उतरौला (बलरामपुर)
रमजान में रोजा-नमाज और कुरआन पढ़ने के साथ जकात और फितरा देने का भी बहुत महत्व है। जकात इस्लाम के 5 स्तंभों में से एक है। रमजान के महीने में ईद की नमाज से पहले फितरा और जकात देना हर हैसियतमंद मुसलमान पर फर्ज होता है।
*आइए जानते हैं फितरा और जकात क्या होता है*।
रमजान इस्लामिक कैलेंडर का नौवां महीना होता है। इस साल रमजान का पवित्र महीना 3 अप्रैल से शुरू हुआ है। रमजान को 'कुरआन का महीना' भी कहा जाता है। क्योंकि इसी महीने में पैगंबर मोहम्मद के जरिए कुरआन उतारा गया था। रमजान में रोजा-नमाज और कुरआन की तिलावत (कुरआन पढ़ने) के साथ जकात और फितरा (दान या चैरिटी) देने का भी बहुत महत्व है। जकात इस्लाम के 5 स्तंभों में से एक है।
इस्लाम के मुताबिक, जिस मुसलमान के पास भी इतना पैसा या संपत्ति हो कि वो उसके अपने खर्च पूरे हो रहे हों और वो किसी की मदद करने की स्थिति में हो तो वह दान करने का पात्र बन जाता है। रमजान में इस दान को दो रूप में दिया जाता है, फितरा और जकात।
*आइए जानते हैं फितरा और जकात क्या होता है*
*क्या है जकात*(*दान*)
इस्लाम में रमजान के पाक महीने में हर हैसियतमंद मुसलमान पर जकात देना जरूरी बताया गया है। आमदनी से पूरे साल में जो बचत होती है, उसका 2.5 फीसदी हिस्सा किसी गरीब या जरूरतमंद को दिया जाता है, जिसे जकात कहते हैं। यानी अगर किसी मुसलमान के पास तमाम खर्च करने के बाद 100 रुपये बचते हैं तो उसमें से 2.5 रुपये किसी गरीब को देना जरूरी होता है।
यूं तो जकात पूरे साल में कभी भी दी जा सकती है, लेकिन वित्तीय वर्ष समाप्त होने पर रिटर्न फाइल करने की तरह ज्यादातर लोग रमजान के पूरे महीने में ही जकात निकालते हैं। मुसलमान इस महीने में अपनी पूरे साल की कमाई का आकलन करते हैं और उसमें से 2.5 फीसदी दान करते हैं। असल में ईद से पहले यानी रमजान में जकात अदा करने की परंपरा है। यह जकात खासकर गरीबों, विधवा महिलाओं, अनाथ बच्चों या किसी बीमार व कमजोर व्यक्ति को दी जाती है।
*ज़ेवरात की कीमत के हिसाब से दें जकात*
महिलाओं या पुरुषों के पास अगर ज्वैलरी के रूप में भी कोई संपत्ति होती है तो उसकी कीमत के हिसाब से भी जकात दी जाती है। लेकिन जो लोग हैसियतमंद होते हुए भी अल्लाह की रज़ा में जकात नहीं देते हैं, वो गुनाहगारों में शुमार है।
*किसे देनी होती है जकात*
अगर परिवार में पांच सदस्य हैं और वो सभी नौकरी या किसी भी जरिए पैसा कमाते हैं तो परिवार के सभी सदस्यों पर जकात देना फर्ज माना जाता है। मसलन, अगर कोई बेटा या बेटी भी नौकरी या कारोबार के जरिए पैसा कमाते हैं तो सिर्फ उनके मां-बाप अपनी कमाई पर जकात देकर नहीं बच सकते हैं, बल्कि कमाने वाले बेटे या बेटी पर भी जकात देना फर्ज होता है।
जकात के बारे में पैगंबर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया है, 'जो लोग रमजान के महीने में जकात नहीं देते हैं, उनके रोजे और इबादत कुबूल नहीं होती है, बल्कि धरती और जन्नत के बीच में ही रूक जाती है।
*क्या है फितरा*
फितरा वो रकम होती है जो खाते-पीते, साधन संपन्न घरानों के लोग आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को देते हैं। ईद की नमाज से पहले इसका अदा करना जरूरी होता है। इस तरह अमीर के साथ ही गरीब की साधन संपन्न के साथ ईद भी मन जाती है। फितरे की रकम भी गरीबों, बेवाओं व यतीमों और सभी जरूरतमंदों को दी जाती है।
फितरा माह-रमजान में ही तकसीम किया जाता है। मौलाना बरकत अली बताते हैं कि फितरे की रकम तय नहीं होता है। फितरा का रकम एक किलो 6 सौ 94 ग्राम से लेकर दो किलो 45 ग्राम गेंहू के मूल्यों की दर से फितरा का रकम तय होता है। इसलिए अलग-अलग क्षेत्रों में फितरा का रकम अलग-अलग तय किये जाते हैं। फितरा हर बालिग, नाबालिग औरत, मर्द, बुजुर्ग मुसलमान पर वाजिब है। उन्होंने बताया कि जैसे दौलत का शुद्धिकरण जकात अदा कर होता है। इंसानी जिस्म का सदका रोजा होता है। वैसे ही रोज़ा का शुद्धिकरण फितरा होता है। माह-ए-रमजान के रोजा रखने में कोई नुक्स (गलती) हो सकता है उसी गलती का सुधार के लिए कुछ तय रकम फितरा का रकम ईद की नमाज अदा करने से पहले गरीबों, जरुरतमंदों, यतीमों में तकसीम की जाती है। इसके पीछे सोच यही है कि ईद के दिन कोई खाली हाथ न रहे, क्योंकि यह खुशी का दिन है।
*जकात और फितरे में फर्क*
जकात और फितरे में बड़ा फर्क ये है कि जकात देना रोजे रखने और नमाज पढ़ने जैसा ही जरूरी होता है। फितरे के बारे में मौलाना बरकत अली ने बताया कि जकात में 2.5 फीसदी देना तय होता है जबकि फितरे की कोई सीमा नहीं होती। इंसान अपनी हैसियत के हिसाब से कितना भी फितरा दे सकता है।
अल्लाह ताला ने ईद का त्योहार गरीब और अमीर सभी के लिए बनाया है। गरीबी की वजह से लोगों की खुशी में कमी ना आए इसलिए अल्लाह ताला ने हर संपन्न मुसलमान पर जकात और फितरा देना फर्ज कर दिया है।
असग़र अली
उतरौला
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