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हमारा दुर्भाग्य है कि आज हम पत्रकारिता के मूत्रकाल से गुजर रहे है। दरअसल कालगति किसी ने देखी । कोई इसे हटक नहीं सकता। काल पर किसी का जोर भी नहीं है लेकिन निराश होने की बात इसलिए भी नहीं है कि पत्रकारिता का ये दुर्गन्धयुक्त काल भी शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। कोई काल कालजयी नहीं होता । हर काल को ' कालपात्र ' में जमींदोज होना पड़ता है।
आजादी से पहले और आजादी के बाद भारत की पत्रकारिता ने अनेक रंग बदले हैं,रूप बदले हैं। पत्रकारिता यदि किस समय फिरंगियों से लड़ने का औजार बनी है तो उसने कभी समाजिक जन जागरण का काम भी निष्ठा से किया है। अमृतकाल से पहले पत्रकारिता ने स्वर्णकाल भी देखा है । हमारे पुरखों में बड़े-बड़े मूर्धन्य नाम शामिल रहे हैं हम 'उदन्त मार्तण्ड ' से चलकर 'आजतक' के दौर में आ चुके हैं। अब हमारी खबरों का केंद्र मूत्र तक जा पहुंचा है। मुमकिन है कि हम अभी इससे भी आगे जाएँ !
सदियों के साथ सब कुछ बदलता है । पत्रकारिता भी बदल रही है। आपातकाल से गुजरी पत्रकारिता मोदीकाल में 'गोदी मीडिया' का तमगा लिए दिखाई देती है ,इस काल में ही मूत्रकाल ने भी जन्म लिया है। इसमें किसी सम्पादक का कोई दोष नहीं है। उसके हाथ में कुछ है ही नहीं जो वो पत्रकारिता को मूत्रकाल में प्रवेश करने से रोक सके। पत्रकारिता अब 'मन की बात' जैसी 'मन का मोदक' हो गयी है। जो जैसे चाहे इसे इस्तेमाल करे।
भारतीय पत्रकारिता को मूत्रकाल से भी गुजरना पडेगा,इसकी कल्पना न किसी सप्रे ने की होगी और न किसी पराड़कर ने। खुशवंत सिंह हो या कुलदीप नैयर ,राजेंद्र माथुर हों या कल ही विदा हुए वेद प्रताप वैदिक ,कोई नहीं जानता था कि पत्रकारिता का मूत्रकाल भी आएगा। हमने भी जब कलम और बाद में कैमरा सम्हाला था ,तब हमें भी अंदाजा नहीं था कि हम अपनी आँखों से पत्रकारिता का मूत्रकाल भी देखेंगे कमर वहीद नबी को भी अफ़सोस होता होगा ये काल देखकर लेकिन कोई कुछ कर नहीं सकता। आजादी का अमृतकाल मनाने वाले हम पत्रकारिता का मूत्रकाल मनाने के लिए अभिशप्त जो हैं।
पत्रकारिता के मूत्रकाल को आप लोकतंत्र से जोड़कर बिलकुल मत देखिये,क्योंकि लोकतंत्र भले ही संकट में हो किन्तु पत्रकारिता को कोई खतरा नहीं है । आज देश की पत्रकारिता बड़े ही मजबूत हाथों में हैं। ये वे हाथ हैं जो अतीत में ' कर लो दुनिया मुठ्ठी में ' का नारा देकर देश को ,देश की सरकारों को,देश की अर्थव्यवस्था को अपनी मुठ्ठी में कर चुके है। ये हाथ क़ानून के हाथों से भी ज्यादा लम्बे हैं और चाहते हैं कि लोकतंत्र हो या पत्रकारिता सड़ांध भरे गटर से गुजरे। और ऐसा होता दिखाई भी दे रहा है।
मै हमेशा से कहता रहा हूं कि लोकतंत्र को और लोकतांत्रिक शक्तियों को इस तरह कि खतरनाक और खौफनाक दौरों से गुजरना पडेगा। हम इनसे बच नहीं सकते । इनका सामना करना ही पहला और अंतिम विकल्प है। इसलिए तैयारी कीजिये इस मूत्रकाल से जूझने की । जरूरी नहीं है कि आप मूत्रकाल को पल्ल्वित करने वाले माध्यमों पर आश्रित रहें । आप इनका बहिष्कार करें। भूल जाएँ कि देश में खुद को सबसे तेज और नंबर एक कहने वाले चैनल भी आपके यहां इस पाप के भागीदार हैं। आप सूचना के दूसरे माध्यमों पर जाइये। पत्रकारिता और लोकतंत्र इन्हीं श्रोतों में महफूज है।
अब कोई एसपी सिंह इस मूत्रकाल में हाथ लगाने नहीं आएगा। कोई रवीश कुमार इस मूत्रकाल को आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता। इसे रोकने की जिम्मेदारी हमारी,आपकी है। अगर हम और आप भी आँखें बंदकर बैठ गए तो हमें हर चैनल पर मूत्र विसर्जन के ही नहीं बल्कि न जाने कौन -कौन से दृश्य भविष्य में और देखने पड़ें। हम इसी मूत्रकाल में डिग्री विहीन लोगों को झेल रहे है। उन्हें महात्मा गाँधी के मुक़ाबिल खड़ा करने की कोशिशें भी देख रहे हैं। जब देख रहे हैं तो प्रतिकार करना भी हमें आना चाहिए।
इस त्रासद मूत्रकाल में भी मै आशान्वित हूँ,क्योंकि इस दौर में भी कबीर के वंशज मरे नहीं है। कबीर का कुनबा डूबा नहीं है। कबीर ने एक नहीं एक से बढ़कर एक कमाल पैदा किये हैं जो इस दुर्गन्धयुक्त मूत्रकाल को सुवासित करने की क्षमता रखते हैं। मुमकिन है के आने वाले दिनों में सत्ता प्रतिष्ठान पत्रकारिता के मूत्रकाल संस्थापकों को पद्मश्री जैसे अलंकरण बाँट दे लेकिन यकीन रखिये के ये सब एक दिन इतिहास के कूड़ेदान में पड़े दिखाई देंगे।
पत्रकारिता का मूत्रकाल भी अंतत:मानवाधिकारों की रक्षा ही कर रहा है । उसने एक व्यक्ति को लघुशंका करते दिखाकर मानवाधिकार की रक्षा की है अन्यथा हत्यारी सरकारें कब किस की जान किस तरीके से ले लें,कोई जानता है। आप को अहसानमंद होना चाहिए पत्रकारिता के मूत्रकाल का जिसने योगियों की सरकार को नाकाम कर दिया। आप अहसानमंद हों या न हों किन्तु अतीक अहमद तो पत्रकारिता के इस मूत्रकाल को अपने लिए अमृतकाल ही मानेगा ,जिसने उसको मरने से बचा लिया। आज की पत्रकारिता का यही दायित्व है । उसे कभी सरकार को बचाना होता है तो कभी अतीक को। लोकतंत्र से उसका कोई राब्ता नहीं रह गया है। लोकतंत्र जाए भाड़ में पत्रकारिता के मूत्रकाल को क्या पड़ी ?
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