आगरा || मानव और प्रकृति का रिश्ता अटूट है। इसी वजह से मूक रही प्रकृति,अब बोलने लगी है कि अब बस करो मेरा दोहन और अनदेखी,अभी भी इंतजार कर रहे हैं प्रकृति के लाल कोई आए मुझे संवारे, मुझे बचाए,मैं बदले में उपहार ‘प्राणवायु’ दूंगा ये पौधौं की पुकार है। जिसको शायद रस्म अदायगी वाले समाज के लोग न समझें और न सुनें,अगर अभी भी हमारे हृदय और कानो तक नही पहुँच रही तो पृथ्वी पर जीवन बचाना असंभव होगा। भले ही आधुनिक तकनीक या मेडिकल विज्ञान या किसी भी प्रकार का मानव-निर्मित विज्ञान का आधारभूत सिद्धान्त कुछ भी दावे करे लेकिन प्रकृति ने कोरोना आपदा काल में हमको ये सिखा दिया कि प्रकृति का तिरस्कार या अनदेखी की तो कितने ही ऑक्सिजन प्लांट या सिलेंडर अपने कंन्धो पर रखकर दुनिया को ये संदेश देते रहो, वो जान बचाएगा , लेकिन मानव या जीव अस्तित्व के लिए प्रकृति का सम्मान करना ही होगा , क्योंकि मैं जीवनदाता हूँ।
उ.प्र.अपराध निरोधक समिति,लखनऊ के चेयरमैन डॉ.उमेश शर्मा ने इस संदर्भ में बताया कि जिस प्रकार माँ का तिरस्कार कर इंसान कभी सुखी नही रह सकता उसी प्रकार प्रकृति का तिरस्कार करने से जीवन खतरे में होगा। जीवन को हम कितना ही डिजिटल सुविधा युक्त कर लें, एप्प बना लें,अत्याधुनिक उपकरण इस्तेमाल कर लें , कितने ही क्रत्रिम प्राणवायु के प्लांट लगा लें, घर लेकर बाहर तक, जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रकृति ही जीवन और मोक्ष देगी । जीवन को केवल और केवल प्रकृति बचाएगी, पौधे बचाएंगे पाँच महाभूत बचाएंगे मानव और जीव के अस्तित्व को इसका कोई विकल्प न था और नहीं होगा । हमें अपने धर्मग्रंथो से प्रकृति सम्मान और इससे मानव के संबंधो की सीख लेनी होगी, पर्यावरण के संतुलन में वृक्षों के महान् योगदान एवं भूमिका को स्वीकार करते हुए मुनियों ने बृहत् चिंतन किया है। मत्स्य पुराण में उनके महत्व एवं महात्म्य को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है- दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः। दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः। प्राकृतिक शक्तियों में देवी स्वरूप की अवधारणा मात्र यह इंगित करती है कि हम इनकी रक्षा करें, इनसे अनुराग रखें और स्वस्थ, संतुलित जीवनयापन करते हुए पर्यावरण की यथाशक्ति रक्षा करें। उक्त बिंदुओं को यदि नैतिकता-अनैतिकता की सीमा-रेखा में न भी बांधें तो भी ये प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के संवाहक प्रतीत होते हैं। भारतीय चिंतन-धारा की यही प्रमुख विशेषता है, जो इस प्रदूषण-अभिशप्त सदी में हमें अपने अतीत की बार-बार याद दिलाती है।विगत वर्षो से नई नई प्रकृतिक आपदाएँ , मानव के द्वारा प्रकृति का अति दोहन उसके साथ साथ दोहन कि कदापि पूर्ति नही , पूर्ण अनदेखी आज हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बनी हुई है , इसका जीता जागता उधाहरण अभी भी दिखाई दे रहा है,यही बात हमारे धार्मिक ग्रंथ व ऋषियों ने बार बार सचेत करते हुये कही है।
श्री शर्मा ने बताया कि वेदों को व्याख्यायित करते हुए वायुपुराण (62/15) में महर्षि वेदव्यास ने अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहा है कि इस सृष्टि के अपने स्वरूप में अधिष्ठित हो जाने पर इसका अंधाधुंध दोहन न किया जाए, क्योंकि मनुष्यों के क्रियाकलापों तथा अतिशय भोगवादिता के कारण प्राकृत पदार्थों में समय पूर्व वे दोष उत्पन्न हो जाते हैं, जो कल्प के अंत में आने वाली प्रलय में उत्पन्न होते हैं, जिससे यह दृश्य प्रकृति लय की ओर अग्रसर हो दुःखद हो जाता है।जितना हम अपने जीवन को अनमोल मानते हैं , उतना प्रकृति को महत्व क्यों नही , प्रायः देखा गया है व समाचारों में यही बात सुर्खियों में होती है कि पौधरोपन केवल कागज पर ही पूर्ण होता है , वास्तविकता ये हैं कि पौधो की देखभाल भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, पौधा रोपण के साथ साथ उनकी देखभाल हमारी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए । सभी को पता है कि जून के माह के बाद हर साल पौधरोपण की उत्सवधर्मिता अपने चरम पर होती है , लेकिन बाद में इनमें से कुछ पौधे ही पेड़ बन पाते हैं या ज़्यादातर पनपने से पहले ही समाप्त हो जाते हैं , सरकार के साथ साथ हम सब कि समूहिक ज़िम्मेदारी इस उत्सव को सतत बनाए बनाए रखने की ये है कि हम देखभाल को भी उत्सव का हिस्सा बनाएँ । जल का संचयन भी अनमोल है,पृथ्वी पर स्वच्छता रहे इसलिए प्लास्तिक व ईलेक्ट्रोनिक वेस्ट के विकलप भी तलाशने होंगे,जैविक विकल्प हर जगह तलाशना होगा,जागरूकता लानी होनी जन जन में, क्योंकि एचएम केवल क्षणिक उपचार या राहत के आदि न बने , चिरस्थाइ उपचार प्रकृति को सहेजने और उसको सम्मान देने से ही होगा । हमे हर हाल में पर्यावरण सुरक्षा करनी होगी, इसको जीवन जीने का एक हिस्सा मानना होगा, कुछ दूरी वाले आयोजनो या पैदल जाने योग्य जगहों पर बिना वाहन जाएं, बिना धूम्रपान के जाना होगा। सामाजिक रिश्तो में या किसी खास अवसर व दिवस पर यादगार के रूप में कम से कम एक वृक्ष जरूर लगाएं, उसको सहेजने और अच्छी देखभाल करने का मन में सक्ल्प लेना होगा,हम सामाजिक आयोजनो में अति महत्वपूर्ण इस्तेमाल अपने उद्बोधन का जागरूकता संदेश देने में भी करें । यदि हम अच्छे नागरिक का फर्ज निभा सकते हैं तो, पर्यावरण प्रदूषण के खतरे से पड़ोसियों व जानने वालों को आगाह करें तथा लोगों में जागरूकता लाएं। जल सुरक्षा में नदियों में गंदगी, कचरे व जल-मल को गिराने से परहेज करें, यदि ऐसा होता दिखाई दे तो समझाने का प्रयास करें या संबधित विभाग को सबूत के साथ अवगत कराएं,लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहा है जो जागरूकता दिख रही है उसकी कि देंन है, हम सब उन पत्रकारों/ जागरूकता योद्धाओं के इस तरह के चलाने वाले वाले प्रकृति हित व सुरक्षा अभियान के ऋणी हैं ।पृथ्वी का जन्म और उसमें जीवन प्रकृति की जटिल प्रक्रिया रही है। यह करोड़ों वर्षो की प्रकृति की तपस्या ही रही है कि आज प्राणियों को पनपने का स्थान मिला है। पृथ्वी का आवरण यानी पर्यावरण को प्रकृति ने आश्रय के रूप में प्राणी जगत को जीवन के लिए भेंट दिया। प्रकृति की शर्त एक छोटी-सी थी कि इसकी संवेदनाओं और सीमाओं को सुरक्षित रखा जाए। पृथ्वी और इसके पर्यावरण को बचाने के लिए मनुष्य की चेतना को लोभ और अत्याचार से ऊपर उठना होगा। उसे अपने स्वयं के जीवन और वातावरण के साथ तालमेल को समझना होगा। प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की हमारी प्रवृत्ति को जांचना जरूरी है। यदि हम प्रकृति के सम्मान और सुरक्षा के लिए अच्छा कर पाये तो यही सच्चा पर्यावरण दिवस होगा,यही प्रकृति को सच्चा सम्मान देना होगा।
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