असगर अली की रिपोर्ट
*फाग गीतों पर अब नहीं गूंजती ढोलक की थाप*
उतरौला(बलरामपुर) दौर बदला तो पर्वों को मनाने का तौर तरीका भी बदल गया।आधुनिकता के चलते पूरे देश के त्यौहारों को मनाने का तरीका ही बदल कर रख दिया है।पहले होली पर्व का महत्व ही कुछ अलग होता था यहां पर होली पर्व पर गाये जाने वाले फाग गीत की पहचान राज्य मे ही नही पूरे देश में एक अलग पहचान रखते थे।होली पर फाग व ढोलक की थाप की जगह अब गली नुक्कड़ व चौराहों पर डीजों की गूंज सुनाई देती है।धीरे धीरे होली के प्रमुख गीत फाग गायन विलुप्त होते जा रहे हैं स्थिति यह है अगर नगरों और शहरों की बात छोड़ दी जाए तो अब ग्रामीण अंचलों में भी फाग गीतों व गायन की धुन सुनाई नहीं देती है।होली का हुड़दंग तीन दिन तक चलता था क्या गांव क्या शहर चारो ओर फाग गीतों की गूंज सुनाई देती थी लेकिन समय के साथ साथ होली मनाने का तौर तरीका भी बदल गया है।तीन दिन तक चलने वाला होली का हुड़दंग अब कुछ घंटों तक ही सीमित रह गया है।होली पर्व पर शाम होते ही ग्रामीण अंचलों मे जगह जगह फाग गीतों के लिए अलग से व्यवस्था की जाती थी नगाड़े और ढोलक की थाप सुनकर लोग अपने घरों से निकलने के लिए मजबूर हो जाते थे।और एक साथ बैठकर पारंपरिक गीतों की ऐसी महफिल जमाते थे कि राह चलने वाले राहगीर भी कुछ पल के लिए ठहर जाने को विवश हो जाते थे।अब न तो यह टोलियां दिखती हैं और न ही ऐसे नगाड़े व ढोलक वादक दिखाई देते हैं।यह परंपरा भी अब विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई है।फिलहाल ग्रामीण अंचलों मे कुछ जगह यह परंपरा अभी बनी हुई है लेकिन उनमे भी अब वह बात नहीं है जो पहले हुआ करती थी क्योंकि आधुनिकता की चकाचौंध व बाजार वादी संस्कृति की वजह से फाग गायिकी की परंपरा मात्र सिमट कर रह गई है।
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