मुर्मू के चयन से खींच दी बड़ी लकीर

द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर भाजपा नीत एनडीए ने विपक्ष के सामने एक बड़ी लकीर खींच दी है। उसने लगातार यह साबित किया है कि उसके लिए अपने संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय का ध्येय, समाज के अंतिम व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान लाना, सिर्फ नारा नहीं हकीकत है। दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले रामनाथ कोविंद के बाद अब आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू को  राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाना महज संयोग नहीं वरन एक सुविचारित कदम है। इस एक कदम से भाजपा ने समाज एक बड़े वर्ग को बड़ा संदेश दिया है। इसमें महिलाएं, दलित और आदिवासी समाज शामिल हैं।

राष्ट्रपति पद के लिए द्रोपदी मुर्मू का चयन भाजपा की अंत्योदय की धारणा के बिल्कुल अनुरूप है। वह संदेशप्रद और मूल्यपरक राजनीति में फिट बैठती हैं। राष्ट्रपति भवन में उनकी उपस्थिति सांकेतिक रूप से इस तर्क को मजबूत करेगी कि भाजपा ने दलितों और वंचितों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए राजनीतिक संस्थाओं का सही मायने में लोकतंत्रीकरण किया है। यही नहीं इस चयन से इस नैरेटिव को और मजबूती मिली है कि भाजपा दलित, आदिवासी और गरीबों को राजनीति को मुख्य धारा से जोड़ने की सही मायनों में हिमायती है। राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा सहित भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मुर्मू की आदिवासी छवि, उनकी सरलता और साधारण पृष्ठभूमि को पार्टी ने गंभीरता से लिया था।

हालांकि, इसका सीधा निष्कर्ष निकालना कि राष्ट्रपति पद के लिए मुर्मू की उम्मीदवारी का इस्तेमाल पार्टी द्वारा आदिवासी मतदाताओं के बीच जगह बनाने के लिए किया जा रहा है,  यह दो कारणों से व्यवहारिक रूप से गलत है। पहला, भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर पहले से ही आदिवासी मतदाताओं की पहली पसंद रही है। लोकनीति-सीएसडीएस के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन से पता चलता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 44 फीसद आदिवासियों ने भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया। दूसरी ओर, कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर केवल 31 फीसद एसटी वोट प्राप्त करने में सफल रही। भाजपा के लिए आदिवासी वोटरों का भारी उत्साह और समर्थन केवल कुछ आदिवासी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है। पार्टी को राज्य स्तर पर भी हुए स्थानीय चुनावों में भी आदिवासी समुदायों का भारी जनसमर्थन मिला है।

दूसरा, हाल के वर्षों में आदिवासियों के मतदान में असाधारण वृद्धि हुई है। लोकनीति सीएसडीएस-2019 का सर्वेक्षण दर्शाता है कि उस चुनाव में 72 फीसद आदिवासियों ने मतदान किया, जो औसत राष्ट्रीय मतदान (62 फीसद) से बहुत अधिक था। इसका सीधा सा मतलब है कि प्रचलित धारणाओं के विपरीत, आदिवासी समुदाय अब राजनीति रूप से अलग-थलग नहीं हैं। अब वह चुनावी राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेता है और उनके इस राजनीतिक उत्साह का लाभ निश्चित ही भाजपा को मिला है। 

मुर्मू की देश के सर्वोच्च पद के लिए उम्मीदवारी, भाजपा की पीड़ितों, शोषितों और वंचितों के कल्याण की राजनीति के दो महत्वपूर्ण पहलुओं को रेखांकित करती है। मसलन, भाजपा अब केवल मध्यवर्गीय, सवर्ण, शहरी आधारित हिंदू पार्टी नहीं रह गई है। उसने पिछले कुछ वर्षों में सही अर्थों में खुद को एक प्रभावपूर्ण राष्ट्रीय पार्टी के रूप में तब्दील किया है। पार्टी ने प्रभावी तरीके से सभी सामाजिक समूहों, जातियों और समुदायों के बीच अपने जनाधार का विस्तार किया है। विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि भाजपा ने भारतीय समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों, अति-दलितों, निम्न ओबीसी, और अति पिछड़े आदिवासियों को संगठित करने के लिए गंभीर प्रयास किए हैं। इन हाशिए पर पड़े लोगों को राष्ट्र की मर्यादा और गौरव के नाम पर एकजुट कर हिंदुत्व की विचारधारा के साथ जोड़ा गया है।

इस सोशल इंजीनियरिंग ने पार्टी की दो तरह से मदद की है। पहली यह कि भाजपा समाज के सबसे कमजोर वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में दिखती है। इसके साथ ही हिंदू एकता को मजबूती मिलने से उसे वैचारिक लाभ होता है। जिससे वैचारिक व राजनैतिक विरोधियों से मुक़ाबला करने में मजबूती मिलती है। मुर्मू का नामांकन हिंदुत्व आधारित निम्न वर्गीय राजनीति को दर्शाता है।

भाजपा के प्रति समाज के निम्न वर्ग का झुकाव का दूसरा पहलू यह है कि बीते आठ सालों में, बीजेपी ने एक धारणा विकसित की है कि तथाकथित अंग्रेजी-शिक्षित गिरोह के कुलीन वर्ग विशाल बहुमत के भारतीय गरीबों के हाशिए पर जाने के लिए जिम्मेदार हैं। मोदी ने खुद को चाय बेचने वाले के रूप में या बड़े सपने, दूरदर्शी सोच वाले चौकीदार के रूप में पेश कर आज के दौर में जरूरी दिख रही राजनीति में प्रभावी योगदान दिया है। खुद को साधारण चाय वाले, पिछड़ा पेश करने के दो राजनीतिक फायदे हैं। जिसका इस्तेमाल पिछली सरकारों द्वारा गरीबों के कल्याण प्रति असंवेदनशील ठहराने के लिए किया जाता है। राहुल गांधी को शहजादे (राजकुमार) के रूप में वर्णित करना हो या नेहरू को एक कुलीन ब्रिटिश समर्थक प्रधानमंत्री के रूप में चित्रित करना इसका सटीक उदाहरण हैं। साथ ही राष्ट्रपति के कार्यालय सहित अन्य राजनीतिक संस्थानों को क्रियाशील बनाकर उसकी महत्ता को फिर से परिभाषित किया है। राष्ट्रपति को अब रबर स्टैंप के रूप में नहीं देखा जाता है, जिसे एक मूक पर्यवेक्षक के रूप में दिए गए निर्देशों का पालन करना होता है। इसके बजाय, उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी एक विशेष पहचान कायम कर समाज के उत्थान में एक सक्रिय भागीदार के रूप में कार्य करे।

इस बात को रेखांकित करता राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का 3 जून को अपने पैतृक गांव परौंख में दिया गया भाषण बेहद प्रासंगिक है। राष्ट्रपति ने कहा कि जब नरेंद्र मोदी ने एक गरीब परिवार में पैदा हुए उनके जैसे साधारण से व्यक्ति को राष्ट्र के सर्वोच्च पद की जिम्मेदारी देने की पहल की तो वह अभिभूत हो गए। यहां यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि कोविंद ने न केवल पीएम मोदी को उन्हें राष्ट्रपति बनाने के लिए धन्यवाद दिया, बल्कि सक्रिय रूप से उनकी समाज के निम्न वर्ग के कल्याण  की मंशा को भी उजागर किया।

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हिलाल अहमद

एसोसिएट प्रोफेसर- सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज


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