आगरा ||बहुत भारी मन से बताना पड़ रहा है, अब बताने की हिम्मत नहीं रही। हम अपनों को खोते जा रहे हैं, ॐ शांति और विनम्र श्रद्धांजलि देते जा रहे हैं। कितनी हिम्मत जुटायें और कैसे जुटायें, बड़ी बेबसी का दौर है। चाहकर भी काफी कुछ करना संभव नहीं हो पा रहा। प्रभु अपने प्रकोप को अब तो शांत कर दो।

ये आंसुओं का ही दौर चल रहा है। कितने माँओं ने इस महामारी में अपने बेटे के लिए आंसू बहाए होंगे, कितने मासूम बेटों और बेटियों ने माँ बाप के चले जाने पर, कई मौतें टल सकती थी अगर सुविधा उपलब्ध होती तो। हर दिन आपलोगों में से कई ने सोशल मीडिया पर बेड और एम्बुलेंस तक की किल्लत देखी होगी। एक आंसू ही था जो एक को दूसरे से जोड़ कर रखा था। इस लिए आंसू बहुत बड़ी चीज होती है। अगर इस महामारी से लड़ने में सभी चीजों की व्यवस्था अच्छी तरह से की जाती तो हमें रोना नहीं पड़ता, ना आंसू बहते ना अपने यू तड़प-तड़ के बैमौत मारे जाते, लेकिन शर्म की बात है कि इस महामारी में वो यानी दिखावटी लोग दुःख की घड़ी में किधर भी नजर नही आए। कोविड संकट में लोग एक दूसरे के आंसुओं से मदद पा रहे थे। कई लोगों के लिए आक्सीजन,दवा,बेड, बेंटिलेटर और इलाज़ के लिए पैसे व घर में बच्चों के लिए खाने पीने की जुगाड़ कर रहे थे। तब वो लोगों के मसीहा बन हमें संकट में अकेला छोड़कर अपने महलों में बंद हो गए कहीं भी आपदा में नजर नही आए। जब कि हजारों घर अपने चिराग को खो रहे थे तब "वो" समुचित व्यवस्था भी नही कर पाए। अब जब लोगों ने अपनों को खो दिया हैं तब टीवी पर आकर हजारों सवालों के जवाब देने के बजाय सिर्फ़ आँसू बहाकर निकल जायेगे। लेकिन हमें अपनों का व्यबस्थाओं के अभाव में यू छोड़ कर चला जाना उम्र भर खलता रहेगा। ज़िम्मेदार लोगों के लिए बस एक आँसू बहा देना न्याय संगत कतई नही होगा। अक्सर घरों में देखने को मिलता है कि जब गार्जियन रोने लगते है तो महसूस होता है, अब सच में कुछ नही होगा। कोविड संकट में यहीं हाल हमारे साथ भी हो रहा है। पीड़ित लोगों को अब उनसे कोई उम्मीद भी नही है। सिवाय आसुओं और दर्द के। ये आंसू यही कहते है कि हम कमजोर हैं। जिम्मेदारी अलग चीज है, जिम्मेदारी निभाने वाले व्यक्ति को मैंने ज्यादा रोते हुए नही देखा है। क्योंकि हम भावनाओं में बहने वाले सीधे साधे लोग है। लेकिन अभी समय कुछ और चल रहा हैं। इस समय उस व्यवस्था का रोना जिस पर हमारी पूरी जिम्मेदारी है हम को बहुत कमजोर साबित करती है। समय के चक्र ने दिखा दिया कि सिर्फ़ दिखावटी बड़ी-बड़ी बातों से महामारी पर काबू नहीं किया जा सकता। उसके लिए ज़मीनी इंतज़ामात करने होते हैं जो उनके बस की बात नहीं। ये साबित हो चुका हैं और हमलोगों को उनसे कोई उम्मीद भी नहीं हैं। ना करनी चाहिए।अब ज़्यादा नाक़ामियाँ पर बात करना भी फ़िज़ूल ही होगा। उनको उनके महलों में रहने दीजिए जाने वाले चले अब लक़ीर पीटने से वो वापस नहीं आएंगे।लेकिन उन मौतों का इल्ज़ाम तो इनके ही सर आएगा। क्योंकि समय से बड़ा बलबान कोई भी नहीं। आख़िर यह कैसा विधि का विधान है कि महज अल्प समय में ही देखते-देखते दो पीढ़ियां काल के हाथों ने हम से छीन कर गोलोकवासी बना दी। कई अपने चले गए। हे ईश्वर कब और कैसे रूकेगा ये अंतहीन सा लगने वाला ‌सिलसिला। बेहद दुखद दौर हैं। प्रभू सब कुछ पहले की तरह जल्दी से जल्द ठीक करें। बहुत याद आएंगे हर दुःख सुख में साथ देने बाले वो अपने लोग ... शत शत नमन

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