राजनीति की दुर्दशा और दिशाहीनता - अनुज अग्रवाल

      वो भारत जो पिछले वर्ष ही तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध अब तक के सबसे लंबे किसान आंदोलन से गुजरा था और जिसकी गूंज पूरी दुनिया में गूंजी थी और भारत सरकार को झुकना पड़ा था व प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों और देश से माफ़ी तक माँगी थी उसी भारत की राजनीति व किसान आंदोलन आज “ जलवायु परिवर्तन” के कारण हो रहे कम उत्पादन, फसलों के नष्ट होने व महंगाई से परेशान किसानों के दुःख - दर्द की पीड़ा पर ख़ामोश हैं। देश व दुनिया एक भयानक खाद्य व जल संकट से दो चार है और यह आगे बहुत ज्यादा बढ़ने वाला है, ऐसे में यह राजनीतिक मसला न हो हमारे अस्तित्व का मसला है , किंतु राजनीतिक दल इस मुद्दे पर लगभग ख़ामोश हैं। हाँ विपक्षी दल ताल ठोक रहे हैं संसद में उद्योगपति अदाणी को भारत सरकार व प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लगातार बड़ा फायदा पहुंचाने के हिंडनबर्ग रिपोर्ट द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति द्वारा कराने के लिए, उनके भ्रष्टाचार के विरुद्ध केंद्रीय जांच एजेंसियों की ताबड़तोड़ कार्यवाही के विरुद्ध व कांग्रेस नेता राहुल गांधी के एक जनसभा में दिए  गए अपमानजनक बयान पर कोर्ट द्वारा उनको दो साल की सजा देने व उनकी लोकसभा सदस्यता समाप्त होने के विरुद्ध।किंतु वे अपने शासित राज्यों में क्यों अदाणी से निवेश करा रहे हैं व क्यों नहीं आरोपों की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय नहीं जा रहे हैं, इस मुद्दे पर वे ख़ामोश हैं।विपक्ष के इस विरोध व गतिरोध के बीच उम्मीद थी कि देश की जनता बड़ी संख्या में उनके साथ सड़को पर उतरती, बड़े आंदोलन और विरोध प्रदर्शन होते , किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा। राहुल गांधी व कांग्रेस के अनेक नेता जिस प्रकार पिछले कई वर्षों से भद्दी व घटिया बयानबाजी करते रहे हैं विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध , वह बहुत ही छिछली व स्तरहीन राजनीति का प्रतीक है और इसका विरोध होना चाहिए। किंतु कांग्रेसी नेताओं ने मोदी को गाली देना गांधी परिवार के वफादार होने का सबूत देने का उपकरण बना लिया है। यह नकारात्मकता राजनीति के पतन की चरम सीमा है।
     यह दुःखद ही है कि देश के राजनेता जनता की मनोदशा समझ ही नहीं पा रहे हैं। कोविड के बाद एक के बाद एक बीमारी से घिरी जनता मानसिक व शारीरिक रूप से टूट रही है तो बार बार बीमार पड़ते जाने से उसकी इम्यूनिटी भी कमजोर हुई है। ऐसे में आकस्मिक मौतें बहुत बढ़ गई हैं। अमेरिकी - चीन व्यापार युद्ध  , रुस - यूक्रेन (नाटो) युद्ध व जलवायु परिवर्तन ने मांग - आपूर्ति श्रृंखला को बिगाड़ दिया है और दुनिया व्यापक आर्थिक मंदी की ओर बढ़ रही है। ऐसे में हर व्यक्ति व्यापक आर्थिक दबाव से गुजर रहा है। कुछ लोग अवश्य आकस्मिक बड़े लाभ के मज़े ले रहे हैं किंतु अधिकांश लोग कम कमाई, अधिक प्रतिस्पर्धा, मूल्यों के उतार - चढ़ाव, कम मार्जिन, नौकरी छिनने, कम उत्पादन, कम बिक्री, अधिक बिक्री के बाद भी कम मार्जिन , बढ़ती महंगाई के कारण आर्थिक दबाव, अनिश्चितता पूर्ण आर्थिक माहौल आदि से दो चार हैं। किंतु कोई भी राजनेता व राजनीतिक दल इन मुद्दों पर बात नहीं कर रहा। महंगाई - बेरोजगारी पर बात तो हो रही है किंतु उसके मूल कारण चर्चा से नदारद हैं। जीवाश्म ईंधनों के व्यापक व बढ़ते उपयोग से धरती का तापमान बढ़ रहा है और प्रकृति नष्ट हो रही है , जिस कारण कृषि उत्पादन कम होता जा रहा है। ऐसे में जीवन शैली में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है व इसके लिए बड़े आंदोलन की भी किंतु राजनीतिक दल, सरकार व उद्योगपति सब देश व दुनिया को विकास की अंधी राह पर झोंकते जा रहे हैं जो बड़े विनाश के रास्ते खोल रहा है। हर ओर युद्ध के चर्चे व हथियारों की होड़ है और मीडिया इसे अनियंत्रित रूप से दिखा रहा है।जिसको देख आम जनता गहरे अवसाद में जा रही है, नई पीढ़ी को अपना भविष्य अनिश्चित नज़र आ रहा है और वो निराश होकर नशे ( शराब, ड्रग्स आदि) ,मोबाइल गेम, यौन उत्कंठा (पोर्न,ओटीटी के घटिया सीरियल, सोशल मीडिया), सट्टेबाजी (शेयर, क्रिप्टो करेंसी) का शिकार बनती जा रही है। लगभग हर प्रदेश में सरकारी भर्तियों में व्यापक भ्रष्टाचार हो रहा है तो कारपोरेट सेक्टर की नौकरी कम पैसों में बारह बारह घंटे काम लेने की प्रवृत्ति बन गई है जो युवाओं को निराश कर रही है। इस सबके बाद भी कोई भी नौकरी, खेती , व्यापार व उद्योग निश्चित व सुरक्षित भविष्य की गारंटी नहीं रहा। परिस्थितियों व टेक्नोलॉजी के द्रुत परिवर्तनों ने व्यापक अनिश्चितता पैदा कर दी है। किंतु किसी भी राजनीतिक दल के लिए इन मुद्दों पर सोचने व बात करने का समय ही नहीं है। 
        देश के मीडिया के सामने बस यही यक्ष प्रश्न है कि सन 2024 के लोकसभा चुनावों में किसकी सरकार बनेगी। क्या मोदी  हार जाएंगे ? क्या विपक्ष एकजुट होगा आदि आदि। यू तो लोकसभा चुनावों में अभी एक वर्ष से भी अधिक का समय है किंतु देश में राजनीतिक दल हों या मीडिया सभी के दिमाग में बस एक ही प्रश्न है कि क्या होगा 2024 में। यह भी अप्रत्याशित है कि लाख बातों व कोशिशों के बाद भी विपक्ष एक होता नहीं दिखता। मुद्दा यह है कि हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है और हर कोई अपनी सीट ज़्यादा से ज़्यादा देख रहा है। आपसी अहम व अपने भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रही जांच न तो उनको एक कर पा रही है और न ही वे दीर्घकालिक सोच पा रहे हैं। यह भी सच है कि समाप्त होती कांग्रेस में भाजपा ही जान फूंक रही है। लगातार कांग्रेस को सुर्ख़ियों में रखा जा रहा है ताकि उसका वजूद बढ़े ।यह सोची समझी रणनीति है मोदी जी व अमित शाह जी की। अगर कांग्रेस थोड़ी सी मज़बूत न दिखी तो शेष विपक्ष एक हो जाएगा और लोकसभा चुनावों में बीजेपी बनाम कांग्रेस विहीन विपक्ष होगा व काँटे की टक्कर देगा। कांग्रेस में थोड़ी जान फूंकने से यूपीए भी ताल ठोकेगा और शेष विपक्ष भी । ऐसे में मुकाबला त्रिकोणीय होगा व सेकुलर वोट बंट जाएंगे व बीजेपी व एनडीए को जीतना आसान होगा। 
स्पष्ट है कि पक्ष हो या विपक्ष सभी कि रणनीति व एजेंडा मोदी - शाह ही कर रहे हैं, ऐसे में यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि लोकसभा चुनाव कौन जीतेगा। हाँ , चर्चा का प्रश्न यह हो सकता है कि बीजेपी को बहुमत से कितनी अधिक सीटें मिलेंगी। विपक्ष को समझना होगा कि वैश्विक चुनौतियों व घरेलू संकटो के बीच मोदी सरकार की दूरदर्शिता व रणनीति  की देश - दुनिया में जमकर प्रशंसा हो रही है और उससे भी ऊपर मोदी जी के व्यक्तित्व की, जो संकटमोचक बन बार बार भंवर में फंसती नाव को बाहर निकाल रहा है। जिस प्रकार उन्होंने द्रुत विकास, सनातन संस्कृति को सम्मान, भारतीयता ,राष्ट्रवाद व आक्रामक विदेश नीति को अपने एजेंडे में प्राथमिकता दी जिससे उपेक्षित बहुसंख्यक समाज  मुख्यधारा में आ गया व मोदी भक्त हो गया। दुनिया के हर देश में भारतीय लोगों को सम्मान की नज़रों से देखा जाने लगा। जनकल्याण की नीतियों में विविधता , पारदर्शिता व बड़ी मात्रा में धन के आवंटन से अस्सी करोड़ ग़रीब भारतीय विकास की मुख्यधारा में आ गए व मोदी और भाजपा के पक्के वोट बैंक बन गये। सच यह है कि जनता विपक्ष से भी ऐसी ही दूरदर्शिता व रणनीति की अपेक्षा रखती है और मोदी जैसे व्यक्तित्व की भी न कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, बांटो और राज करो , सत्ता में आओ और माल बनाओ की राजनीति की।जब तक विपक्ष इन मापदंडों पर खरा नहीं उतरता , मोदी से पार पाना उनके लिए कठिन ही होगा। 
अनुज अग्रवाल
संपादक, डायलॉग इंडिया
www.dialogueindia.in

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