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पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों को लेकर देश के तमाम राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े तीसमार खां अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने के लिए अपने-अपने सूबे छोड़कर मतदाताओं को लुभाने में लगे हैं ,जबकि सब जानते हैं कि नतीजा वही ' ढाक के तीन पात' रहने वाला है,यानि जो जहाँ सत्ता में है उसे दोबारा सत्ता में लौटकर आना है सिवाय पुडचेरी के .ऐसे में सवाल है कि दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार के तमाम मंत्री इन राज्यों में किस हैसियत से चुनाव प्रचार करने पहुँच रहे हैं.क्या ये एक तरह का चुनावी पर्यटन नहीं है ? .
गोया कि देश एक है इसलिए किसी के कहीं जाने पर विधिक रूप से कोई रोकटोक नहीं है लेकिन सत्ता पाने के लिए सबके सब लालायित हैं .भाजपा और कांग्रेस ने ही नहीं अनेक क्षेत्रीय दलों ने भी अपने नेताओं और कार्यताओं को पांच राज्यों के चुनावी पर्यटन पर भेजा है.दूसरे राज्यों के आयातित कार्यकर्ताओं और नेताओं के भरोसे चुनाव लड़ना चुनावों को और महंगा बनाने के साथ ही अराजक भी बनाता है. दुसरे राज्यों के नेता और कार्यकर्ता स्थानीय भाषा के अवरोध को तोड़ने में ही अपनी सारी ऊर्जा गंवा देते हैं
दरअसल ये एक तरह का चुनावी पर्यटन है और इसे रोकना बिना चुनाव सुधारों के मुमकिन नहीं है. एक राज्य के नेता दूसरे राज्य में जाकर पार्टी की ताकत बढ़ाने के लिए वे सब हथकंडे अपनाते हैं जो अतीत में शायद संबंधित राज्य में प्रचलित ही न रहे हों .जैसे बंगाल में इस बार ' जय श्रीराम ' का नारा .राष्ट्रीय नेता और पार्टियों के अध्यक्ष यदि राजय विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार अभियान में जुटते हैं तो उन्हें सरकारी संसाधनों और अपने दायित्वों से चुनाव अवधि के लिए अवकाश ले लेना चाहिए .लेकिन ये कौन करे ?पूरे कुएं में तो भांग पड़ी है .
मुझे याद आता है कि आज की राजनीति में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को ही लीजिये.वे 21 साल से उड़ीसा के मुख्यमंत्री हैं,मैंने उन्हें अपने राज्य के बाहर कभी चुनाव प्रचार के लिए दौरे करते नहीं देखा .केरल,तमिलनाडु ,असम,कर्नाटक के नेता भी राज्य की सीमाएं कम ही लांघते हैं. केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में यदि कोई कहीं गया हो तो अपवाद है लेकिन उत्तर भारत के नेता अपने राज्य की निष्ठां से सेवा करने के बजाय देश के हर कोने में राजनीतिक पर्यटन के लिए उपलब्ध रहते हैं .इसकी वजह शायद ये है कि वे देश पर अखंड राज्य करने का सपना देखते हैं .
देश में चुनाव प्रणाली में इतने छेद हैं कि तमाम चुनाव सुधारों के बावजूद आज की तारीख में भी कोई आम आदमी चुनाव नहीं लड़ सकता .चुनाव में जितने भी तरह के धन होते हैं ,खुलकर ही नहीं बल्कि निडर होकर इस्तेमाल किये जाते हैं .कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों पर तो चुनाव जीतने के लिए पूंजीपतियों के यहां जमीर गिरवी रखने के आरोप भी लगते आये हैं और प्रमाणित भी हुए हैं ,लेकिन केंचुआ इन सब दंड-फंदों के सामने असहाय है .उसके पास न नाखून हैं और न दांत और जो क़ानून भी हैं वे ऐसे जिनसे कोई डरता नहीं .
चुनावों को सस्ता,और निर्दोष बनाने के लिए जो किया जाना चाहिए उस पर कभी कोई आम सहमति नहीं बन पाती क्योंकि सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे होते हैं .' आप ' जैसे दल प्रयोग के रूप में सामने आते हैं लेकिन सत्ता में पहुँचने के बाद उनमें भी वे सब बुराइयां घर कर जाती हैं जो कि कांग्रेस या भाजपा में गले-गले तक मौजूद हैं .पिछले चार दशक में अनेक राजनीतिक दलों का जन्म हुआ लेकिन कोई भी भाजपा की रह फल-फूल नहीं सका.अन्य कथित राष्ट्रीय दल राज्यों और जातियों की सीमाओं में घिरे हैं और कोशिश करने के बाद भी वास्तव में राष्ट्रीय दल नहीं बन पाए .उनकी स्थिति या तो वोट काटने वाली है या वोट बेचने वाली पार्टी की है.
पिछले चार दशक में कांग्रेस और भाजपा के अलावा समाजवादी पार्टी से टूटकर जितने भी दल बने उनमने से अधिकांश राष्ट्रीय नहीं बन पाए,कुछ का कोई नामलेवा नहीं है और कुछ वापस अपने मूल दल में विलीन हो गए .ये सब मजबूरियों के चलते हुया क्योंकि सभी के पास हर तरह का धन नहीं है. धन को काला या सफेद मानने वाले भूल जाते हैं कि चुनाव में जातियों,सम्प्रदायों और धर्मों का धन भी खूब चलता है .जिसके पास जितने ज्यादा ठीके का धन है वो उतना सम्पन्न राजनीतिक दल है .
भारत का चुनावी अत्तीत उठाकर देख लें कि राष्ट्रीय दल बननेऔर राष्ट्रीय दल कहलाने में जमीन आसमान का फर्क है. आज कांग्रेस सत्ता से कोसों दूर होकर भी राष्ट्रीय दल है और कल दो सांसदों की पार्टी होने के बाद भी भाजपा को भी यही हैसियत मिली हुई है. देश में वामपंथी दल और समाजवादी दल राष्ट्रीय होकर भी राष्ट्रीय नहीं बन पाए. कांग्रेस और भाजपा को छोड़ किसी भी दल ने स्वतंत्र रूप से सत्ता का सिंघासन हासिल नहीं कर पाया .इन दलों ने भी जरूरत पड़ने पर क्षेत्रीय दलों की बैशाखियों का नियमित इस्तेमाल किया जो बाद में 'गठबंधन की राजनीति' बन गया .
मैंने बात राज्यों के चुनावों में दूर राज्यों के नेताओं के चुनावी पर्यटन पर रोक का सुझाव देने से शुरू की थी .मुझे पता है कि अधिकाँश मित्र और आमजन मेरे इस सुझाव से इत्तफाक नहीं रखेंगे ,क्योंकि उन्हें इस बीमारी से हो रहे नुक्सान का अनुमान नहीं है. उदाहरण के लिए कांग्रेस ने सत्ता में बने रहने के लिए जम्मू-कश्मीर के लिए एक धारा संविधान में बाबस्ता की थी ,भाजपा ने उसी धरा को सत्ता में पहुँचने के लिए हटा दिया .असम तक पहुँचने के लिए भाजपा को कितने पापड़ बेलने पड़े ?कर्नाटक जीतन के लिए स्वर्गीय सुषमा स्वराज को खनन माफिया को अपना भाई बनाना पड़ा .
मुझे लगता है कि हमारे राजनीतिक दल जब तक अपनी मजबूरियों से ऊपर उठकर राजनीति नहीं करेंगे तब तक न तो उन्हें राष्ट्रीय दल की असल हैसियत मिलेगी और न देश से दल-बदल की बीमारी समाप्त होगी .हाल के एक दशक ककी राजनीति पर दृष्टिपात कर देखिये.आप समझ जायेंगे कि किस दल ने सत्ता पाने के लिए कितना दल-बदल का सहारा लिया .सत्ता में बने रहने की मजबूरी ने यदि दल-बदल को संरक्षण दिया है तो दल-बदल रोकने के लिए संसद द्वारा बनाये गए कानून की खुलकर धज्जियां भी उड़ाईं .लोकतंत्र के ये सभी अपराधी जनता के सामने हैं,लेकिन विसंगति ये है कि जनता उन्हें पहचान नहीं पा रही .आने वाले दिनों में इस दिशा में कहीं से तो शुरुआत होना चाहिए. नेताओं के राष्ट्रिय राजनीति में पहुँचने कककके रास्ते और उनकी लक्ष्मण रेखाएं स्पष्ट होना चाहिए.
@ राकेश अचल
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