*इतिहास के आईने में एच आई वी एड्स*

*डॉ कामिनी वर्मा*
एसोसिएट प्रोफेसर ( इतिहास विभाग )
काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
ज्ञानपुर, भदोही 

*एड्स* का नाम लेते ही दिमाग मे मृत्यु के समान भयावह तस्वीर चलचित्र सदृश चलने लगती है । जिससे ग्रसित व्यक्ति के पास मृत्यु का वरण करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता। समाज भी उसे अपराधी समझते हुए उपेक्षित कर देता है, फलतः रोगी कुंठित होकर तिल तिल जीते हुए असमय काल कवलित हो जाता है। एड्स ( AIDS ) अर्थात *एक्वायर्ड एम्यून डिफीसिएनसी सिंड्रोम* का अभिप्राय ऐसी बीमारी का समूह जो वायरस के संक्रमण से उत्पन्न होती है और इसमें शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता नष्ट हो जाती है। यानी एड्स किसी एक रोग का नाम नहीं बल्कि विभिन्न प्रकार के संक्रमण का समूह है । जो संक्रमित व्यक्ति के शरीर के  *प्रतिरक्षण तंत्र*  को पूरी तरह से कमजोर करके ही प्रकट होता है। रोगी की प्रतिरोधक क्षमता इतनी कम हो जाती है कि वह साधारण सी बीमारी का सामना नहीं कर पाता क्योंकि बाह्य जीवाणुओं के आक्रमण से अपनी रक्षा करने में असमर्थ व अशक्त हो जाता है और थोड़ा सा भी शारीरिक श्रम यहां तक कि सर्दी जुकाम का सामना करने में भी असमर्थ हो जाता है।
एड्स का वायरस बहुत कमजोर  *रिट्रो ग्रुप*  का होता है। इसे एच. आई. वी. एड्स के नाम से भी जाना जाता है। इसका विकास मनुष्य के शरीर के अंदर ही हो सकता है। शरीर के बाहर शुष्क वातावरण में  यह नष्ट हो जाता है । डिटर्जेंट  या रोगाणुनाशक  कैमिकल में भी अधिक दिन नही जीवित नहीं रह पाता।

एड्स का वायरस बहुत कमजोर  *रिट्रो ग्रुप*  का होता है। इसे एच. आई. वी. एड्स के नाम से भी जाना जाता है। इसका विकास मनुष्य के शरीर के अंदर ही हो सकता है। शरीर के बाहर शुष्क वातावरण में  यह नष्ट हो जाता है । डिटर्जेंट  या रोगाणुनाशक  कैमिकल में भी अधिक दिन नही जीवित नहीं रह पाता।
आधुनिक शोध से जानकारी मिलती है कि एच. आई. वी. वायरस मनुष्य के रक्त में जीवित रह पाता है।यह लार तथा आंसू में भी पाया जाता है। रक्त शरीर का महत्वपूर्ण द्रव होता है जो शरीर के अंगों को जोड़ने के साथ वाहक का कार्य भी करता है।
एड्स का वायरस रक्त में विद्यमान श्वेत रक्त कणिकाओं को अपनी गिरफ्त में ले लेता है । *लिंफो साइटस* के नाम से जानी जाने वाली टी कोशिकाएं शरीर मे एन्टीबॉडी बनाने का कार्य करते हुए शरीर पर आक्रमण करने वाले जीवाणुओं से लड़कर उन्हें समाप्त कर देती है । इसलिए उन्हें *भक्षक कोशिकाओं*  के नाम से भी जाना जाता है। एड्स वायरस इन्हीं रक्त कोशिकाओं को संक्रमित कर शरीर से प्रतिरक्षक क्षमता समाप्त कर देता है और संक्रमित व्यक्ति आसानी से विभिन्न रोगों से ग्रसित हो जाता है। शरीर में प्रवेश करने के बाद यह वायरस तुरंत अपना प्रभाव नहीं दिखाता । अतः रोगी अपने आप को स्वस्थ महसूस करता है। वायरस वर्षों तक शांत रहकर अपनी संख्या में वृद्धि करता है। पर्याप्त संख्या हो जाने पर रोग के लक्षण व प्रभाव दिखाई पड़ने लगते हैं। लगातार बुखार व खांसी रहना, दस्त, तीव्रता से वजन घटना, आलस, भूख न लगना, रात्रि में पसीना आना, शरीर में दाने पड़ना, गर्दन, काँख व जांघो की ग्रंथियों में सूजन एड्स के सामान्य लक्षण हैं। मष्तिष्क में प्रवेश करके यह वायरस मानसिक क्रियाओं को बाधित कर देता है और व्यक्ति मानसिक रोगों से भी पीड़ित हो जाता है।

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