महाभारत में किस शक्तिपीठ का उल्लेख मिलता है, जानें शक्तिपीठो के बारे में डॉ सुमित्रा अग्रवाल जी से भाग ५
सेलिब्रिटी वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल
कोलकाता
सिटी प्रेजिडेंट इंटरनेशनल वास्तु अकादमी
यूट्यूब वास्तु सुमित्रा
माँ सिद्धिदा देवी भगवती दुर्गा का नौवां रूप है। वह सिंह पर बैठी है। उनका रूप अग्नि के समान है। इनके तीन नेत्र हैं और ललाट पर चंद्रमा की किरणें हैं। माता ने रत्न जड़ित आभूषण धारण किए हैं। उनके आठ हाथ हैं जिसमें चक्र, तलवार, गदा, ढाल धनुष, तीर, पास और एक सुरक्षात्मक मुद्रा है। माता वैष्णव देवी के दर्शन करने के बाद भक्त यहां आते हैं। प्रचलित मान्यता के अनुसार इसकी मान्यता सभी ५१ शक्तिपीठों से ऊपर है। मंदिर के समीप मार्ग के दोनों ओर मां को चढ़ाने के लिए चोटी वाले दुपट्टे मिलते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में सालू कहा जाता है। भक्त इन सालू को खरीद कर मां को चढ़ाते हैं।
माँ के दर्शन के लिए कहा जाना पड़ता है -
ज्वालामुखी मंदिर हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी में कालीधार पहाड़ियों की तलहटी में स्थित है। जिगेंद्रनगर-नरोगंज में पठान पर, यह ज्वालामुखी रेलवे स्टेशन से २१ किमी, कांगड़ा से ३४ किमी और धर्मशाला से ५६ किमी दूर है। यहां सती को सिद्ध अंबिका और भगवान शिव को उन्मत्त कहा जाता है। अग्नि रूपी ज्योति निरन्तर जलती रहती है। इसे ज्वालामुखी शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता है। यह लौ भक्त समुदाय के बीच भक्ति और आनंद की दाता मानी जाती है।
माँ का कौनसा अंग -
यहां सती माँ की जीभ गिरी थी।
माता के मंदिर के निर्माण से जुड़ी रोचक कथा -
सपनो को पूर्णतया मिथ्या नहीं कहा जा सकता। कई बार सपने में देवियो के देवताओ के दर्शन होते हैं, कई बार कुछ घटनाओ का एहसास होता है जो बाद में घटित भी हो जाता है। इसलिए पहले के राजाओ को अगर स्वप्न में कोई देवता या देवी कोई आदेश देते थे तो वे पूर्ण रूप से उसे सार्थक करने में लग जाते थे। श्री ज्वालामुखी मंदिर के निर्माण के बारे में कहा जाता है कि सतयुग में एक दिन, महाराजा श्री भूमिचंद्र को दिखाई दिया कि भगवान श्री हरिविष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से माता सती की जीभ कटने के बाद धौलाधार पहाड़ी श्रृंखला में गिर गई। महाराज श्री भूमिचंद्र उस स्थान तक पहुँचने में असफल होने पर नगरकोट-कांगड़ा में माता श्री सती नामक एक मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर के निर्माण के कुछ वर्षों के बाद एक आश्चर्यजनक घटना घटी , एक दूधवाले ने महाराज भूमिचंद्र को एक विशेष पहाड़ी से निकलने वाली एक ज्योति के बारे में सूचित किया, जो ज्योति की तरह लगातार जल रही थी। महाराज श्री भूमिचंद्र ने स्वयं उस स्थान का दौरा किया और बात को सही पाया। तब उन्होंने घने जंगल में मंदिर का निर्माण करवाया।
इस मंदिर में कौन पूजा करते है -
प्रार्थना और पूजा करने का काम भोजका जाति के दो अत्यंत पवित्र ब्राह्मणों पंडिता श्रीधर और कमलापति को सौंपा गया था। इन भोजक ब्राह्मणों का पैतृक परिवार आज भी ज्वाला माता की पूजा करता है।
मंदिर का जीर्णोद्धार -
जीर्णोद्धार की अपनी बहुत विसेसता है। आगे कभी जीर्णोद्धार पर अवस्य चर्चा करेंगे। हर व्यक्ति की अपने जीवन कल में किसी न किसी मंदिर का जीर्णोद्धार करना ही चाहिए। महाभारत के उल्लेख मिलता है की पांडवों ने भी इस स्थान का दौरा किया और मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।
मंदिर में जाने से क्या दिखेगा -
ज्वालामुखी मंदिर में नौ ज्योतियों (लौ) के रूप में देवी के दर्शन हो सकते हैं, ऐसा माना जाता है कि यह नव दुर्गा शक्ति हैं जिन्होंने सभी चौदह ब्रह्मांडों का निर्माण किया है। मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है बल्कि उसकी लौ हमेशा मौजूद रहती है। ये ज्वालाएं अनंत काल से प्रज्वलित हैं। लपटों की संख्या ३ से १३ के बीच होती है।
ज्योतियो का उल्लेख -
१। महाकाली के रूप में मुख्य ज्योति मंदिर के सामने ही एक चांदी की आला में सुशोभित है।
२। इसके थोड़ा नीचे महाशक्तिदायिनी भगवती अन्नपूर्णा की ज्वाला स्थित है, जो अनाज और अन्य सामग्रियों के अंतहीन भंडार की आपूर्ति करने वाली मानी जाती हैं।
३, ४ । चंडी माता की ज्वाला जो शत्रुओं का नाश करने वाली मानी जाती है और महा माता हिंगलाज की ज्वाला जो सभी रोगों का नाश करने वाली है, दूसरी ओर है।
५। पाँचवीं लौ विंध्यवासिनी देवी की है जो दुःख और शोक से मुक्ति प्रदान करती हैं।
६। महालक्ष्मी जो धन और समृद्धि की दाता हैं।
७। देवी अम्बिका जो इन शक्तियों के दर्शन के अलावा ज्ञान और विद्या प्रदान करती हैं।
८। परम पवित्र अंजना माता, जो प्रदान करती हैं आयु और सुख पर भी सुशोभित है।
९। धुमा देवी।
यहां दर्शन और मन्त्र जपने से दर्शनार्थियों को वाक्सिद्धि प्राप्त होती है। जब भी कोई तीर्थ यात्रा करे चाहे वो ज्योतिर्लिंगों की यात्रा हो या चार धाम या शक्ति पीठो की यात्रा मंत्र जप निरंतर करते रहे।
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