राजकुमार गुप्ता
आगरा। दुष्टों की दुष्टा से लोगों को बचाने और जन - जन के कल्याण के लिए हमारी भारत भूमि पर अनेक महापुरुषों ने अवतार लिए हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम, महाबली हनुमान जी, भगवान श्रीकृष्ण इसी धरती पर पैदा हुए हैं। ऐसे ही महान पुरुषों में भगवान महावीर स्वामी का नाम सर्वोपरि है।
सुप्रशिद्ध एवं लोकप्रिय समाजसेवी पंकज जैन ने जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी जी की जन्मजयंती की सभी को शुभकामनाये व्यक्त करते हुये बताया कि आज जब इस संसार में घृणा, बैर, द्वेष, मार-काट का बोलबाला है, ऐसे में भगवान महावीर स्वामी जी के उपदेशों पर चलकर जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है। भगवान महावीर स्वामी जी की जन्मजयंती 3 अप्रेल को हैं। वर्षों तक बिहार के उत्तर तथा दक्षिण में अपने मत का प्रचार-प्रसार किया। अनगिनत अनुयायी बन जाने पर इन्होंने लोगों को सदाचार व खान-पान में पवित्रता तथा प्राणीमात्र पर दया करने की शिक्षा दी। आज भी आप अपने धर्म प्रवर्तन पथ पर महान कार्यों से हमारे अज्ञानान्धकार को दूर कर रहे हैं। जीओ और जीने दो का नारा लगाकर समाज को जीव हत्या बंद करने तथा मांसाहार त्यागने की अपील की। इस दिन गरीब लोगों को कपड़े, भोजन, रुपये और अन्य आवश्यक वस्तुओं को बाँटने की परंपरा है। भगवान महावीर स्वामी जी ने अपने धर्म को मानने वालों का नाम ‘जैनी’ रखा। भगवान महावीर स्वामी जी की मृत्यु के पश्चात् जैन अनुयायी दो भागों में बँट गए-दिगम्बर व श्वेताम्बर। निर्वसन रहने वाले दिगम्बर कहलाए तथा वस्त्र धारण करने वाले श्वेताम्बर कहलाए। जैन धर्म के प्रमुख रूप से पाँच सिद्धान्त हैं, जिनका सार इस प्रकार है–‘सत्य, अहिंसा, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक कुछ भी एकत्रित न करना तथा शुद्धाचरण। इन सिद्धान्तों पर चलकर मनुष्य मोक्ष पा सकता है। कहा जाता हैं कि धर्म की संस्थापना करने वाले तथा सज्जन व्यक्तियों की रक्षा के लिए दुष्टों से बचने का मार्ग दिखाने वाले भगवस्वरूप भगवान महावीर स्वामी जी का जन्म उस समय हुआ जब दुष्टों का महत्त्व बढ़ने के कारण केवल दुष्टों की ही प्रतिष्ठा समाज में लगातार बढ़ती जा रही थी। इससे उस समय का जन समाज मन-ही-मन पीड़ित और तंग था क्योंकि इससे दुष्टवादी चेतना सभी जातियों को हीन और मलीन समझ रही थी। कुछ समय बाद तो समाज में यह भी असर पड़ने लगा कि धर्म आडम्बर बनकर सभी जातियों को दबा रहा है। दुष्टजाति गर्वित होकर अन्य जातियों को पीड़ित करने लगी। इसी समय देवी जी की कृपा से भगवान महावीर स्वामी जी ने धर्म के सच्चे स्वरूप को समझाने के लिए परस्पर भेदभाव की गहराई को भरने के लिए सत्यस्वरूप में इस पावन भारत भूमि पर प्रकट हुए।
श्री जैन ने आगे बताया कि भगवान महावीर स्वामी जी जब वे 30 वर्ष के हो गए, तो उन्होंने अपनी सारी व्यक्तिगत संपत्ति ज़रूरतमंद और गरीबों को दान कर दी, शेष संपत्ति को वे अपने घर पर ही छोड़ गए।यद्यपि आपको पारिवारिक सुखों की कोई कमी न थी लेकिन ये पारिवारिक सुख तो आपको आनन्दमय और सुखमय फूल न होकर दुःख एवं काँटों के समान चुभने लगे थे। आप सदैव संसार की असारता पर विचारमग्न रहने लगे। आप बहुत ही दयालु और कोमल स्वभाव के थे। अतः प्राणियों के दुःख को देखकर संसार से विरक्त से रहने लगे। तीस वर्ष की आयु में घर छोड़ने के बाद ये गहरे ध्यान में लीन हो गए और इन्होंने बहुत अधिक कठिनाईयों और परेशानियों का सामना किया था। इस दौरान उन्होंने बहुत कम खाया और अधिकांशतः उन्होंने बिना कुछ खाए-पिए ही जीवन गुज़ारा। लोगों ने उन्हें तंग भी किया, परंतु वे शांत रहे। उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। बहुत वर्षों के ध्यान के बाद इन्हें शक्ति, ज्ञान और आशीर्वाद की अनुभूति हुई। ज्ञान प्राप्ति के बाद, इन्होंने लोगों के वास्तविक जीवन के दर्शन, उसके गुण और जीवन के आनंद से शिक्षित करने के लिए यात्रा की। आपने इस पथ के लिए गुरुवर पार्श्वनाथ का अनुयायी बनकर लगभग बारह वर्षों तक अनवरत कठोर साधना की थी। 12 वर्ष बाद 42 वर्ष की उम्र में उन्होंने सत्य की खोज कर ही ली। अर्थात् उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई और वे अर्हत या जिन कहलाए। फिर वर्धमान महावीर जी दिगंबर भिक्षु बन गए। उन्होंने बिना किसी मोटरगाड़ी के पूर्वी भारत के विभिन्न प्रांतों की यात्रा की, जो बिहार, झारखंड, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा और पूर्वी उत्तर प्रदेश में हैं। उन्होंने इन सब स्थानों पर उपदेश दिए। उनके तीन सिद्धान्त, जैन धर्म के तीन रत्न हैं-सम्यक् ज्ञान, सम्यक् धर्म और सम्यक् आचरण। उनके महाव्रत थे-सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। उनका ध्येय था कि हर मनुष्य मोक्ष प्राप्त करे। इस विकट तपस्या के फलस्वरूप आपको सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ। महावीर स्वामी जी 72 वर्ष की आयु में बिहार प्रान्त के ‘पावापुरी’ में कार्तिक मास की अमावस्या को निर्वाण-पद को प्राप्त हुए थे। जन्म, जरा, आधि और व्याधि के बंधनों से मुक्त होकर महावीर जी अजर-अमर तथा अविनाशी हो गए और जैन धर्म के महान तीर्थांकारों में से एक बन गए, जिसके कारण आज इन्हें जैन धर्म का संस्थापक माना जाता है।
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubts, please let me know