी आप शिमला गए हों तो आपको मालूम होगा कि वाकई यह कितना खूबसूरत शहर है! दूर दूर तक पहाड़ियाँ, चीड़ व देवदार के लंबे पेड़, उनके नुकीले पत्तें मन को मोहने को लिए काफी हैं। 'धुंध से उठती धुनों 'में अहर्निश खो जाने का सुख अलग है। वहां के लोगों का संबोधन "हां जी,हां जी!" कितना मधुर व सुहाना है! जिसे आप दूसरे जनम में भी भुलाना नहीं चाहेंगे।
शिमला स्वर्ग है, जहां "लाल टीन की छत" आपको बरबस खिंचेंगी ,जो हर हर घाटी की शोभा है,और उसके पीछे का इतिहास है। सन् 2016 में मुझे शिमला जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वहां साथी विजय पुरी ने हिंदी के चर्चित कथाकार एस.आर.हरनोट से मेरी मुलाकात करवायी थी। जब उन्होंने मुझे जाना कि मैं सासाराम, बिहार से हूं। उन्होंने मुझे प्रमोद रंजन के बारे में बताया। और मैं चहक उठा था कि कम से कम शिमला की ज़ेहन में जिंदा है वह जिसे लोग प्रमोद रंजन कहते हैं। उस दिन मुझे लगा कि शिमला अपने अतिथियों को जेहन में संजोना जानता है!
जब प्रमोद रंजन की किताब "शिमला डायरी" हाथ लगी तो ऐसा लगा कि प्रमोद रंजन ने शिमला की यादों को न सिर्फ यादगार बना दिया बल्कि शिमला वासियों को 'एक जरुरी दस्तावेज' भेंट कर उनसे अपनी मुहब्बत का इजहार कर दिया है, जैसे 'प्रिया दी' का निर्मल प्रेम कमलेश्वर के प्रति उमड़कर ,उनके होठों पर दिखने लगता था,आंखों में चमकने लगता था, ठीक वैसी ही मुहब्बत ‘शिमला डायरी’ में उभरकर सामने आई है। अपनी प्रिया दी के बारे में प्रमोद रंजन ने बड़ी संजिदगी के साथ बहुत कम में बहुत कुछ लिखा है। ठीक उसी तरह 'सरोज वशिष्ठ' व 'सतीश चंद्र' के बारे में इस डायरी के पन्नों पर वह बात उभरकर आई ,जहाँ रुद्राक्ष की मालाएँ तो हैं पर वहाँ कोई अलावा नहीं है "इन्हें धारण करने के पीछे कोई आध्यात्मिक -तांत्रिक कारण नहीं है"।आज विश्व की कई बड़ी शक्तियां युद्ध की विभीषिका से अंजान बनकर युद्ध में इंसानियत को धकेलने की कोशिश करती है और इसे 'शेरेदिल' से उपमा देकर महिमा मंड़ित करती है,पर ब्रिगेडि़यर हरजित सिंह व उनकी पत्नी हरेंद्र कौर की वह बात खुरदुरा यथार्थ है जहाँ वे कहते हैं-"जब सेना किसी युद्ध पर जाती है ,तो लोग कहते हैं कि देखो ,देश के जंवाई बने बैठे थे,अब बकरे की तरह हलाल होने जा रहे हैं।" शिमला का 'बरिस्ता कल्चर' सामंती आग्रहों पर प्रहार है और बिहार के एक कम्युनिस्ट विधायक वहां गच्चा खा गए! लोअर बाजार की रौनक व उसकी मजबूरियों के बाद शिमला की पॉलिटिक्स का सांप्रदायिक आगाज की ओर भी प्रमोद रंजन ने बड़ी बारीकी से इशारा कर समझा दिया है,जहां वह दार्शनिक प्रेमकुमार मणि को कोट करते हैं-"किसी देश या प्रदेश के राजनीतिक मिजाज का पता इससे नहीं चलता कि वहाँ किस पार्टी की हुकूमत है,बल्कि इस बात से चलता है कि वहाँ किस तरह के नारे गूंज रहे हैं।" फिर भी प्रमोद रंजन 'ग्राम परिवेश, 15 अप्रैल 2003 अंक में लिखते हैं-"इन स्थितियों के बावजूद शिमला में कम्युनिस्ट साथियों को सक्रिय देखना सुखद है।" प्रमोद रंजन आलोचना को उद्धरणों को रखने एवं निष्कर्ष सिद्ध करने कि पर्याय नहीं मानते।
'शिमला डायरी' पाँच खंडों में विभक्त डायरी के रूप में लंबी यात्रा है। जहां थकान नहीं है,बल्कि और आगे जाने, पड़ताल करने, बोलने बति़याने व शिमला की घाटियों की गहराई में उतरकर देखने की भूख है। वहां सरकारी तंत्र के झूठे वादे के आगे कुछ ऐसी विवशताएं हैं कि शौचालय के लिए बाहर निकलना एक विकल्प-सा बन गया है, जिसकी अनुगंजें चुनावी नारों में गुम हो जाती है, और इसे वह संपादकीय आंखें पकड़ लेती हैं,जो रचना को रचना के पीछे रहकर उसे चमका देती हैं। 19 अक्टूबर 2003 की डायरी में प्रमोद रंजन लिखते हैं कि-"डायरी क्यों लिखता हूँ?इसलिए कि समय बीतने पर अपने भूत के उतार -चढावों को देख सकूं।" इसी डायरी में प्रवीण तोगड़िया का वह बयान भी दर्ज है, जिसमें वह कहते हैं 'जो लोग मुझे सांप्रदायिक कहते हैं वे एक दिन देशद्रोही साबित होने वाले हैं।'(07.10.2013) और वह दिन आ भी गया कि प्रधानमंत्री को नाम चिट्ठी लिखने वालों पर देशद्रोह के मुकदमे दर्ज हो रहे हैं। प्रमोद रंजन की यह जरुरी कंफीडेंसियल फाइल है और इस फाइल को आप पलट-पलटकर आईने की तरह देख सकते हैं,यकीं मानिए जब भी आपको लगेगा कि शिमला कराह रहा है या शिमला के साथ अन्याय हुआ, तब तब यह डायरी आपको मजबूत बनाएगी, राह दिखाएगी।
शिमला का अपना इतिहास है,जहाँ किन्नर हैं,जहाँ बौद्ध हैं,जहाँ जाति प्रथा है। प्रमोद रंजन सन् 2017 में शिमला से 250 किमी उत्तर-पूर्व की यात्रा पर 15 जून को सपरिवार निकले थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने दर्जनों लोगों से गपशप की थी और उन गपशप से जो मिला उसे सुनकर रो पड़ेगे। आपको लगने लगेगा कि जो बाहर से हिमाचल दिखता है और जो वहां के दुर्गम इलाकों में रहने वाले मूल लोग भोग रहे हैं,उनमें कितना अंतर है। उन इलाकों में लोहारों, बुनकरों व लामाओं की अलग संस्कृति है जिसे आज निगला जा रहा है! जिनके भीतर कल-छपट नहीं थे,उन्हें व उनकी संस्कृति को कल-छपट से बर्बाद किया जा रहा है।
(कवि और आलोचक हरेराम सिंह के कई कविता संग्रह व आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनके कविता संग्रहों में ‘हाशिए का चांद’, ‘चांद के पार आदमी’, ‘राेहतासगढ़ के पहाड़ी बच्चे’ तथा आलोचना पुस्तकों में ‘ओबीसी साहित्य का दार्शनिक आधार’, ‘हिंदी आलोचना का जनपक्ष’ आदि प्रमुख हैं)
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पुस्तक: शिमला डायरी
लेखक:प्रमोद रंजन
प्रकाशक:द मार्जिनलाइज्ड पब्लिशन,दिल्ली
मूल्य: 350 रुपए
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