मथुरा।। आज ‘‘मधुबनी लोक चित्रकला में श्रीकृष्ण’’ विषयक कार्यशाला के द्वितीय दिवस पर निर्देशिका सुश्री भारती दयाल ने बताया कि लोकप्रिय लोककथाओं के अनुसार, मधुबनी चित्रों की उत्पत्ति का पता रामायण के युग से लगाया जा सकता है। सीता विवाह के अवसर पर चित्रकारों नें शहर को दैवीय प्रतीकों के साथ सुन्दर चित्रों से सजाया और इसलिए इन चित्रों को मिथिला पेंटिंग के रूप में भी जाना जाता है। ये पेंटिंग उनकी आशाओं, सपनों और विचारों को दर्शाती है।
कई वर्ष पहले पेंटिंग गीली सफेद बनी दीवारों या गाय के गोबर से लीपी दीवारों पर खींची जाती थी। चित्रकारों ने पौधों, फूलों, पत्तियों और कार्बानिक पदार्थों जैसे प्राकृतिक स्त्रोतों से रंग बनाए। हरे रंग बेल से, लाल रंग-चंदन या कुसुमा फूल से, चावल से सफेद, कालिख या जले हुए जौ के बीज से काला, हल्दी से पीला, पलाष के फूल से नारंगी, पीपल की छाल से गुलाबी, नील नीला, गोबर से हल्का भूरा रंग तैयार कर इस कला का अंकन किये जाने की प्राचीन परम्परा रही है। कला को अधिक दिनों तक सुरक्षित रखने एवं चित्रों को दीमक और कीड़ो से बचाने हेतु रंगों में नीम का रस और मुल्तानी मिटटी के साथ कागज का संरक्षण किया जाता है। सुश्री भारती दयाल एवं उनके सहयोगियों द्वारा संस्थान के प्रवेश द्वार की दीवारों पर मधुबनी पेंटिंग का अंकन किया जा रहा है। कार्यशाला का संयोजन ब्रज संस्कृति संग्रहालय की क्यूरेटर श्रीमती ममता द्वारा किया जा रहा है।
इस प्राचीन कला को सीखने के लिए स्थानीय विद्यालय हनुमान प्रसाद धानुका बालिका इण्टर कॉलेज से 12 छात्राएं एवं अमरनाथ डिग्री कॉलेज से 10 छात्राएं आयीं। कार्यशाला के दौरान शिल्पी रानी, केशव, मनोज, रघुनंदन, रेखादेवी, रेखारानी, करवेन्द्र सिंह, श्रीकृष्ण गौतम, उमाशंकर पुरोहित, राजकुमार शुक्ला, विनोद झा, भगवती, जुगल शर्मा, ब्रजेश कुमार, रमेशचंद्र, शिवम आदि संस्थान कर्मी उपस्थित रहे।
राजकुमार गुप्ता
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