आज यानी कि 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जा रहा है क्यों कि हिंदी का पहला साप्ताहिक समाचार पत्र आज ही के दिन सन 1826 में निकलना शुरू हुआ था। सुना है कि आर्थिक कठिनाइयों के कारण यह समाचार पत्र बहुत दिनों तक टिक नहीं सका और 4 दिसम्बर 1827 को बंद कर दिया गया था। प्रकाशक ने सरकारी सहायता प्राप्त करने की बहुत कोशिश की पर वे इस में सफल नहीं हो पाए। बाद में, सहायता न मिलने के कारण कई अन्य समाचार पत्र भी बंद हुए। यानी कि पत्रकारिता के लिए पहला सबक़ ये था कि जब तक सरकारी सहयोग का जुगाड़ न हो तब तक इस क्षेत्र में पाँव नहीं रखने चाहिए। गोरों के शासन काल में आमदनी न होने के कारण समाचार पत्र बंद हो रहे थे पर स्वतंत्र भारत में समाचार पत्र कमाई के उन्नत साधन के रूप में विकसित हुए हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में, जो बिकेगा वही टिकेगा। अगर आप बिकने के लिए पूरी तरह तैयार हैं तभी इस इस अखाड़े में उतरें। जो नहीं बिके उन पर हुए हमले और संदेहास्पद मौत की गवाही के लिए कोई तैयार नहीं, इतिहास भी नहीं। कुछ उन्नत क़िस्म के पत्रकार उच्चतम सदनों की सदस्यता के लिए बिक गए, मध्यम क़िस्म के विज्ञापन पाकर मालामाल हो गए। चलताऊ क़िस्म के पत्रकार स्थानीय सरकारी कर्मचारियों एवं जन प्रतिनिधियों का भयादोहन कर के गुजर बसर कर रहे हैं। बिके हुए समाचार पत्र फल फूल रहे हैं और ग़ुलाम पत्रकार एक दूसरे को शुभकामनाएँ बाँट रहे हैं। कोई बताएगा कि हिंदी पत्रकारिता, जिस का जन्म 30 मई 1826 को हुआ था, जिंदा है या मर गयी।
आज यानी कि 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जा रहा है क्यों कि हिंदी का पहला साप्ताहिक समाचार पत्र आज ही के दिन सन 1826 में निकलना शुरू हुआ था। सुना है कि आर्थिक कठिनाइयों के कारण यह समाचार पत्र बहुत दिनों तक टिक नहीं सका और 4 दिसम्बर 1827 को बंद कर दिया गया था। प्रकाशक ने सरकारी सहायता प्राप्त करने की बहुत कोशिश की पर वे इस में सफल नहीं हो पाए। बाद में, सहायता न मिलने के कारण कई अन्य समाचार पत्र भी बंद हुए। यानी कि पत्रकारिता के लिए पहला सबक़ ये था कि जब तक सरकारी सहयोग का जुगाड़ न हो तब तक इस क्षेत्र में पाँव नहीं रखने चाहिए। गोरों के शासन काल में आमदनी न होने के कारण समाचार पत्र बंद हो रहे थे पर स्वतंत्र भारत में समाचार पत्र कमाई के उन्नत साधन के रूप में विकसित हुए हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में, जो बिकेगा वही टिकेगा। अगर आप बिकने के लिए पूरी तरह तैयार हैं तभी इस इस अखाड़े में उतरें। जो नहीं बिके उन पर हुए हमले और संदेहास्पद मौत की गवाही के लिए कोई तैयार नहीं, इतिहास भी नहीं। कुछ उन्नत क़िस्म के पत्रकार उच्चतम सदनों की सदस्यता के लिए बिक गए, मध्यम क़िस्म के विज्ञापन पाकर मालामाल हो गए। चलताऊ क़िस्म के पत्रकार स्थानीय सरकारी कर्मचारियों एवं जन प्रतिनिधियों का भयादोहन कर के गुजर बसर कर रहे हैं। बिके हुए समाचार पत्र फल फूल रहे हैं और ग़ुलाम पत्रकार एक दूसरे को शुभकामनाएँ बाँट रहे हैं। कोई बताएगा कि हिंदी पत्रकारिता, जिस का जन्म 30 मई 1826 को हुआ था, जिंदा है या मर गयी।
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