*पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री के नाम एक चिट्ठी*
माननीय पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री जी आपको सादर अभिवादन! हम कुशल से हैं लेकिन शायद आप सकुशल नहीं हैं। आप तो आस्तिक हैं, जानते ही हैं सभी की कुशलता और अकुशलता 'ऊपर वाले' के हाथ मे होती है। इन पर अपना वश नहीं होता है। बाबा तुलसीदास भी कहते हैं-
*हानि लाभ जीवन मरण। यश अपयश विधि हाथ।*
आदरणीय! अब आप पूर्व होकर न जाने कैसा अनुभव कर रहे होंगे! लेकिन मुझे आपके पदनाम में 'पूर्व' शब्द देखकर पीड़ा हुई। यह पीड़ा तब और गहरी हो गई जब कल के समाचार पत्र की सुर्खियों में पढने को मिला कि आपको उत्तर प्रदेश के नए मंत्रिमंडल के शपथ वाले मंच पर *नए भारत के भाग्य विधाता मोदी जी* के पास फटकने नहीं दिया गया। आपकी व्यथा कितनी गहरी रही होगी कि आपको प्रधानमंत्री का प्रोटोकॉल भी याद नहीं रह सका। हाय रे दुर्भाग्य! *आँखों के तारे को इतना जल्दी आँखों का कीचड़ बना दिया गया!*
सर! आपके पास पूरे पाँच साल माध्यमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग रहे। आप विधान परिषद में नेता सदन भी रहे। आपकी हैसियत कभी भी किसी टुटपुंजिए मंत्री के जैसे नहीं रही। आप इतने ऊँचे आसन पर विराजमान थे कि आपको अपने शिक्षक भाई कीड़े मकोड़े जैसे दिखते रहे होंगे तभी तो आप का ध्यान कभी उनकी ओर नहीं गया। हमें इसका मलाल नहीं था कि आपका ध्यान हमारी ओर नहीं गया लेकिन आपका इतने ऊँचे आसन से नीचे गिरना हम जैसे शिक्षको को बड़ा पीड़ा दे गया। भले ही आप पद पाकर हृदयहीन हो गए लेकिन हम शिक्षक ही रहे इसलिए हृदयहीन नहीं हो पाए। हम राजनैतिक दलों के जैसे नहीं होते हैं कि आपके पदच्युत होते ही अपना हृदय परिवर्तन कर लेंगे। बल्कि अब तो हमारी पूरी सहानुभूति आपके साथ है।
महोदय! जब आपने उच्च शिक्षा विभाग का दायित्व संभाला तो हम शिक्षकों में खुशी की लहर दौड़ गई थी कि आप निश्चित ही उच्च शिक्षा और इसके शिक्षकों की दशा का काया कल्प कर देंगे। अब शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प कितना हुआ ये तो आप ही जानते होंगे लेकिन हमारे लेखे तो अभी शिक्षा व्यवस्था *'कलप'* ज्यादा रही है।
आप कहते हैं कि आपने विश्वविद्यालय, कॉलेज, अनेक शोधपीठ और न जाने कितने काम नए-नए काम करवा दिए, नई शिक्षा नीति लागू करवा दी, पूरे प्रदेश में सफलतापूर्वक ऑन लाइन कक्षाएँ चलवा दीं। आप कहते हैं तो मैं मान लेता हूँ कि आपने ये सब सफलता पूर्वक कर दिय होगा! मेरा तो बस इतना निवेदन है कि हुजूर! जो विश्वविद्यालय और संस्थान आपने खोले हैं काश! उनमें शिक्षकों की और संसाधनों की व्यवस्था भी जाँच ली होती तो ये संस्थान धन्य हो गए होते। बिना शिक्षक और संसाधनों के संस्थान को चलाने का नुस्खा आप ही के पास है।
आपको रामराज्य की हरियाली ही हरियाली दिखी इसलिए अपने संस्थानों की स्थिति जाने समझे बिना उन पर नई शिक्षा नीति थोप दी। उन्हें इतना भी मौका नहीं दिया कि वे अपने पास नई शिक्षा नीति लायक संसाधन जुटा पाते। अपना नंबर बढ़वाने के आपके इस उत्साह में शिक्षक और विद्यार्थी पिस गए फिर भी आपका दुर्दैव देखिए कि आपके बढ़े नंबर भी काम नहीं आए और आप नीचे धकेल दिए गए।
श्रीमन! आपने ऑन लाइन शिक्षण की सफलता का खूब बखान किया। बिना नेट और स्मार्टफोन के ही लाखों विद्यार्थियों ने ऑनलाइन पढ़ाई कर लिया ऐसा चमत्कार आपके कुशल नेतृत्व में ही सम्भव है। हमें नहीं पता कि आपने कभी ऑनलाइन क्लास ली या नहीं लेकिन मैंने ऑनलाइन शिक्षण किया है जिसमें संसाधनों के अभाव में 80 प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा में भाग नहीं ले पाते हैं। इसलिए हमने कभी आपकी तरह ऑनलाइन कक्षा का डंका नहीं पीटा।
आपने कहा था कि प्रदेश में आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों के 6 कैम्पस खुलेंगे। ये अलग बात है कि उसे खोलने के लिए आपको दूसरा कार्यकाल ही नहीं मिला। सच मानिए! उत्तर प्रदेश के भाग्य में आस्ट्रेलियाई शिक्षा व्यवस्था की रेखा डालते देख मैं तो भाव विभोर हो गया। शायद इनमें ही उलझकर और व्यस्त होकर आप प्रदेश की उच्च शिक्षा में लगभग 90 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों और उनमें शिक्षण करने वाले गुरुओं की सुध नहीं ले पाए। पता नहीं भारत को विश्वगुरू बनाने में इन संस्थानों और इनमें काम करने वाले दरिद्रनारायण गुरुओं की भी कोई भूमिका रहेगी या नहीं!!!!
आपने एक बार कहा था कि आप ऐसी व्यवस्था कर देंगे कि परीक्षार्थी अपनी मूल्यांकित उत्तरपुस्तिकाओं को भी देख सकेंगे। लेकिन आप जो कहते हैं हमेशा उससे आगे की करते रहे हैं। आपके शासन में यह मात्र संयोग रहा या प्रयोग कि अब उत्तरपुस्तिकाओं का औचित्य ही समाप्त हो गया है। क्योंकि अब बहुविकल्पीय प्रश्न उत्तर वाली परीक्षा प्रणाली लागू होती जा रही है। जिसमें उत्तर पुस्तिका का कोई काम नहीं है। उच्च शिक्षा में इस परीक्षा प्रणाली से केवल उत्तर पुस्तिका ही औचित्यविहीन नहीं हुई बल्कि तर्क, विश्लेषण, व्याख्या या अभिव्यक्ति जैसे नागरिक प्रशिक्षण के टूल्स भी समाप्त हो गए। मुझे लगता है कि तर्कशील नागरिक नेताओं के लोकतंत्र की परिभाषा में सेट नहीं होता इसलिए उसे पैदा ही न होने दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
पिछले पाँच वर्षों में आपकी कीर्ति पताका बहुत फहरी। जो आपके काम की गम्भीरता का संकेत है। आप अपने काम को लेकर इतने गम्भीर रहे कि आपकी मुस्कुराहट तक छीन गई। ऐसा नहीं कि आप मुस्कुराते नहीं हैं। मैंने आपकी अनेक मुस्कुराने वाली तस्वीरें अपने पास रखी है लेकिन न जाने क्यों शिक्षकों से मिलने पर आप अधिक तनाव में आ जाते थे। आपकी सुलभ मुस्कान नदारद हो जाती थी। निश्चित ही यह कर्तव्यपालन का दबाव रहा होगा अन्यथा भला एक शिक्षक दूसरे शिक्षकों के स्वागत में मुस्कुराहट की कंजूसी क्यों बरतेगा! शायद आप शिक्षा मंत्री बनने के बाद से मुस्कुराना भूल गए। इसी से आपके पूरे कार्यकाल में शिक्षक भी ढंग से मुस्कुरा नहीं सका।
आपके बिन मांगे शिक्षक हितैषी कार्यों से नए पुराने सभी शिक्षकों को अकथनीय पीड़ा से गुजरना पड़ा। आपने बिना किसी अभ्यर्थी के निवेदन बिना ही ट्रांसफर में भी रोस्टर लगा दिया। अनुरोध था समय सीमा कम करने का लेकिन आपने तो ट्रान्सफर का अवसर ही घटा दिया। अब जो जहाँ जाना चाह रहे हैं वहाँ उनके वर्ग की सीट ही नहीं है। तसल्ली से जहाँ हैं वहीं नौकरी करें। इस तरह आपने NOC, समय की बाध्यता आदि पूरी ट्रांसफर प्रक्रिया को ही अप्रासंगिक बनाकर अध्यापकों को चिंता मुक्त कर दिया। न ट्रांसफर की उम्मीद रहेगी और न तनाव रहेगा। आपके इस महान योगदान के लिए शिक्षक रोम रोम से आपको दुआ दे रहे हैं।
सर! आपने समझा दिया कि न खाता न बही जो शासन कहे वही सही। इसलिए टीजीटी पीजीटी,अस्सिटेंट प्रोफेसर या प्राचार्य की परीक्षाओं को गणित के नियम 'माना कि----'' से शुचितापूर्ण मान लिया और अपनी पीठ थपथपा ली। लोग झींकते रह गए! प्रश्नपत्र की कॉपी दिखाते रह गए लेकिन आप को विश्वास था कि आपके रहते किसी तरह की चोरी सम्भव नहीं है। काश! आपने कभी प्रतियोगियों के दिलों में भी झांकने की कोशिश की होती!
महोदय! आपके स्वामित्व में कई विश्वविद्यालय केवल प्रवेश और परीक्षा का माध्यम भर बनकर एक पूरी पीढ़ी के भविष्य को रसातल में पहुँचाने में लगे रहे फिर भी न जाने किस मजबूरी में आपने उनकी ओर से अपनी आंखें बंद रखीं। क्या आपकी शिक्षक आत्मा इन पर कभी आपसे सवाल नहीं करती होगी? मुझे लगता है कि जरूर करती होगी लेकिन आपकी राजनैतिक मजबूरियाँ आड़े आ जाती होंगी। लेकिन देखिए न इन मजबूरियों को निभाने के बाद भी आपको पद से हाथ धोना पड़ गया। आपने पद भी खोया और प्रदेश भर के अपने शिक्षक साथियों का सम्मान प्यार और विश्वास भी।
हे गुरुश्रेष्ठ! आप भली भांति जानते हैं कि राजनीति में कुछ भी निश्चित नहीं होता नहीं होता। कल तक आप शिखर पर थे आज नीचे पड़े हैं। यही राजनीति का चरित्र है। सूरदास ने तो 15 वी शताब्दी में ही कृष्ण के लिए कह दिया था *हरि हैं राजनीति पढ़ी आए* लेकिन शिक्षकीय मूल्य स्थाई होते हैं। यद्यपि आपने अपने कार्यकाल में इस शिक्षकीय मूल्य को नहीं समझा होगा अन्यथा शिक्षा और शिक्षक की मर्यादा इतनी दलित नहीं होती। इसलिए अब जबकि आप पद मुक्त होकर पुनः शिक्षक की भूमिका में आ गए हैं तो आप उसके मूल्य और मर्यादाओं को भी समझेंगे और शिक्षकों की जिन बुनियादी समस्याओं को आपने उपेक्षित किया, उनके समाधान को क्लिष्ट बनाया उन सबके निराकरण में शिक्षक समाज के साथ खड़े होंगे। जो ध्वंस आपके समय हुआ उस पर निर्माण की भूमिका लिखने में आप ही सहयोग करेंगे। करेंगे न!!!
आपका शुभेच्छु
*उच्च शिक्षा में सेवारत एक शिक्षक*
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