अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस – बड़े बदलाव की जरूरत ?
हम इंसानों की कई बातें ऐसी है जिन्हें जानकर हम सब कही न कही दुःख जरुर प्रकट करते है | कई मामलों में हम स्वार्थी बनने से भी गुरेज नहीं करते जबकि हमारे व्यक्तिगत कार्य एवं व्यवहार से ही समाज पर प्रभाव पड़ता है | प्रभाव अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी | पर जिस सामाजिक सच्चाई की हम बात आज करने जा रहें है वास्तव में उसके बदलाव के लिए बड़े पैमाने पर हम सब को मिलकर कार्य करने की जरूरत है | हम बात कर रहे है देश में मौजूद करोड़ों उन महिलाओं की जो विधवा है और मुख्यधारा से उन्हें अलग कर दिया गया है नतीजन अधिकांश अपनी जिंदगी को अनेकों समस्याओं को झेलते हुए व्यतीत कर रही है | रहने को घर नहीं, खाने को भोजन नहीं, सामाजिक रूप से कई मामलों में तिरस्कृत इन महिलाओं की अपनी एक लम्बी लिस्ट है जिसका समाधान आज से संघर्ष करने पर कई वर्षो पश्चात् शायद हो पाए | आज इनकी चर्चा इस लिए भी जरुरी है क्योंकि आज अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस है | लूंबा फाउंडेशन ने वर्ष 2005 में अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस की शुरुआत किया था | विभिन्न देशों में महिलाओं को अपने पति की मृत्यु के बाद बहुत अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है | अधिकांश मामलों में ऐसी महिलाओं को एनजीओ, सरकारों द्वारा नहीं देखा जाता है और समाज भी उन्हें त्याग देते हैं ऐसी महिलाओं की स्थिति सुधारने को लूंबा फाउंडेशन कार्यरत है | 23 जून 2010 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस की मान्यता दी गयी | इस मुहीम को चलाने
वाले लूंबा की मां 23 जून, 1954 को विधवा हो गई थी जिन्होंने अनेको
समस्याओं का सामना विधवा होने की वजह से किया था | सामाजिक समस्याओं में विधवाओं की बढ़ती संख्या आधुनिक समाज के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है जिस पर न केवल खुली बहस होनी चाहिए बल्कि उन्हें शसक्त बनाने के लिए प्रभावी नीति नियमों का गठन भी होना चाहिए |
आपको जानकर यह बेहद ताज्जुब होगा की दुनियांभर में इनकी संख्या जहाँ 25.8 करोड़ है वही अकेले भारत में इनकी संख्या 5.6 करोड़ है | वर्ष 2011 की जनगणना में देश की कुल आबादी 121 करोड़ थी यानि की कुल आबादी का 4.6 प्रतिशत आबादी इन महिलाओं की है | इनकी संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है यह आकड़े स्वयं प्रमाणित कर रहें है | वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार मात्र 18.5 लाख विधवा महिलाये थी जबकि कुल आबादी 102 करोड़ का यह मात्र 0.18% थी | उपलब्ध आकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है की वर्ष 2021 में होने वाली जनगणना में इनकी संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि देखने को मिल सकती है | यदि देखा जाये तो 71% महिला और मात्र 29% पुरुष अपने जीवन साथी को खो देते है | इसके पीछे एक तर्क यह भी दिया जाता है की पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की औसत आयु अधिक है | विधवा महिलाओं की दयनीय स्थिति देखनी हो तो वृन्दावन और काशी जाकर देखा जा सकता है | आबादी का बड़ा भाग होते हुए भी इन्हें न केवल मुख्यधारा से अलग रखा जाता है बल्कि इन्हें अशुभ भी माना जाता है | कई जगहों पर इनका भारी शोषण देखने को भी अक्सर मिलता रहता है जिसमे छेड़छाड़, बलात्कार, भीख मगवाने की घटनाएँ भी शामिल है | महज चंद रूपये और मुट्ठीभर चावल के लिए घंटो इनसे भजन कीर्तन करवाया जाना आम बात है |
गरीबी, भुखमरी, अत्याचार, स्वास्थ्य समस्याएं, अशिक्षा, बच्चो की परवरिश और शिक्षा इनके जीवन की बड़ी समस्याओं में से है | कई संगठन और संस्थाएं इनके जरिये अपनी कमाई सुनिश्चित कर रही है जबकि इनके उद्देश्यों को प्राथमिकता नहीं मिल पा रही है | सामाजिक तिरस्कार, निर्णय न लेने का दबाव इन्हें देखकर महसूस किया जा सकता है | आधुनिकता के जरिये क्षीण हो रहा सामाजिक दायित्व भी अब कमजोर होने लगा है जिससे इनकी संख्या में वृद्धि हो रही है | ख़त्म होती सयुंक्त परिवार की प्रथा, बाजारवाद ने इसे बड़ी समस्या का रूप लेने में भरपूर सहयोग किया है | सरकार की कई योजनाये जैसे स्वाधार गृह योजाना, विधवा महिलाओं के लिए घर, इंदिरा गाँधी राष्ट्रिय विधवा पेंशन योजना, महिला शक्ति केंद्र योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, दीनदयाल अन्त्योदय योजना महिलाओं के लिए चल रही है पर जानकारी के आभाव में इसका लाभ इन महिलाओं तक नहीं पहुँच पा रहा है | आईआई एम् बैंगलोर ने मार्च 1994 में देश के सभी हिस्सों से विधवा महिलाओं को उनकी स्थिति पर चर्चा के लिए बुलाया था जिससे एक उम्मीद के साथ साथ यह चेतना जगी थी की इनकी समस्याए ख़त्म होगी पर अभी भी समस्याए जस की तस बनी हुई है | कई रिफॉर्म्स के बावजूद आज भी विधवा महिलाओं की पुनः शादी लगभग असंभव है और बहोत कम महिलाओं की पुनः शादी हो पाती है |
इस अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस पर हम सब को मिलकर इन्हें न केवल सरकारी योजनाओं के बारें में जागरूक करने हेतु संकल्पित होना होगा बल्कि सरकार और विभिन्न सामाजिक संगठन मिलकर इन्हें प्रशिक्षित करें जिससे आत्मनिर्भर होकर अपने आर्थिक विकास के साथ-साथ देश के विकास में भी ये महिलाएं योगदान कर सकें | देश में मौजूद कोर्पोरेट
घराने भी इनकी मदद के लिए न केवल आगे आये बल्कि ऐसी महिलाओं के लिए सामाजिक
उत्तरदायित्व के तहत रोजगार की भी व्यवस्था करें | सामाजिक भेदभाव और पुराने रीति-रिवाजों से बाहर आकर के आत्म सम्मान के साथ इन महिलाओं की जिंदगी खुद उनके अनुसार जीने की आजादी भी समाज को इन्हें अब देने की जरूरत है | राज्य सरकारें इनके भरण-पोषण के अतिरिक्त स्वयं रोजगार हेतु अनुदान देने और प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी करें | सरकार द्वारा वर्तमान में दी जा रही पेंशन भी नाममात्र है इस धनराशि में अविलम्ब वृद्धि करने की भी जरूरत है | इन सबके अतिरिक्त यह अति आवश्यक है की समय-समय पर इस विषय में चर्चा-परिचर्चा किया जाए और इनकी समस्याओं को केंद्र बिंदु बनाकर सरकार इस विषय में निर्णय ले | जागरूकता भी इस तरह की सामाजिक समस्या के निदान में व्यापक भूमिका अदा कर सकती है | हम सब को भी यह समझने और स्वीकार करने की जरूरत है की “बुढ़ापा मात्र खोया हुआ यौवन नहीं है बल्कि अनुभव और शक्ति से मिश्रित एक नया चरण है जिसके मार्गदर्शन की जरूरत हम सभी को है |” आइये इस अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस पर हम सब एक बड़े
बदलाव के लिए प्रतिबद्ध होते है |
डॉ अजय कुमार मिश्रा
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