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अब यादों में राजेंद्र
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लोग पत्रकारिता जैसे सौ फीसदी असुरक्षित क्षेत्र से निकलकर या तो ठेकेदारी करते हैं या राजनीति में जाते हैं लेकिन राजेंद्र खंडेलवाल ने चाय व्यवसाय को अपने भविष्य के लिए चुना और चाय बागानों का ही होकर रह गया .राजेंद्र तीन महीने बाद अपना जन्मदिन मनाता लेकिन इससे पहले ही उसने सिलीगुड़ी से ग्वालियर वापस लौटने के बजाय एक ऐसी यात्रा को चुना जिससे कोई वापस नहीं आता ..
राजेंद्र एक भोले दिल वाला इंसान था.चार दशक पहले ग्वालियर के एक अनाम से अखबार में काम करने वाले राजेंद्र ने मुझसे उस समय सम्पर्क किया जब में ग्वालियर के दैनिक आचरण में कार्यरत था .राजेंद्र जहां काम करता था ,वहां वेतन की कोई गारंटी नहीं थी,सीखने -पढ़ने वाला भी कोई नहीं था,इसलिए राजेंद्र वहां से भाग निकलना चाहता था .मैंने उसे अपने साथ इस शर्त पर रख लिया कि उसे ईमानदारी से काम करना होगा .
नाटे कद के राजेंद्र के पास कमजोर कलम थी,उसे धार देने की जरूरत थी.राजेंद्र संयोगवश पत्रकार बना था ,उसका लोहा भी पत्रकारिता के अनुकूल न था लेकिन उसकी ईमानदारी,समर्पण और विनम्रता देखकर मै जो कर सकता था,मैंने उसके लिए किया .राजेंद्र ने बाद में पत्रकारिता में एक लंबा समय बिताया ,इस बीच उसका विवाह भी हो गया और दो बच्चे भी .राजेंद्र एक संयुक्त परिवार का सदस्य था.उसकी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी न थी लेकिन उसकी आँखों में सपने बड़े-बड़े थे और ये सपने ग्वालियर की पत्रकारिता में रहकर पूरे नहीं किये जा सकते थे .पत्रकारिता न राजेंद्र को पहचान दे पा रही थी और न पैसा .हारकर उसने रास्ता बदल लिया.
राजेंद्र ने जोखिम लेकर एक स्कूल खोला,उसे चलाया भी .कर्ज के बोझ के नीचे भी आया,लेकिन स्कूल भी इतनी आमदनी न दे सका कि वो अपने सपनों में रंग भर सके .परेशानियों के बावजूद राजनेद्र के चेहरे की मुस्कान कभी नहीं मुरझाई .उसके मुंह में हमेशा तम्बाखू और पान कि गिलौरी भरी रहती थी ,जोखिम लेने वाले इस लड़के ने एक दिन अचानक ग्वालियर को अलविदा कह दिया और एक अपरचित प्रदेश असम की राह पकड़ी .स्कूल संचालन के दौरान ही उसका सम्पर्क चाय वितरकों से हो गया था.उसने बड़े धैर्य से चाय कारोबार की बारीकियां सीखीं और पूरे प्राण-पण से जुट गया.यहाँ उसे अपेक्षित सफलता मिली.आर्थिक स्थितियां भी सुधरीं ,उसके पास धन के साथ संतोष का धन भी आ गया .
सिलीगुड़ी [असम] में रहते हुए भी ग्वालियर उसकी यादों में बसा रहा. उससे जब भी बात होती सिलीगुड़ी आने का न्यौता देता .हमारे दल के नेता रहे डॉ राम विद्रोही ने राजेंद्र के न्यौते पर सिलीगुड़ी की यात्रा भी कर ली लेकिन हमारे जैसे बहुत से लोग उसे टालते रहे .बीच में राजनेद्र जब भी ग्वालियर आता मिलता जरूर .राजेंद्र चाय वाला जरूर हो गया था लेकिन उसके प्रोफ़ाइल से पूर्व पत्रकार की पहचान हमेशा चस्पा रही .अगर वो चाय कारोबारी न बना होता तो आज ग्वालियर के वरिष्ठ पत्रकारों में उसका शुमार होता ही ,लेकिन पत्रकारिता सबको ताउम्र साथ नहीं रख पाती. जैसा मैंने पहले कहा कि कुछ लोग पत्रकारिता को सीढ़ी बनाकर राजनीति में चले जाते हैं,कुछ ठेकेदार बन जाते हैं,लेकिन कारोबारी कुछ ही बन पाते हैं .
राजेंद्र कुछ दिनों से बीमार था,उसका स्वास्थ्य सुधर भी गया था लेकिन अचानक उसकी जीवन यात्रा रुक गयी .खबर मिली तो यकीन ही नहीं हुआ .राजेंद्र के अभी जाने के दिन न थे .उसके तमाम सपने अधूरे थे जिनमने उसे रंग भरना थे.लेकिन विधि के विधान को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती .मुझे याद आता है कि जब हमें राजेंद्र से पार्टी लेना होती थी तब हम उसके नाम से एक खबर चिपका देते थे .हमर एकबार में नाम से खबर छपने पर पार्टी देने की परम्परा थी .हम राजनेद्र को पहले खबर लिखने के लिए पहले खूब दौड़ाते और फिर उसे उसका सिला भी देते .अब राजेंद्र हमारी यादों का हिस्सा बन चुका है.हमारी उसके ऊपर तमाम पार्टियां अधूरी ही रह गयीं. राजेंद्र के प्रति मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि .
@ राकेश अचल
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