*हिन्दी : "ई" की जगह "ऊ" की मात्रा*
*(आलेख : बादल सरोज)*
अमित शाह की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति की रिपोर्ट ने भाषा के संबंध में अब तक की मान्य, स्वीकृत और संविधानसम्मत नीति को उलट कर पूरे देश पर जबरिया हिंदी थोपने का रास्ता खोलने की आशंका साफ़–साफ़ सामने ला दी है। इस समिति की दो सिफारिशें इस इरादे को स्पष्ट करती हैं। इस रिपोर्ट की एक सिफारिश कहती है कि "देश में तमाम तकनीकी तथा गैर–तकनीकी संस्थानों में पढ़ाई तथा अन्य गतिविधियों का माध्यम हिंदी होनी चाहिए और अंगरेजी को वैकल्पिक बनाया जाना चाहिए।" इसी रिपोर्ट की एक अन्य सिफारिश सरकारी विज्ञापनों के बजट का 50 प्रतिशत हिंदी भाषी विज्ञापनों के लिए आरक्षित करने की है। इस सिफारिश के "इंडिया दैट इज भारत" पर क्या प्रभाव होंगे, इन पर नजर डालने से पहले इसके असली मंतव्य को देखना सही होगा।
क्या यह गुजराती भाषी अमित शाह की अध्यक्षता वाली समिति की इस घोषणा के पीछे उछाल लेता हिन्दी प्रेम है? नहीं। यह मसला जितना दिखता है, उतना भर नहीं है। इरादा हिंदी भाषा के सम्मान का बिलकुल नहीं है, बल्कि जैसा कि, इस राज में, अब तक तिरंगे सहित लगभग सारे स्थापित प्रतीकों और साझी विरासतों के साथ किया गया है, वही हिंदी के साथ करने का है। उसमें "ई" की जगह "ऊ" की मात्रा लगाने का है ; हिंदी के हिन्दुत्वीकरण का है। यह, जैसा कि दावा किया गया है, अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म करने के लिए नहीं है, उस बहाने, उसके नाम पर हिंदी के वर्चस्व को स्थापित करने की कोशिश है। जर्मनी के नाज़ियों और इटली के फासिस्टों से एक भाषा - एक नस्ल - एक संस्कृति - एक धर्म की भौंडी समझदारी के आरएसएस नजरिये को अमल में लाने की है। हिंदी - या और किसी भी भाषा को - किसी धर्म विशेष से बांधना उसके धृतराष्ट्र-आलिंगन के सिवा और कुछ नहीं। ऐसे तत्वों की एक सार्वत्रिक विशेषता है : वे न हिंदी ठीक तरह से जानते है, न हिंदी के बारे में कुछ जानते हैं ।
अमित शाह की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति को तो हिंदी के बारे में भी कुछ नहीं पता। इन्हें नहीं मालूम कि हिंदी एक ताज़ी–ताज़ी आधुनिक भाषा है -- अमीर खुसरो ने हिंदवी के रूप में इसकी शुरुआत की थी। उसके बाद के वर्षों में, अनेक सहयोगी भाषाओं, बोलियों के जीवंत मिलन से यह अपने मौजूदा रूप में आयी है। जब तक इसका यह अजस्र स्रोत बरकरार है, जब तक इसकी बांहें जो भी श्रेष्ठ और उपयोगी है, का आलिंगन करने के लिए खुली हैं, जब तक इसकी सम्मिश्रण उत्सुकता बनी है, तब तक इसकी जीवंतता है। हिंदी खुद बहुवचन - हिन्दियां - है। बिहार की हिंदी, मध्यप्रदेश की हिंदी नहीं हैं, उत्तर प्रदेश के अवध की हिंदी और बिहार के मगध की हिंदी ही नहीं, खुद उप्र के बघेलखण्ड, ब्रज और रूहेलखंड की हिन्दियाँ अलग–अलग हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा और भिलाई की हिन्दियाँ भिन्न हैं। इसका संस्कृतीकरण करके इसे क्लिष्ट और समझ से परे बनाना खुद इस भाषा और इसे बोलने वालों के साथ मजाक है। बिना समुचित तैयारी के मध्यप्रदेश में चिकित्सा शिक्षा को हिंदी में दिए जाने की बेतुकी घोषणा और उसके लिए जारी की गयी कौतुकी भाषा में तैयार पाठ्यपुस्तकों ने खुद हिंदी को हास्यास्पद बनाया है। एक ऐसा विज्ञान, जिसकी सारी तकनीकी जानकारियों का उदगम और स्रोत हिंदी से बाहर का है, उसका जबरिया हिन्दीकरण कहीं नहीं ले जाने वाला। जो इस कोर्स में पढ़कर निकलेंगे, उन्हें कोई डॉक्टर नहीं मानने वाला। इसी तरह का एक मजाक यूपी में ए से अर्जुन और बी से बलराम पढ़ाने का हो रहा है।
इस गिरोह को नहीं पता कि भारत दुनिया का सबसे बहुभाषी देश है। यह वह देश है, जहां "कोस कोस में पानी बदले / चार कोस में वाणी" की लोकोक्तियाँ सिर्फ हिंदी में नहीं, सभी भाषाओं में मिलती हैं। अकेले संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषायें हैं। इस अनुसूची का प्रावधान करते हुए संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ये सभी भाषायें राष्ट्रभाषा - नेशनल लैंग्वेज - हैं। सब बराबर है। भारत की भाषाओं के ताजे अध्ययन के अनुसार देश में 1652 मातृभाषाएं हैं। (इंडिया : ए कंट्री स्टडी बाय जेम्स हेल्टमैन और रॉबर्ट एल वोर्डेन (1995)। 1921 की जनगणना ने चार भाषा परिवारों की 188 भाषाओं को सूचीबद्ध किया था। इसके अलावा कोई 19500 बोलियां हैं। दुनिया की, अब तक की प्रचलित और व्यवहार में लाई जाने वाली प्राचीनतम भाषाओं में शामिल तमिल और संथाली भारत की ही भाषाएँ हैं। भाषाओं को लेकर हुए सभी अध्ययन, संख्या में कुछ फर्क के साथ, इन्हे 200 से कम नहीं बताते। यह विविधता भारतीय भूखंड की समृद्धि और सामर्थ्य है।
भाषा रातों रात नहीं बनती। उसका विकास हजारों वर्षों तक चली प्रक्रिया से होता है। भाषा सिर्फ संवाद, कम्युनिकेशन का माध्यम या कैरियर की सीढ़ी नही होती। भाषा व्यक्ति और मनुष्यता को संस्कारित करती है, उसकी परवरिश करती है। भाषा समाज के प्रति दृष्टिकोण को ढालती है। वह एक तरह से एक टूल होती है, समझने–बूझने का, विश्लेषण करने का और बाद में उसे संचित कर औरों तक पहुंचाने का। इस तरह भाषा व्यक्ति को लोक और समाज से जोड़ती है - जो फिर से उस लोक और समाज की चेतना में वृध्दि करता है। मातृभाषा इसीलिए सर्वश्रेष्ठ भाषा मानी जाती है। पढ़ाने, लिखाने के लिए भी और उस लोक के लायक इंसान बनाने के लिए भी। इसलिए नहीं कि वह उसे घुट्टी में मिली होती है, बल्कि यह उसे उस जगत से जोड़ती है - उस जगत की अब तक की संचित ज्ञान परंपरा से जोड़ती है, जहां उसकी उत्पत्ति हुई है और 99 % मामलों में जहां उसे जीवन गुजारना है। भाषा - मातृभाषा - सिर्फ शिल्प, व्याकरण में नही होती, वह कहानियों में, लोरियों में, मुहावरों में, पहेलियों में भी होती है। वह व्यक्ति को बनाती है। उसका व्यक्तित्व संवारती है। उसे इंसान जैसा बनाती है। हिंदी के आरम्भिक बड़े साहित्यकार भारतेन्दु हरिशचंद्र अपने काव्य "निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल" कहते समय इसी के महत्त्व को बता रहे होते हैं। ध्यान रहे, वे निज भाषा की बात कर रहे हैं - सिर्फ एक भाषा की नहीं। हर भाषा का अपना उद्गगम है, सौंदर्य है, आकर्षण है, उनकी मौलिक अंतर्निहित शक्ति है । बाकी को कमतर समझने की यह आत्ममुग्धता दास भाव भी जगाती है, संकीर्ण और विस्तारवादी भी बनाती है। यह खुद हिंदी को अनेक समृद्ध बोलियों से अलग करता है। उसका तत्समीकरण कर उसे उसके स्वाभाविक गुण से वंचित कर खास तरह के सामाजिक–राजनीतिक वर्चस्व का रास्ता तैयार करता है।
अंग्रेजी की जगह हिंदी का वर्चस्व कायम करना, भारत के नागरिकों की निज भाषा - मातृभाषा - का अधिकार उनसे छीनने जैसा है। यही "एक संस्कृति, एक अलां, एक फलां" वाला वर्चस्वकारी सोच है, जो एक भाषा से प्यार और उसके मान का मतलब बाकी भाषाओं का धिक्कार और तिरस्कार मानता है। किसी एक भाषा को उत्कृष्ट मानकर बाकी भाषाएँ निकृष्ट मानता है। श्रेष्ठता बोध – दूसरे को निकृष्ट मानकर रखना एक तरह की हीन ग्रंथि है - मनोरोग है। आरएसएस का भारतीय भाषाओं के प्रति इसी तरह का रुख रहा है। यह उनकी उत्तरी भूभाग - मनुस्मृति में दर्ज आर्यावर्त - को ही भारत मानने की समझदारी है। यह विविधता में एकता के सार और राज्यों के संघ के रूप दोनों को नकारने के लिए हिंदी को सीढ़ी बनाने की कोशिश है - मगर यहीं तक रुकेगी नहीं। संघ के हिसाब से उनके एक नस्ल और धर्म - आर्य - की भाषा संस्कृत है। वह देव भाषा, जिसे पढ़ने–लिखने–बोलने का हक़ सिर्फ द्विजों, उनमे भी पुरुषों, का है। बाकी सब राक्षसी, असुर भाषाएँ हैं।
तात्कालिक रूप से अमित शाह समिति की सिफारिशें केंद्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी जैसे उच्च तकनीकी संस्थानों के हिन्दीकरण के जरिये भारत की उस विराट आबादी को शिक्षा और इस तरह नौकरियों के अवसर और अधिकार से वंचित करने की हैं। मगर अपने अंतिम निष्कर्ष में यह एक ख़ास तरह के सामाजिक वर्चस्व की कायमी की है। इसलिए हिंदी भाषा भाषियों के लिए भी जरूरी हो जाता है कि वे संसदीय समिति के सुझाव के बाकी इरादों पर आने से पहले इसमें खुद हिंदी और हिन्दुस्तान के लिए निहित खतरों को ठीक ठीक तरह से समझें।
*(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।
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