मजदूरी में बीत रहा बच्चों का जीवन बाल श्रम अधिनियम व बाल अधिकारों का हनन कर रहा है। होटल, ढाबा, किराना, वेल्डिंग, मोटर मैकेनिक, कपड़े की दूकानों पर काम करने वाले इन नौनिहालों को काम के घंटों का ज्ञान नहीं है।
मजदूरी के एवज में मिलने वाला पैसा भी इन्हें मिलने के बजाय इनके पिता की अय्याशी पर खर्च होता है। काम के बदले इन्हे दो जून की रोटी, नियोक्ता की गालियां ही नसीब है। पढ़ने, खेलने-खाने की आयु में इनके ऊपर भगोना धोने, कपड़ों की गांठ उठाकर रखने, ग्राहकों को दुकानों का सामान दिखाने, रिंच पाना लेकर वाहन की मरम्मत करना इनकी दिनचर्या में शुमार है। सरकारी व निजी प्रतिष्ठानों में काम के आठ घंटे तय हैं लेकिन इन बाल मजदूरों को 12 से 15 घंटे तक काम करना पड़ता है। साप्ताहिक अवकाश इनके लिए नहीं बने हैं। एक दिन की छुट्टी में भी मजदूरी काट ली जाती है। भले ही सरकार व स्वयंसेवी संगठन बाल मजदूरी रोकने के लिए काम कर रहे हों लेकिन धरातल पर अभी भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। स्पेशल जुवेनाइल पुलिस यूनिट के स्थानीय प्रभारी बीपी यादव का कहना है कि 19 फरवरी को अभियान चलाया गया था जिसमें 16 बाल मजदूरों को मुक्त कराया जा चुका है।
अभियान निरंतर चल रहा है जिन प्रतिष्ठानों में बालकों से मजदूरी कराई जा रही है वहां के नियोक्ता के खिलाफ बाल संरक्षण अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कराकर बालकों को मुक्त कराया जाएगा।
असगर अली
उतरौला
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