राजकुमार गुप्ता 
आगरा। भगवान परशुराम जी महाराज किसी धर्म जाति वर्ण या वर्ग विशेष के आराध्य ही नहीं बल्कि वे समस्त मानव मात्र के आराध्य हैं। इन्होंने सनातन संस्कृत के वैभव को बढ़ाने का कार्य किया है। 

इसी विचार के साथ अपनी बात आगे बढ़ाते हुए डॉ उमेश शर्मा ने कहा कि हमने भगवान परशुराम के उन महान कार्यों को भुला दिया जिनकी वजह से वे चिरंजीवी भगवान बने। वे किसी समाज विशेष के आदर्श नहीं है, संपूर्ण हिन्दू समाज के हैं। उन्हें राम के काल में भी देखा गया और कृष्ण के काल में भी क्योंकि भगवान परशुराम चिरंजीवी हैं। उन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था। कम लोगों को ही यह ज्ञात होगा कि दक्षिण भारत के आदिवासी, भील, करात जनजातियों को वैदिक वाङ्मय से परिचित करा कर पूरे दक्षिण देश में इन निरक्षर और पिछड़े आदिवासी समूहों को शिक्षा के साथ-साथ गैर-परंपरागत अस्त्रों का आविष्कार कर तपस्वी श्री परशुराम ने दीक्षित किया और दक्षिण से उत्तर तक आर्यावर्त को एकीकृत किया।

मुझे बड़ी हैरानी होती है,जब हमारे विप्रबंधु भगवान श्री परशुराम को अपना आदर्श पुरुष घोषित कर उनकी शोभा यात्रा निकालते हैं और नाना प्रकार के आयोजन करते हैं। मुझे लगता है कि फरसाधारी इस महातपस्वी को एक वर्ग विशेष के आदर्श तक सीमित कर हमने भगवान परशुराम के उन महान कार्यों को भुला दिया है, जिनकी वजह से वे भगवान बने। हमने भगवान परशुराम से गरीबों के कल्याण की कोई सीख तो ली नहीं उल्टे अपने इन आडंबरों के जरिए सनातनियों के एक दूसरे वर्ग क्षत्रियों का परशुराम के अकारण तिरस्कार और बैर भाव मोल ले लिया। जबकि भगवान परशुराम जी महाराज किसी धर्म जाति वर्ण या वर्ग विशेष के आराध्य ही नहीं बल्कि वे समस्त मानव मात्र के आराध्य हैं। इन्होंने सनातन संस्कृत के वैभव को बढ़ाने का कार्य किया है। भगवान परशुराम जी ने एक युद्ध में 21 प्रजा शोषक, धर्मांध, और आताताई राजाओं का संहार किया था, लेकिन दुष्प्रचार के कारण यह बताया गया कि इन्होंने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया था। बृाह्मणों से इतर दूसरे वर्ग और जाति समूहों में हमारे इस मिथ्याडंबरों से भगवान परशुराम की सर्वव्यापी छवि को भी ठेस पहुंची है।

 आजीवन क्षत्रिय विरोध, परशुराम लक्ष्मण संवाद और पिता की आज्ञा से माता का वध जैसी किंवदंतियों के अलावा कितना जानते हैं हम भगवान परशुराम के बारे में, क्यों परशुराम के नाम पर छाती फुलाने वाले ब्राह्मणों के पूजा घरों में उनकी तस्वीर, मूर्ति और शास्त्र विधान नहीं होते। क्यों उत्तर भारत के सनाड्य, गौड़, कान्यकुब्ज जैसे ब्राह्मण वर्ग भृगुवंशीय भगवान परशुराम की जाति भार्गव ब्राह्मणों में रोटी बेटी का संबंध नहीं रखना चाहते ?मीडिया रिपोर्ट्स से अनुसार इन सबके पीछे कारण क्या हैं। दरअसल उत्तर भारत के ब्राह्मणों के लिए भगवान परशुराम उनके क्रोध और बहुप्रचारित क्षत्रियत्व के प्रतीक मात्र हैं जिनसे अल्पबुद्धियों को यह गर्व करने का अवसर मिल जाता है कि हम भी कोरे ब्राह्मण नहीं फरसाधारी हैं और दंडित करने में सक्षम हैं। भगवान श्री परशुराम का गुणगान उनका शौक है, शोभा की चीज है। पूजा वंदन नहीं, यह सब बड़ा हास्यास्पद है, लेकिन भगवान परशुराम के कार्यों के प्रति समाज की अज्ञानता ही इसका कारण है। आज हम बेशक परशुराम को अपना पूर्वज पुरुष घोषित कर गर्व का अनुभव करें, लेकिन सत्य यह है कि परशुराम को भगवान कहने और मानने वाले दक्षिण देश के पिछड़े आदिवासी समूह थे। जिन्होंने इस महातपस्वी की उनके समाज के प्रति की गईं महान सेवाओं के बदले में उतनी ही श्रद्धा से उन्हें भगवान मान लिया। इस बार इनकी जयंती 22 अप्रेल को मनाई जा रही है। इसी महत्वपूर्ण विचार के साथ भगवान परशुराम जी के जन्मोत्सव की सभी देशवासियों को मंगलकारी शुभकामनाएं।

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