जलालपुर अंबेडकर नगर। बहेरवातर गांव में साइकिल पर रखा एक दो फिट लम्बा लकड़ी का बक्सा दिखा । 
पूछने पर साइकिल चालक ने बताया कि यह रस्सी बनाने की मशीन है । रस्सी बनाने के तरीका जो दिखा वह तो आश्चर्य जनक चीज निकली। गांवदेहात की इंवेन्शन करने की एक शानदार मिसाल! लोगों के घरों की पुरानी धोतियां या साड़ियां; कथरी, लेवा या रस्सी बनाने के काम आती हैं। कथरी सीने वाली महिलायें तो अब कम होती जा रही हैं; पर रस्सी जरूर घर घर में बनाई जाती है। वह बहुत मजबूत नहीं होती पर कामचलाऊ तो होती ही है। यहां जो साइकिल पर लदी रस्सी बुनने की मशीन दिखी, वह बुढ़िया का काता बनाने वाली नहीं, साड़ी से बाकायदा रस्सी बुनने की मशीन थी। उस बक्से में तीन हुक बाहर निकले थे जो बक्से के अंदर गियर सिस्टम से घूमते थे। बक्से के दूसरी ओर खड़ा व्यक्ति एक हेण्डल से बक्से के अंदर एक चक्का घुमाता था और रस्सी बुनने वाला मुख्य कारीगर उन हुकों में साड़ी के तीन लम्बे टुकड़े फंसा कर उनमें एक साथ बल (घुमा) देता था।मशीन के हेण्डल से घूर्णित कर तीन रस्सियां बुनी जाती हैं। बड़ी तेजी से वे टुकड़े रस्सी में तब्दील हो जाते थे। फिर तीनों रस्सियों को एक लकड़ी के गुटके से नेह्वीगेट करते हुये तीनों घूमते गीयर सिस्टम से घूर्णन देकर एक मोटी रस्सी बना देता था। सब कुछ करने में दो चार मिनट से ज्यादा समय नहीं लगता था। अम्बेडकर नगर जिले के भिदूण निवासी संत कुमार ने ग्रामीण आत्मनिर्भरता का जो जंतर बनाया है; शायद अगर वह गांधीजी के जमाने में होता और संत कुमार बापू से मिला होता तो गांधीजी खूब खुश हुये होते । चरखे और खादी जैसा ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सशक्त सिम्बल है यह रस्सी बनाने की मशीन। खैर अब गांधी का नहीं, नरेंद्र मोदी जी का जमाना है। पर आत्मनिर्भरता का नारा देने वाले मोदीजी को भी संत कुमार का यह उपकरण जरूर पसंद आयेगा; ऐसा मुझे लगता है।

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