(अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *बादल सरोज* का यह आलेख ले सकते हैं। सूचित करेंगे, तो खुशी होगी।)
*श्रद्धा के गिद्ध-भोज के लिए जुटान*
*(आलेख : बादल सरोज)*
दिल्ली के महरौली में 27 वर्ष की युवती श्रद्धा वाल्कर के साथ हुयी वीभत्सता ने पूरे देश के इंसानों को सन्न और स्तब्ध करके रख दिया है। उसकी पहले निर्ममता के साथ हत्या की गयी, उसके बाद उसके शरीर टुकड़े–टुकड़े करके अलग–अलग दिन इधर–उधर फेंक दिए गए। हत्यारा - जो श्रद्धा का लिव इन पार्टनर - था, गिरफ्तार कर किया जा चुका है। श्रद्धा नहीं हैं "यत्र नारी पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता" का जाप करने वाले देश में अकेलीl केवल नवम्बर महीने में, अभी तक, इस तरह की 5 वारदातें घट चुकी हैं।
इसी दिल्ली के बदरपुर में एक 22 साल की लड़की आयुषी की पहले निर्ममता से पिटाई की गयी और उसके बाद सीधे सीने में गोली मारकर हत्या करके लाश को ठिकाने लगाने के लिए लाल रंग के सूटकेस में बंद कर उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में यमुना एक्सप्रेस वे पर छोड़ दिया गया। आयुषी का अपराध अपनी पसंद का जीवन साथी चुनना था और उसके साथ यह वारदात अंजाम देने वाला खुद उसका पिता था।
तीसरी वारदात आजमगढ़ के पश्चिम पट्टी गांव की है, जहां दो वर्षों तक साथ रहने वाली साधना प्रजापति को छोड़कर जब उसका पार्टनर विदेश चला गया और इस बीच साधना ने किसी और से शादी कर ली, तो उसके उस कथित पूर्व प्रेमी प्रिंस यादव ने उसे वापस लाने में असफल रहने पर गला दबाकर हत्या कर दी और उसके बाद उसकी देह के 5 टुकड़े कर दिए। कटे हुए हाथ-पांव कुएं में डाल दिए और सिर को गांव से करीब 6 किलोमीटर दूर एक पोखर में फेंक दिया। फिलहाल पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया है।
मध्यप्रदेश में इस तरह की दो घटनाएं घटीं। जबलपुर में 25 साल की युवती शिल्पा झरिया की पहले गला काटकर हत्या की गयी, इसके बाद उसके तीन वीडियो शूट किए गए, जिसमें बिना किसी ग्लानि भाव के उसके हत्यारे कथित प्रेमी अभिजीत पाटीदार ने बाकायदा रनिंग कमेंट्री करते हुए "बाबू स्वर्ग में फिर मिलेंगे" का फेयरवेल सन्देश भी रिकॉर्ड किया है।
मध्य प्रदेश के ही शहडोल में एक पति राम किशोर पटेल अपनी पत्नी सरस्वती पटेल को जंगल में ले गया और कुल्हाड़ी से काटकर उसके टुकड़े–टुकड़े कर दिए। सिर और धड़ को अलग-अलग जगहों पर दफना दिया।
जघन्यता को भी शर्मिन्दा करने वाली यह पाँचों वारदातें इसी नवम्बर महीने की हैं और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अभी इस नवंबर का एक सप्ताह बाकी है। किसी भी सभ्य समाज के लिए एक के बाद एक घट रही यह वारदातें चिंता का विषय होनी चाहिए। खुद के भीतर बढ़ रही सड़न के प्रति फ़िक्र और उससे निजात पाने की बेचैनी का कारण बनना चाहिए। देश भर में इसे लेकर एक बहस छिड़नी चाहिए कि आखिर यह हालत क्यों और कैसे आयी। यह बर्बरता जिसका नतीजा है, उस महिला विरोधी मानसिकता को दूर करने के उपायों की तलाश और जो इस तरह के पुरुष ढाल रही है, उस परवरिश के तरीकों को पूरी तरह बदलने के कदम उठाने के लिए आम राय बनाई जानी चाहिए ; मगर हुआ इससे ठीक उलटा है। बजाय इसके कि यह घिनौना वहशीपन चर्चा में आता, गिद्धों के झुण्ड श्रद्धा के गिद्ध भोज के लिए झपट पड़े और एक 27 साल की युवती की टुकड़े–टुकड़े की गयी देह को अपने विभाजनकारी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का एक जरिया बना लिया। गुजरात के विधानसभा चुनाव और दिल्ली की म्युनिसिपैलिटी के चुनाव अभियान का भी मुख्य मुद्दा बनाकर झंडे पर लगा लिया। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा गुजरात की चुनावी सभाओं में बोलते हुए चेतावनी दे गए कि "अगर उनके नरेंद्र मोदी जैसे सर्वशक्तिशाली नेता नहीं जीते, तो देश भर में आफताब पैदा हो जायेंगे।" दिल्ली तक आते–आते उनके भाषण और गरम हो गए और बिना किसी शर्म–लिहाज के उन्होंने इसे आफताब बनाम राम, आफताब बनाम मोदी बना डाला। दिल्ली की चुनावी सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा कि : "हमें दिल्ली को बचाना है, देश को बचाना है, इसके लिए शक्ति की जरूरत है. हमारे देश को आफताब नहीं चाहिए, भगवान राम चाहिए, मोदी जैसा नेता चाहिए।"
यह अकेले असम के मुख्यमंत्री का प्रलाप नहीं है। यह साम्प्रदायिक की धमन भट्टी से पिघला लावा था, जिसे अकेले दिल्ली के म्युनिसिपल चुनाव में उतारे गए केंद्र सरकार के सभी मंत्रियों, चार मुख्यमंत्रियों, यूपी–बिहार के मंत्री–विधायकों सहित 450 सांसदों और विधायकों के श्रीमुखों से दिल्ली और गुजरात के हर गली–मोहल्ले–गांव तक फैलाया जा रहा है, ताकि केंद्र और राज्य सरकारों की हर मोर्चे पर विफलताओं पर पर्दा डालकर अकेले इस बहाने ध्रुवीकरण की लहर पैदा कर उसमें अपनी नैया पार की जा सके। अपने पिता के हाथों मारी गयी बदरपुर की आयुषी, मारने के बाद टुकड़े–टुकड़े की गयी आजमगढ़ की साधना प्रजापति, शहडोल की सरस्वती पटेल, जबलपुर की शिल्पा झरिया की इसी तरह की वहशियाना हत्याएं इन गिद्धों के किसी काम की नहीं है ; क्योंकि उन्हें मारने वालों के नाम रामकिशोर, अभिजीत पाटीदार, प्रिंस यादव है, आफताब पूनावाला नहीं है। श्रद्धा या उसी की तरह की यातनापूर्ण मौत की शिकार हुए देश की बेटियों के साथ उनकी कोई हमदर्दी नहीं है -- अगर होती तो वे नवम्बर के अब तक गुजरे तीन सप्ताहों में शिकार बनी इन बाकी लड़कियों पर भी बोलते। अपनी पार्टी की अगुआई में चलने वाली प्रदेश सरकारों में स्त्रियों की लगातार बढ़ती दुर्दशा को रोकने के लिए कुछ करते।
और जैसी कि इस हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता की लाक्षणिक विशेषता है, वे एक साथ सारे मोर्चे खोलते हैं। इस बार भी धर्म के आधार पर साम्प्रदायिकीकरण के साथ ही वे अपने सामाजिक एजेंडे को भी तेजी से आगे बढ़ा रहे है। श्रद्धा के बहाने सिर्फ वे अपनी चुनावी गोटी सर करने के लिए ध्रुवीकरण भर नहीं कर रहे हैं, अपने पूरे कुनबे और उसके भोंपुओं को महिलाओं को मध्ययुगीन दड़बे में वापस धकेलने का माहौल बनाने के काम पर भी लगा दिया है। "लिव इन" को धिक्कारा जा रहा है और भले हाल ही में सुप्रीम कोर्ट तक ने इसे वयस्क नागरिकों का अधिकार बताते हुए जायज करार दिया हो, लिव–इन को ही सारे हादसों की एकमात्र वजह बताया जा रहा है। लिव–इन में रहने वाले जोड़ों को मकान किराए पर न देने और इस तरह एक प्रकार के सामाजिक बहिष्कार की यलगार लगाई जा रही। बिना पिता की मर्जी और परिवार की सहमति के शादी करने वाली लड़कियों पर फटकार सुनाई जा रही हैं। सदियों की मुश्किल लड़ाईयों के बाद हासिल किये गए शिक्षा, नौकरी और सार्वजनिक जीवन में बराबरी के महिलाओं के अधिकार पर मनु की तोप तानी जा रही है। कन्यादान और कर्मकाण्ड से होने वाली शादियों का माहात्म्य उस देश को बताया जा रहा है, जहां पारम्परिक शादियों के बाद महिलाओं की क्या दशा है, इसे दोहराने की जरूरत नहीं है। खुद सरकारी आंकड़े इन विवरणों से भरे हुए हैं।
श्रद्धा, आयुषी, साधना, शिल्पा और सरस्वती को इंसाफ मिलना चाहिए। अपराधियों को जल्द से जल्द अधिकतम संभव सजा मिलनी ही चाहिए। जो इन लगभग एक जैसी हत्याओं के अपराध की जघन्यता की बजाय अपराधी का धर्म देखकर अपना रुख तय करते हैं, वे भी शरीके जुर्म हैं। उन्हें बेनकाब और अलग–थलग किया जाना चाहिए। यह पक्का किया जाना चाहिए कि उन्नाव और बदायूं के ऐसे ही अपराधियों की तरह वे छूट नहीं जाएंगे। हाथरस और कठुआ के वहशियों की तरह सम्मानित नहीं किये जायेंगे। किंतु सिर्फ इतना भर काफी नहीं होगा। यह सब करते हुए दिमाग में बैठे उस रोग से भी लड़ना होगा, जो स्त्री को इंसान के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। महिलाओं को फिर से अँधेरे में धकेल सती युग में पहुँचा देने की साजिशों से भी जूझना होगा।
*(लेखक ’लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।
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