जौनपुर। विश्व पर्यावरण दिवस समीक्षा: बुल्डोजर बनाम टैंकर
जौनपुर। मई-जून की भीषण गर्मी में गत वर्ष में रोपित पौधे सिंचाई के अभाव में दम तोड़ रहे हैं, लेकिन सरकारी महकमा जिले स्तर से लखनऊ तक आगामी वर्ष के वृक्षारोपण की कागज़ी कार्य योजना बनाने में मशगूल हैं। 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस से ही वृक्षारोपण की फोटो सोशल, प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में दौडनी शुरू हो जायेगी जो आगामी जुलाई - अगस्त तक जारी रहेगी। मंत्री, सांसद, विधायक, अफसर और आम आदमी आगामी 60 से 70 दिनों तक वृक्षारोपण करके पुण्य प्राप्त करने की होड़ में शामिल हो जायेंगे। लेकिन पिछले 60 से 70 दिनों (अप्रैल - मई-जून) की भीषण गर्मी में जब इन्सानों और पालतू जानवरों के लिए हीट एडवाइजरी जारी की जा रही थी। उस समय वन विभाग सहित ऐसे विभाग जिनके पास टैंकर हैं। शायद ही पौधों को सींचते दो चार फोटो वीडियो सोशल मीडिया, प्रिन्ट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में देखने को मिल पायें। अब बड़ा सवाल यह है कि वृक्षारोपण को पुण्य का दर्जा देने वाले लोग सूखते पौधों की सिंचाई का पुण्य लेने - देने में क्यों पिछड़ जाते हैं। प्रदेश की प्रत्येक सरकार वृक्षारोपण में पिछली सरकारों के रिकार्ड ध्वस्त करने में अपनी बहादुरी समझती है। पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश में जो पौधरोपण का लक्ष्य 30 करोड़ था उसे इस वर्ष बढ़ाकर 35 करोड़ कर दिया गया है। ऐसे समय में जबकि महत्वपूर्ण यह होता है कि गत वर्ष के रोपित पौधों की सिंचाई करके दम तोड रहे पौधों को जीवित रखने की जरूरत है। इस कार्य के प्रति सरकार और समुदाय दोनों में उदासीनता देखने को मिलती है। वैसे पौधरोपण के इतने बड़े लक्ष्य को पूरा करने के लिए व्यवहारिक रूप से पौधों को सूखना भी जरूरी है नहीं तो अगर पौधे बचते गये तो आगामी पौधरोपण के लिए जमीन ही खाली नहीं बचेगी। रोपने और सूखने के साल भर चलने वाले इस चक्र में जितने चरण हैं- नर्सरी की जमीन तैयार करना,थैले में मिट्टी भराई,बीज बोना, पौधों की शिफ्टिंग, रोपण के लिए गढ्ढे की खुदाई फिर रोपण आदि चलते रहने चाहिए क्योंकि प्रत्येक चरण में भुगतान करने की जरूरत पड़ती है। अगर लगाए पौधे बच ही जायें तो फिर इस प्रक्रिया के बीच के इतने चरण का क्षरण हो जायेगा। विभाग के लिए पौधों को जीवित रखने से ज्यादा इन चरणों को जीवित रखना आवश्यक है। पौधों की सिंचाई और सुरक्षा की जिम्मेदारी स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी पर छोड़ने की बात की जाती है लेकिन व्यावहारिक रूप से देखा जाये तो आबादी के आस पास की ज्यादातर ज़मीन कृषि कार्य हेतु होती है ज्यादातर वृक्षारोपण दूर दराज के क्षेत्रों में होता है जहां केवल टैंकर के माध्यम से पानी पहुंचाया जा सकता है। इतने वृतांत का निष्कर्ष इतना ही है कि टैंकर की उपलब्धता के आधार पर ही वृक्षारोपण कराया जाये या रोपित पौधों की संख्या के आधार पर टैंकरों की संख्या बढ़ा दी जायें। अगर ईमानदारी से पौधों को बचाने के लिए टैंकरों की उपलब्धता बढ़ी तो सच मानिए बुल्डोजर के बाद टैंकर भी आज का दूसरा पूजनीय हथियार बन जायेगा। यह संयोग की बात है कि प्रदेश के मुखिया का जन्म दिन 5 जून1972 को है। 5 जून 1972 को पर्यावरण दिवस मनाये जाने की नींव भी संयुक्त राष्ट्र संघ ने आज के 50 वर्ष पूर्व ही रखी थी। पौधों को जीवित रखने के लिए - वन विभाग द्वारा पर्याप्त टैंकर उपलब्ध कराया जाये। - रोपित पौधों की शत् प्रतिशत जियो टैगिंग कराई जाये। - जी पी एस के माध्यम से पौध स्थल पर तय कार्य योजना के अनुसार टैंकर की उपस्थिति सुनिश्चित की जाये।- टैंकर निर्धारित स्थान पर पौधे को सींचने में कितना पानी खर्च कर रहे हैं इसकी आनलाइन मानीटरिंग की जाए- अधिकारियों और राजनैतिक कार्यपालिका स्थलीय निरीक्षण सुनिश्चित किया जाये।- जन समुदाय पर वन विभाग अपने नैतिक आचरण का प्रभावकारी उपयोग करके सामुदायिक सहभागिता को प्राप्त करें। सामुदायिक सहभागिता कहने से ज्यादा आचरण से प्रभावित होती है।- मिडिया केवल पौधरोपण की जो श्रृंखला 5 जून से पूरे अगस्त तक चलाती है उससे पूर्व 1 अप्रैल से 5 जून तक पौधों की सिंचाई को भी प्रमोट करने का प्रयास करें। सूखते पौधों की सिंचाई पौधरोपण से भी पुण्य कार्य का कार्य है।- 5 जून को आगामी पौधरोपण का लक्ष्य बताते समय गत वर्ष में कितने पौधे जीवित बचाये गये इससे जन समुदाय को अवगत कराया जाए। लेकिन ऐसा न किये बिना पौधों को लगाने और सिंचाई के बिना सुखवाने का खेल पब्लिक के पैसे की बर्बादी है। पौधों को बचाने पर केंद्रित कार्यक्रम निश्चित रूप से भावी पीढ़ी के लिये सुन्दर भविष्य का निर्माण करेगा।
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