स्मृति शेष:वीडी शर्मा 
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हमारे हिटलर मौसा जी 
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समाज  के विभिन्न वर्गों के लोगों के बारे में स्मृतियों  का रेखांकित करना ज्यादा कठिन और सावधानी का काम होता है किन्तु अपने रिश्तेदारों की स्मृतियों पर कलम चलना कहीं ज्यादा कठिन काम है.लोग इसीलिए इससे बचते हैं.लेकिन मुझे अपने उन रिश्तेदारों की स्मृतियाँ समेटने में सुख मिलता है और लगता है कि उनके प्रति श्रृद्धांजलि व्यक्त करने का यही सही तरीका है .ग्वालियर शहर की एक चर्चित हस्ती वीडी शर्मा जी ऐसे ही लोगों में से एक थे .
शर्मा जी रिश्ते में हमारी श्रीमती जी के मौसा थे,सगे मौसा .इसलिए चालीस साल पहले वे हमारे मौसा भी हो गए. हमारे भी एक ही सगे मौसा थे,वे भी वीडी शर्मा जी की ही तरह थे. स्वभाव से' हिटलर '.मौसा जी का हिटलर होना जग जाहिर था. वे अपने घर में और रिश्तेदारों में इसी नाम से जाने जाते थे .हिटलर होना बुरा माना जाता है लेकिन वीडी शर्मा का हिटलर होना बुरा नहीं था. वे एक समान्य स्कूल शिक्षक के पुत्र थे,सरकारी नौकरी में थे लेकिन शहर से बाहर दुसरे जिले में तबादला होने के कारण उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी.इस त्याग के पीछे पितृमोह था या और कुछ समझना कठिन है.
अचानक नौकरी छोड़ने वाले मौसा जी नौवें दशक में अचानक शासकीय ठेकेदार बन गए और इतनी तेज गति से आगे बढ़े की उनके प्रतिद्वंदी तक दांतों तले उंगली दबाने को विवश हो गए .ठेकेदारी में साम,दाम,दंड और भेद के बिना काम नहीं चलता .मौसा जी ने ये तमाम गुर चुटकी बजाते सीख लिए. जो हिटलर मौसा जी शहर छोड़कर जाने में डरते थे वे साम,दाम दंड ,भेद में अपने प्रतिद्वंदियों को हराने में हर जोखिम उठाने के लिए तत्पर दिखाई देने लगे .हिटलर मौसा जी का ही कलेजा था जो एक अनजान क्षेत्र में वे सफलता के झंडे फहरा रहे थे. 
सिंचाई विभाग से अपनी यात्रा शुरू करने वाले हिटलर मौसा जी देखते ही देखते पहले राज्य शासन के विभागों में फिर रक्षा विभाग में प्रवेश पा गए. थल और वायु सेना में वे पहले से स्थापित ठेकेदारों के लिए सबसे कठिन प्रतिद्वंदी   साबित हुए  .उन दिनों मै पत्रकारिता में अपनी जगह बना चुका था लेकिन अचानक मुझ पर संकट टूट पड़ा .सत्ता प्रतिष्ठान  विरोधी पत्रकारिता के चलते मेरी नौकरी चली गयी. ऐसे समय में हिटलर मौसा जी मेरे लिए तिनके का सहारा बनाकर सामने आये .उन्होंने मेरे लिए एक साप्ताहिक अखबार के प्रकाशन की व्यवस्था के साथ मेरे लिए हर महीने वेतन की व्यवस्था भी कर दी. उनके अपने कार्यालय के बाहर ही मेरे अखबार का बोर्ड लटक गया .
पूरे एक साल मैंने हिटलर मौसा जी के संरक्षण में अखबार निकाला और अपना वजूद बचाये रखा.लेकिन हिटलर मौसा जी ने इस निवेश को भी अपने ढंग से वसूल कर लिया.वे अपने प्रतिद्वंदी ठेकेदारों और टेढ़े मेढ़े अफसरों को सीधा करने के लिए मेरा और अखबार का बड़ी खूबसूरती से इस्तेमाल कर लेते थे .उन्होंने किराये के एक मकान में मेरे अखबार का दफ्तर सिर्फ इसलिए बना दिया ताकि भवन स्वामी उन्हें परेशां न कर सके .हिटलर मौसा जी को भयादोहन करना खूब आता था और इसके विपरीत वे अफसरों की सेवा में भी पारंगत थे .
शर्मा जी शुद्ध सात्विक ठेकेदार थे,ठेकेदारी में सात्विक होना अवगुण माना जाता है,सो इसके लिए उन्होंने अपने अनुज को तैयार कर दिया.किसी अफसर को इंटरटेन करने का जिम्मा उनके अनुज पर था. हिटलर मौसा जी के चार बच्चे थे,वे उस समय छोटे थे सो ये जिम्मेदारी छोटे भाई के कन्धों पर थी .इस इंटरटेनमेंट में मेरी भी छोटी-मोटी भूमिका होती थी .ये सिलसिला वर्षों तक चला .कोई पांच साल पहले तक .
हिटलर स्वभाव वाले मौसा जी जिस काम के पीछे पड़ जाते उसे अंजाम तक ले जाकर ही मानते.इसके लिए उन्हें न कभी थकान अनुभव हुई और न कभी भी लगा. वे जिसके भी पीछे पड़े उसे निबटाकर माने और जिसका भी उन्होंने साथ दिया उसका कल्याण भी किया .हिसाब  पाई-पाई का और रिश्ता भाई-भाई का' के सिद्धांत पर चलने वाले  मौसा जी न कोई सगा था और न कोई पराया ,उनके सबसे रिश्ते थे और पाई-पाई के रिश्ते थे .उन्हें झुकाना आसान काम न था .समय बीता तो उनके चारों बच्चे स्कूली शिक्षा के बाद महविद्यालयों की और जाने के बजाय ठेकेदारी करने में सिद्धहस्त कर दिए गए .मौसा जी ने अपना काम चारों बच्चों के बीच विभाजित कर अपने लिए संघर्ष का रास्ता चुना. किस अधिकारी से जूझना है ये वे तय करते थे. सामाजिक कार्यों में भी वे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे .हिटलर मौसा जी न धार्मिक थे और न अधार्मिक.वे कार्मिक थे .कर्म ही उनकी पूजा थी ,वे फल की चिंता करते ही न थे .उन्हें पता था कि फल तो मीठा ही मिलेगा .ग्वालियर में सूचनाके अधिकार का सर्वाधिक प्रयोग करने वालों में से एक हिटलर मौसा जी भी थे 
हिटलर मौसा जी का ही बूता   था कि उनके जितने विरोधी थे उतने ही मित्र भी थे.उनके मित्रों में वकील,जज,नेता,,अधिकारी ,पत्रकार सब थे .विरोधियों में जाहिर है कि अधिकारी और ठेकेदार ही थे .मौसा जी के पास एक अघोषित चुंबक था,जिससे वे किसी को भी अपने साथ जोड़ सकते थे .उनके हर उलझे काम में मै एक जरूरी पात्र था ,लेकिन एक समय के बाद मै उनसे कन्नी काटने लगा था .बावजूद इसके वे हमारे कुनवे के तमाम दामादों   में मुझे ही सबसे ज्यादा सम्मान देते थे. होली-दीवाली पर मेरा पूरा ख्याल रखते थे .उनकी हिटलरशाही केवल मुझे मुफीद बैठती थी .मै उनसे मजाक भी कर सकता था और उनसे कड़वी से कड़वी बात भी कर सकता था .हिटलर मौसा जी के नाम से बड़े-बड़े अफसर कांपते थे .वे कब किसके खिलाफ मोर्चा खोल दें कोई नहीं जानता था.उनके बच्चे भी ुम्हेँकई बार समझाते लेकिन हिटलर मौसा जी तो अलग मिटटी के बने हुए थे ,वे किसी की न सुनते,न परवाह करते .
हिटलर मौसा जी का ही कमाल था कि उन्होंने चालीस सस्ल की अवधि में एक छोटे से मकान से अपना सफर शुरू कर अपना घर दो-चार बीघा में विकसित कर लिया था लेकिन अपने परिवार को एक परकोटे से बाहर नहीं जाने दिया. अनुज हो या लड़के सबके चूल्हे अलग-अलग होकर भी साझा रहे .वे अपने ऊपर लगाए जाने वाले आरोपों की परवाह नहीं करते थे .बड़े से बड़े संकट में वे कभी पराजित नजर नहीं आये ,उन्होंने हर संकट का पूरी जीवटता से सामना किया. अपने अस्सी साल के जीवन में एक दिन की जेलयात्रा भी उन्होंने अपने हिटलरी स्वभाव के चलते की .वो एक अलग रोचक किस्सा है .
समाज में परिवारों को जोड़कर चलने और उसे विकसित करने में दक्षता हासिल करने में हिटलरी कितने काम आती है ये कोई वीडी शर्मा जी के जीवन से सीख सकता है .शर्मा जी अपने पीछे एक भरा-पूरा समृद्ध परिवार छोड़ गए हैं. मुझे एक ही खेद है कि उनके अंतिम समय में मै उनके दर्शन न कर सका. कतिपय कारणों से हमारा आपस में मिलना -जुलना नहीं हो पाया था किन्तु उनके प्रति मेरे मन में जो सम्मान है वो कभी कम नहीं हुआ. वे जब भी संघर्ष की बात चलेगी हमेशा याद किये जायेंगे. हिटलर मौसा जी के प्रति मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि 
@ राकेश अचल

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