शिक्षक दिवस पर विशेष- संस्मरण- ऐसे थे मेरे गुरु मुंशी सीताराम यादव
डॉ ०भगवान प्रसाद उपाध्याय
ब्यूरो रिपोर्ट। बात सन उन्नीस सौ अड़सठ उनहत्तर के सत्र की है जब कक्षा पांच की परीक्षा एकदम सन्निकट आ गई थी और मेरे दाहिने पैर में बीचो-बीच गलका महारानी का प्रकोप बढ़ गया था। मैं चलने फिरने में पूरी तरह असमर्थ हो गया था, तब परीक्षा के दिन मेरे गुरु मुंशी सीताराम यादव मुझे कंधे पर बिठाकर परीक्षा केंद्र तक ले गए थे और बहुत आग्रह करके उन्होंने सबसे आगे अलग बैठाया। क्योंकि मैं एक कदम भी चल फिर नहीं सकता था, इसलिए डिप्टी साहब की मेज के पास अलग बोरी पर मुझे बैठने की व्यवस्था दी गई। किसी प्रकार एक पैर पर खड़े होकर मैं उनसे कॉपी और प्रश्न पत्र प्राप्त कर लेता था। फिर उसे लिखकर वही जमा कर देता था, निर्धारित अवधि से एक घंटे पूर्व मेरे सभी प्रश्न पत्र प्रत्येक विषयों के हल हो गए थे और काफी जमा हो गई थी। श्रद्धेय गुरु मुंशी सीताराम यादव जी ने मेरे पास एक गिलास और एक लोटा पानी भी रख दिया था कि प्यास लगने पर उसे कहीं जाना ना पड़े। परीक्षा समाप्त होने के बाद वह मुझे एक साइकिल के केरियल पर पीछे बिठाकर घर तक छोड़ने भी आए थे। परीक्षा केंद्र पर ही वहां एक अध्यापक ने उन्हें साइकिल की सुविधा दी थी और यह कहा था कि वे साइकिल उनके घर आकर कल सुबह ले लेंगें। मुंशी सीताराम यादव मेरे गांव के ही थे और जब मैं कक्षा दो में था तो उनका स्थानांतरण मेरे विद्यालय में हुआ, वह घर से पन्द्रह किलोमीटर दूर किसी विद्यालय में कार्यरत थे बाद में मेरे गांव से एक किलोमीटर दूर पचदेवरा प्राथमिक विद्यालय में वे आए और कुछ ही दिनों में सभी बच्चों के लोकप्रिय अध्यापक बन गए। यद्यपि वे बहुत अनुशासन प्रिय थे और बच्चों को दंडित करने में भी कभी नहीं हिचकते थे। आवश्यकता पड़ने पर छात्रों के अभिभावक से मिलकर उसकी शिकायत भी करते थे। पढ़ाई और अनुशासन के मामले में उनका कोई जवाब नहीं था। मेरे विद्यालय के प्रधानाचार्य पंडित छत्रपति पांडेय जी उन्हें बहुत स्नेह करते थे क्योंकि मुंशी सीताराम यादव के विद्यालय में आने के बाद छात्रों की संख्या खूब बढ़ गई थी और विद्यालय में सांस्कृतिक व शिक्षणेत्तर गतिविधियों में भी संतोषजनक वृद्धि हुई थी। यही कारण था कि वार्षिकोत्सव के समय मेरे विद्यालय का नाम सदैव सबसे आगे रहता था। उस वर्ष तो चमत्कार ही हुआ जब कई विद्यालयों की संयुक्त रूप से योगासन की परीक्षा हुई और उसमें मुझे प्रथम स्थान मिला। वह बहुत प्रफुल्लित और गदगद हो उठे उन्होंने मुझे अपनी ओर से एक ड्राइंग बाक्स उपहार स्वरूप दिया और घर आकर मेरी माँ से मेरी प्रशंसा करके साथ ही आग्रह करके कि पढ़ाई में भी इसको पीछे नहीं रहना है, मां के हाथ से मिठाई खा कर ही बिदा हुए थे। जब कक्षा पांच का परिणाम आया तो मुंशी जी सबसे पहले मेरे घर आए और मेरे पिताजी पंडित अवध नारायण उपाध्याय जो उन दिनों मिर्जापुर में कार्यरत थे और घर पर आए हुए थे , मुंशी जी ने आकर बताया कि आज हमारे विद्यालय का नाम आपके बेटे ने बहुत ऊंचा कर दिया है। कुल चौदह विद्यालयों की संयुक्त परीक्षा में सर्वाधिक अंक लाकर इसने आपके साथ साथ हम सब का भी सिर ऊंचा कर दिया है। मुंशी सीताराम यादव बहुत ही सुयोग्य और कर्मठ अध्यापक थे। वे प्रतिदिन पैदल ही विद्यालय जाते थे और रास्ते में जितने भी छात्रों के घर पढ़ते थे बारी-बारी से सब के यहां निरीक्षण भी करते थे। कौन पढ़ रहा है या कौन खेलकूद में ज्यादा मन लगा रहा है। प्रति वर्ष की वार्षिक परीक्षा सन्निकट आते ही अधिक कठोर हो जाते थे और पाठ याद करवाने के लिए वे समय का भी ध्यान नहीं रखते थे। कभी-कभी विद्यालय की छुट्टी हो जाने के बाद भी घंटे भर बच्चों को रोक कर उनका पाठ याद करवाते और विलंब होने के कारण बच्चों को घर-घर तक पहुंचाते भी थे। मुंशी जी की लोकप्रियता उन दिनों पूरे विकासखंड करछना में फैल चुकी थी और शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारी जब भी आते, मुंशी जी की प्रशंसा अवश्य करते थे। एक बार डिप्टी साहब का विद्यालय में निरीक्षण था तब मैं कक्षा चार का विद्यार्थी था और वह विद्यालय में पहुंचते ही बच्चों से पूछ बैठे कोई बच्चा बता सकता है कि सम और विषम संख्या में क्या अंतर है। सभी लोग अकस्मात मौन हो गए किंतु मैंने डरते हुए हाथ उठाया तो मेरी ओर आशा भरी नजरों से उन्होंने देखा और कहा - हां बेटा खड़े हो जाओ, बताओ...मैंने कहा - गुरुजी जो संख्या दो के भाग देने पर विभक्त हो जाए वह सम संख्या कहलाती है और जो दो का भाग देने पर ना कटे अर्थात उसमें शेष रह जाए वह विषम संख्या कहलाती है। डिप्टी साहब बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने निरीक्षण पंजिका में यह अंकित किया कि इस विद्यालय की शिक्षा व्यवस्था सर्वोत्तम है। प्राथमिक विद्यालय में उन दिनों अनेक प्रकार के सांस्कृतिक आयोजन भी हुआ करते थे कभी लेजिम का अभ्यास तो कभी कसरत का अभ्यास तो कभी अंत्याक्षरी प्रतियोगिता और कभी-कभी चित्रकला व निबंध प्रतियोगिता भी मुंशी जी स्वयं आयोजित कराते और बच्चों को समय-समय पर पुरस्कृत करते रहते। उस समय पठन-पाठन का ऐसा वातावरण उत्पन्न हो गया था कि अन्य गांव के बच्चे भी उस विद्यालय में प्रवेश के लिए सदैव प्रयासरत रहते। मुंशी जी की कठोर अनुशासनप्रियता के चलते वहां से निकले हुए सभी छात्र कालेज पहुंचने के बाद भी अनुशासित ढंग से रहते थे और इस बात का उन्हें सदैव ध्यान रहता था कि अपने पूर्व गुरु जी का सम्मान बनाए रखें। शिक्षक दिवस के अवसर पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मुझे बहुत हर्ष हो रहा है कि वे शरीर से भले ही हम सबके बीच में नहीं है किंतु स्मृतियों में आज भी उनका उन्नत ललाट चेहरा और स्वक्छ धवल धोती कुर्ता सम्मुख आ जाता है। एक आदर्श शिक्षक की मूर्ति साकार हो जाती है। धन्य है ऐसे गुरु जिन्होंने अपने छात्रों को पुत्रवत स्नेह दिया और शिक्षा के क्षेत्र में सदैव उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे, एक बार पुनः विनम्र श्रद्धांजलि।
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubts, please let me know