हिन्दीसंवाद के लिए असगर अली की रिपोर्ट

उतरौला(बलरामपुर)
उतरौला में वर्ष 1969 से कांग्रेस पार्टी का ग्राफ गिरना शुरू हुआ जो 2017 के विधानसभा चुनावों तक उठ नहीं सका है।
53 साल से विधानसभा पहुंचने की राह तलाश रही कांग्रेस उतरौला की सियासत में उतार चढ़ाव से जूझती रही है। 1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी ने जीत हासिल किया था। इसके बाद 2017 तक हुए 13 चुनावों में कांग्रेस कभी भी उतरौला विधानसभा सीटें नहीं जीत पाई। 
केंद्र और प्रदेश में लंबे समय तक सत्तासीन रहने के बाद भी उतरौला , की राजनीति में कांग्रेस का दबदबा लंबे समय तक नहीं रह सका।  
1967 के चुनाव में भारतीय जनसंघ ने कांग्रेस को टक्कर दी। 1969 के चुनाव में जनसंघ ने कांग्रेस को शिकस्त दे दी। तब से आज तक कांग्रेस जीत का राह तलाश रही है।1969 के बाद उतरौला विधानसभा में कांग्रेस अपनी वापसी नहीं कर पाई। 
1985 के चुनाव में भाजपा ने पदार्पण किया। इसके साथ ही लोकदल व की अन्य क्षेत्रीय दल भी चुनौती बनकर उभरे। यहां से उतरौला में कांग्रेस का ग्राफ निचले पायदान पर पहुंच गया।
1989 के आरक्षण आंदोलन के बाद जनता दल ने चुनाव में ताल ठोकी। उतरौला में कांग्रेस के वजूद पर खतरा मंडराने लगा। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के नेता व कार्यकर्ता अन्य दलों में अपने भविष्य को तलाशने लगे। 2002, 2007, 2012 व 2017 के चार चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार मुख्य मुकाबलों से बाहर ही रहे।
सिने स्टार राजबब्बर ने उत्तर प्रदेश में जुलाई, 2016 से 2018 तक कांग्रेस की कमान संभाली मगर वह भी संगठन को मजबूती नहीं दे पाए। उनके कार्यकाल में हुए 2017 के विधानसभा चुनाव में भी उतरौला विधानसभा चुनाव में मुकाबले में नहीं आ सकी। 
अपने खोई हुई साख को वापस पाने के लिए 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बाहुबली नेता धीरेंद्र प्रताप सिंह धीरू को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। जो पिछले एक साल से उतरौला विधानसभा क्षेत्र के लोगों के बीच रहकर लगातार संघर्ष कर रहे हैं। धीरू सिंह राजनीति में माहिर होने के साथ ही हिंदू और मुस्लिम धर्मों के सभी जातियों में अच्छी पकड़ रखते हैं। अब यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि वह उतरौला विधानसभा जीत कर 53 सालों से उतरौला में हाशिए पर चल रही कांग्रेस को संजीवनी दे पाएंगे या नहीं।
उतरौला में कांग्रेस का ग्राफ दिनों दिन गिरने का मुख्य कारण यह रहा कि क्षेत्रीय दलों ने जातिगत राजनीति को बढ़ावा दिया, कांग्रेस विचारधारा को लेकर संघर्ष करती रही। 
संगठन से लंबे समय तक जुड़े कार्यकर्ताओं की लगातार उपेक्षा।
संगठन का कमजोर होना, कैडर कार्यकर्ता तैयार नहीं कर पाना।
नारायणदत्त तिवारी के बाद प्रदेश व जनपद में मजबूत नेतृत्व का अभाव।

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