(अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *राजेंद्र शर्मा* का यह आलेख ले सकते हैं। सूचित करेंगे, तो खुशी होगी।)

*बाबरी मस्जिद : महाध्वंस के तीस साल*
*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*

"अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है, तो बेशक इस देश के लिए एक भारी खतरा पैदा हो जाएगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए एक खतरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के अनुपयुक्त है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।''

डा. आंबेडकर की उक्त चेतावनी अब, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के तीस साल पूरे होने पर, एकदम अचूक भविष्यवाणी साबित होती नजर आ रही है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद यानी उन्मादी भीड़ेें जुटाकर और देश भर में अभियान चलाकर, चार सौ साल से ज्यादा पुरानी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद गुजरे इन तीन दशकों में बेशक, दो काम हुए हैं। पहला तो यही कि मस्जिद ढहाकर, ''उसी'' जगह पर अस्थायी मंदिर तो अगले ही दिन कायम किया जा चुका था; पर ''वहीं बनाएंगे'' का लक्ष्य पूरा होने के बाद अब, ''मंदिर भव्य बनाएंगे'' का लक्ष्य पूरा होने के करीब है। सारे अनुमानों के अनुसार, 2024 में होने वाले आम चुनाव से पहले-पहले मंदिर बनकर खड़ा हो जाएगा बल्कि चालू भी हो जाएगा, ताकि सत्ताधारी पार्टी अपने चुनाव प्रचार मेें ''वहीं मंदिर बना दिया'' को भुना सके।

वास्तव में, जब से सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अजीबो-गरीब फैसले के जरिए, बाबरी मस्जिद की जगह पर ही मंदिर बनाने का रास्ता बनाया है, तब से '' मंदिर बनाने'' के श्रेय को अपने खाते में डालने की उतावली में, वर्तमान सरकार को अपनी भूमिका ''बनवाने'' तक ही रखने के दिखावे का पर्दा तक रखना मंजूर नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी ने खुद दुनिया भर में लाइव दिखाए गए आयोजन में, 2020 की 5 अगस्त को मंदिर के लिए बाकायदा जजमान के रूप में भूमि पूजन किया। उसके बाद से उनके प्रतिनिधि के रूप में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो बार-बार अयोध्या के दौरे करते ही रहे हैं, इस बार के गुजरात के चुनाव के लिए प्रचार का अपना आखिरी बड़ा अभियान शुरू करने से पहले प्रधानमंत्री भी, दीवाली पर अयोध्या पहुंचे थे, पूजा करने के साथ ही साथ, मंदिर के निर्माण की प्रगति का भी जायजा लेने के लिए। वास्तव में अगले साल के आखिर में होने जा रहे मंदिर के उद्घाटन या प्राण प्रतिष्ठा पूजा के केंद्र में नरेंद्र मोदी नहीं हों, तो ही सब को अचरज होगा।

इस मंदिर को बनाने में सरकार की सक्रियता इतनी गहरी है कि इस मंदिर में यह सुनिश्चित करने के फेंसी आइडिया के पीछे कि हर साल रामनवमी के दिन सूर्य की किरणें इस मंदिर में बनाई जा रही राम की मूर्ति के माथे पर सीधे पड़ें, देश की कई सरकारी वैज्ञानिक शोध संस्थाओं को जोत दिया गया है। इन संस्थाओं से, दर्पणों तथा लैंसों की बहुत ही जटिल संरचना के जरिए, यह अजूबा कर के दिखाने का तकाजा किया जा रहा है, जबकि सभी जानते हैं कि यह काम बड़ी आसानी से इसके लिए लगाए गए दर्पण के कोण को हाथ से बदलने के, मामूली फेरबदल से किया जा सकता है। लेकिन, वैसी मामूली व्यवस्था का, चमत्कारी भव्यता वाला प्रभाव कहां होगा! और यह सब उस शासन द्वारा किया जा रहा है, जिसने हिंदू धार्मिक कर्मकांडों को बाकायदा सरकारी काम-काज का नियमित हिस्सा ही बना दिया है। यहां तक कि नये संसद भवन के शिखर पर लगाए जाने वाले राष्ट्र–चिन्ह को भी बाकायदा, प्रधानमंत्री द्वारा विधि-विधान से पूजा किए जाने के बाद ही, स्थापित किया गया। इस तरह, बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद गुजरे तीन दशकों में कानूनी तौर पर न सही, पर व्यवहार में करीब-करीब वैसा "हिंदू राज'' कायम किया जा चुका है, जिसके खिलाफ आंबेडकर ने चेतावनी दी थी।

इसी सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि इन तीन दशकों में, चार सौ साल पुरानी मस्जिद को एलान कर के गिराने के जुर्म के लिए, शब्दश: किसी को भी कोई सजा नहीं दी गयी है। लंबी-लंबी जांचों और उनसे भी लंबी कानूनी सुनवाइयों के बाद, कुल मिलाकर नतीजा यही निकला कि—बाबरी मस्जिद को किसी ने भी नहीं ढहाया था! बेशक, सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक बेढ़ब फैसले में इसी सिलसिले को उत्कर्ष तक पहुंचा दिया। उसने, एक ओर तो बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने को एक सोचा-समझा और बिना किसी कारण के किया गया ''जुर्म'' ठहराया और दूसरी ओर, इस जुर्म के लिए जिम्मेदार पक्ष को ही इस जुर्म के जरिए खाली करायी गयी जमीन, मंदिर बनाने के लिए सौंप दी। बेशक, उक्त सुप्रीम फैसले में विडंबनाएं और भी कई थीं, जैसे मस्जिद की चार सौ साल से ज्यादा की ठोस मौजूदगी के, उसकी जमीन पर दावे के मुकाबले, मंदिर पक्ष के वहां कभी मंदिर रहा होने के ''विश्वास'' के दावे को, ज्यादा वजनदार मानना, आदि। इस सुप्रीम निर्णय के बाद तो मस्जिद के ध्वंस से जुर्म के सारे मामलों को दफ्नही नहीं कर दिया जाता, तभी हैरानी होती!

फिर भी, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को पूरी तरह इकतरफा नजर आने से बचाने के लिए, दो काम जरूर किए थे। पहला, 'पूर्ण न्याय' का तकाजा बताते हुए, उसने किसी और जगह पर मस्जिद का निर्माण करने के लिए, एक उपयुक्त जगह पर 5 एकड़ जमीन देने का शासन को आदेश दिया। दूसरे उसने, अयोध्या के विवादित स्थल को छोड़कर, देश भर में सभी धार्मिक स्थानों की 15 अगस्त 1947 की स्थिति को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से बनाए गए 1994 के ''धार्मिक स्थल कानून'' के महत्व पर बहुत जोर दिया था और उसे इतिहास में जो हुआ होगा, उसके बदलों से देश के वर्तमान को सुरक्षित करने के लिए बहुत-बहुत जरूरी तथा उपयोगी बताया था। लेकिन, जैसा कि आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था, उक्त निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अगर सोचा था कि मंदिर पक्ष के मनचाहे निर्णय के बाद, हिंदू राज कायम करने की मुहिम इतने पर ही रुक जाएगी, तो यह उनकी भारी गलती थी। नीचे लुढ़कती हुई चीज जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, और रफ्तार ही पकड़ती जाती है।

काफी अर्से चली खींच-तान के बाद, उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने अयोध्या से बाहर, पांच एकड़ जमीन तो मस्जिद के लिए आबंटित जरूर कर दी, पर उस पर किसी मस्जिद के बनने की शुरूआत के तो दूर, अभी तो निर्माण की किसी ठोस योजना या निर्णय तक का कोई अता-पता नहीं है। मौजूदा निजाम के रहते वहां मस्जिद बन जाए, तो यह अचरज की ही बात होगी। इससे कहीं महत्वपूर्ण यह कि इस थोड़े से अर्से में ही ''काशी-मथुरा'' के ठीक वैसे ही विवादों को काफी आगे बढ़ाया जा चुका है, जिन्हें अयोध्या की ''झांकी'' के बाद, ''बाकी'' बताया गया था। इसी दौरान काशी में शृंगार गौरी में दैनिक पूजा के अधिकार के दावे के बहाने, ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में जन्मभूमि मंदिर के बहाने ईदगाह मस्जिद, पर कानूनी दावे न सिर्फ पेश गए गए हैं बल्कि विभिन्न स्तरों पर अदालतों ने यह फैसला सुनाने के जरिए कि 1994 का धार्मिक स्थान कानून इस तरह के मामलों की सुनवाई के आड़े नहीं आता है, इन विवादों के और ऐसे ही और भी विवादों के, अयोध्या विवाद की ही तरह, पहले कानूनी विवाद और फिर भीड़ न्याय की दिशा में आगे बढ़ाए जाने का, रास्ता खोल दिया है।

दिलचस्प है कि इसी दौरान, सुप्रीम कोर्ट में उक्त धार्मिक स्थल कानून की वैधता के संबंध में याचिकाएं भी सुनवाई के लिए स्वीकार कर ली गयी हैं, जिनमें यह दलील दी गयी है कि अपने अयोध्या निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के संबंध में जो कुछ कहा है, उसे कानून को वैध ठहराया जाना नहीं कहा जा सकता है। दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने धार्मिक स्थल कानून का दो-टूक तरीकेे के बचाव करने की जगह, गोलमोल रुख ही अपनाया है और इस तरह इन चुनौतियों को बल ही प्रदान किया है। उधर अयोध्या के बाद, मथुरा-काशी भी झांकी ही हैं, यह भी साफ हो चुका है। कर्नाटक में बाबा बुंदनगिरि के मजार में नियमित पूजा की इजाजत देने की मांग समेत, दूसरे अनेक मुस्लिम धार्मिक स्थलों पर बढ़ते दावे, इसी के सबूत हैं कि इस सिलसिले का कोई अंत नहीं है।

कहने की जरूरत नहीं है कि अल्पसंख्यकों, खासतौर पर मुसलमानों के धार्मिक स्थलों पर बहुसंख्यकवादी दावे या उनका तरह-तरह के बहानों या भीड़ के बल पर नष्ट किया जाना, ''हिंदू राज'' कायम किए जाने की ओर भारत के तेजी से धकेले जाने की एक प्रमुख निशानी तो है, लेकिन इकलौती निशानी नहीं है। इसकी एक और महत्वपूर्ण निशानी है मौजूदा सत्ताधारी पार्टी का बढ़ते पैमाने पर खुद को मुस्लिम विरोधी साबित करने के जरिए, हिंदू हितैषी साबित करने की कोशिश करना। गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान अमित शाह का 2002 के नरसंहार के जरिए ''मोदी राज के सबक सिखाने'' का खुल्लमखुल्ला एलान, इसके बढ़ते पैमाने पर नंगई से किए जाने को ही दिखाता है। सभी यह देख सकते हैं कि मोदी की भाजपा हरेक चुनाव में, न सिर्फ मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को खत्म करने की कोशिश करती नजर आती है, बल्कि सायास अपने मुस्लिम विरोध को रेखांकित करने की भी कोशिश करती है, वह चाहे कथित लव जेहाद के खिलाफ कदमों का मामला हो या तथाकथित आबादी असंतुलन पर रोक का।

विधानसभाई चुनाव के पिछले चक्र में उत्तराखंड से शुरू कर के अब समान नागरिक संहिता के वादों को इसी खेल का हथियार बनाया जा रहा है। सत्ता में भाजपायी सरकारें, ''हिंदू राज'' को और नीचे तक ले जाती हैं। अचरज की बात नहीं है कि भाजपा के राज में अब मॉब लिंंचिंग से आगे बढ़कर, मुसलमानों के नरसंहार की पुकारें, आए दिन की चीज हो गयी हैं, जिनके लिए किसी को सजा नहीं मिलती है। हां, सत्ताधारी गुट की ओर से ईनाम जरूर मिलते हैं।

बाबरी मस्जिद के मलबे के नीचे स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा यानी एक शब्द में जनतंत्र को ही दबा दिया है। उसी के मलबे पर अब ''हिंदू राज'' का महल/ मंदिर खड़ा किया जा रहा है। डा. आंबेडकर की यह पुकार क्या हम अब भी नहीं सुनेंगे कि इसे, ''किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए''।

*(लेखक प्रतिष्ठित पत्रकार और ’लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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