लोकतंत्र के बिकते ईमान
      
 मांस के टुकड़े, शराब की घूँट और चन्द रुपए पर लोगों का ईमान बिकते देखा।क्या लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि को चुनने का यही एक विकल्प शेष है ॽ ऐसे दृश्य लोगों नेअपने आँखों से देखा और सुना। इन परिस्थितियों को देखते हुए यह सोचने के लिए विवश हो रहा हूँ कि हमारे पुरखों ने समाज को चलाने के लिए शास्त्रोक्त विधान जो बनाए थे वो श्रेष्ठ हैं।

लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत अभी पंचायत के चुनाव सम्पन्न हुए हैं लोगों ने अपने प्रतिनिधि को चुनने का कार्य जिस घिनौने तरीके से सम्पन्न किया इससे मैं पूरी तरह से आश्वस्त होकर कह रहा हूँ कि लोग अपने लिए फांसी के फंदे को खुद से तैयार किया और और स्वयं अलोकतांत्रिक व्यवस्था को अमलीजामा पहनाया। इन परिस्थितियों में जो प्रतिनिधि चुना गया वह समाज का, ग्राम विकास की योजनाओं का और सरकारी निधियों का दुरपयोग करते हुए अपनी दिनचर्या का संचालन करेगा तो यही ग्रामीण लोग उसके क्रियाकलाप में दिलचस्पी लेते हुए कहेंगे कि अमूक मुखिया गाँव की दुर्दशा कर रहा है। अगले चुनाव तक लोगों का विका हुआ ईमान शुद्ध होने लगेगा और ईमान को बेचने के लिए अधिक दाम की अपेक्षा में मुखिया को विभिन्न प्रकार से कोसते नजर आएंगे। 
 
अखिलेंद्र कुमार सिंह 
भदोही, यू पी

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