बंगाल है सियासत की प्रयोगशाला 
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भारत में बंगाल इस समय सियासत की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बनी हुई है. सियासत में अब तक जो और कहीं नहीं हुआ वो सब बंगाल  में हो रहा है .तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा साम-दाम-दंड और भेद के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा कर रही है जो किसी को पता नहीं है. 
बंगाल देश का इकलौता प्रान्त है जहाँ कोई महिला बीते दस साल से मुख्यंत्री है. भारत में महिलाओं  को मुख्यमंत्री बनाने के अवसर बहुत कम आये हैं. ममता बनर्जी से पहले हाल के सियासी इतिहास में बहन मायावती ने मुख्यमंत्री पद हासिल किया था. भाजपा ने राजस्थान में श्रीमती बसुंधरा राजे को  मुख्यमंत्री बनाया था ,गुजरात में भी कुछ दिन के लिए श्रीमती आनंदी  बेन पटेल मुख्यमंत्री रहीं .कांग्रेस ने श्रीमती शीला दीक्षित को ये सम्मान दिया था ,लेकिन अब महिला मुख्यमंत्रियों के दिन लद रहे हैं .ये दिन क्यों लद रहे हैं ,ये आज की चर्चा का विषय नहीं है .तारकेश्वरी सिन्हा या उमा भर्ती जैसे नाम अब अतीत का अंग बन चुके हैं 
बंगाल में भाजपा चुनाव ऐसे लड़  रही है जैसे देश का आम चुनाव लड़ा जाता है,यानि बंगाल विधानसभा का चुनाव भाजपा के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है .भाजपा को लगता है कि बंगाल को जीते बिना मोदी जी को विश्वगुरू नहीं बनाया जा सकता .भाजपा ने मोदी जी को गुरु  रविंद्र  नाथ टैगौर का चोला तो पहनाने की कोशिश की लेकिन भाजपा भूल गयी कि बंगाल का सियासी चरित्र दूसरे राज्यों के सियासी चरित्र से कुछ अलग  है 
भाजपा बंगाल के अलावा असम,केरल,तमिलनाडु और पुडुचेरी में भी विधानसभा चुनाव लड़   रही है किन्तु जैसा महत्व भाजपा ने बंगाल को दिया है वैसा अन्य चार राज्यों को नहीं दिया .बंगाल की सियासत का रंग लाल है. यहां जितनी सियासी चेतना है उतनी ही यहाँ की सियासत रक्तरंजित भी रही है .भाजपा ने इस रक्तरंजित सियासत में अपने डेढ़ सौ से अधिक कार्यकर्ताओं का मूलयवान  जीवन होम कर दिया है .सवाल ये है कि क्या भाजपा को इस कुर्बानी का प्रतिफल मिलेगा ?
बंगाल विधानसभा चुनाव के समय भाजपा ने जमकर दल-बदल कराया.सत्ता प्राप्ति के लिए अब दलबदल भाजपा की पहली जरूरत हो गयी है.भाजपा जहाँ भी सत्ता के सोपान चढ़ने में असफल रहती है वहां दल-बदल के जरिये वो ऐसे नेताओं की तलाश कर लेती है जो भाजपा के लिए सत्ता सिंघासन की सीढ़ी बनने के लिए तैयार होते  है .भाजपा को यदि दलबदलू न मिलें तो मुमकिन है कि भाजपा का विजयरथ रास्ते में ही अटक जाये .दलबदल भाजपा के लिए सत्ताप्राप्ति करने का अमोघ अस्त्र बन चुका है .
वरिष्ठ पत्रकार श्री शम्भूनाथ शुक्ल ने बंगाल की सियासत पर हाल ही में एक लंबा आलेख लिखा है .उनका कहना है कि बंगाल में सबसे ऊपर बंगाली कला,संस्कृति और भाषा है वहां धर्म को राजनीति से अलग रखा गया है लेकिन भाजपा ने इस चुनाव में धर्म को ही अपनी ताकत बनाया है.भाजपा के लिए ये चुनाव एक धर्मयुद्ध जैसा ही है.इस धर्म युद्ध में भाजपा के साथ राम भी हैं और उनकी वानर सेना भी.गिरगिटें भी हैं और कोबरा भी. तृणमूल कांग्रेस में भी भाजपा के पूर्व वरिष्ठ नेता यशवंत सिंह भी है .भाजपा के धर्म युद्ध से निबटने के लिए बीते सौ दिंनो से दिल्ली की देहलीज पर सत्याग्रह कर रहे किसान संगठन  भी बंगाल में दस्तक दे चुके हैं .
बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा ने बहुत कुछ हासिल किया है तो बहुत कुछ खो भी दिया है. भाजपा ने सबसे ज्यादा तो सौजन्यता को खोया है .बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी पर हमला हुआ या वे हादसे में घायल होकर अस्पताल पहुंचीं लेकिन भाजपा ने उनकी खैर खबर नहीं ली.यानि कि एक सामान्य शिष्टाचार नहीं निभाया .बंगाल की या देश की राजनीति में इतनी अशिष्टता पहले कभी रही नहीं ..समान्य शिष्टाचार तो सभी दल निभाते रहे हैं. क्या राजनीति में कड़वाहट अब एक स्थायी भाव बन चुका है ?
बंगाल में कोई हारे या जीते इससे बंगाल की जनता के भविष्य पर कोई बहुत अधिक अंतर नहीं पड़ने वाला है,हाँ ममता गयीं तो वहां समता आने से इंकार जरूर कर देगी,क्योंकि फिर तो वहां राम राज की स्थापना की जाएगी .राम राज कोई बुरी चीज नहीं है लेकिन उसमें राम तो हों,वे तो कहीं और व्यस्त हैं.बंगाल स्त्री शक्ति का प्रतिनिधित्व करता रहा है .स्त्रियों की दुर्दशा भी सबसे ज्यादा बंगाल में ही हुई.यहां के समाज में सामंतवाद की जड़ें कम गहरी  नहीं हैं लेकिन ममता ने इन सबके खिलाफ यहां की आबादी को संगठित किया है ..इस चुनाव में मुकाबला रावण और राम के बीच नहीं पुरुष के अहम और नारी की अस्मिता का भी है .चुना किसे जाएगा अभी से कहा जाना उचित नहीं है .
चुनावों के जरिये राम को राजनीति में औजार के रूप में इस्तेमाल किये जाने के बदले कुछ नया कर दिखाए.यहां न राम को हारना है और न राम को जीतना है .यहां जिद को हारना है और जिद को ही जीतना है. एक तरफ राजहठ है तो दूसरी तरफ त्रिया हठ ..यानि बंगाल  के परिणाम हठ पर आएंगे ,यहां के लोग हैं भी हठीले.कांग्रस का तियापांचा किया तो फिर कांग्रेस को स्वीकार ही नहीं किया.वाम को सर पर बैठाया तो पूरे पच्चीस साल नहीं उतारा और जब ममता को अपनाया तो दस साल तो निकाल ही दिए और मुमकिन है कि आगे के पांच साल और निकाल दें .
बंगाल की जनता यदि कीचड़ में खिलते कमल को अपनाती है तो कमल को भी यहां से फिर आने वाले दस साल तक कोई नहीं उखाड़ पायेगा,लेकिन ऐसा होगा कया ?कैसे होगा ?आज के हालात तो इस दिशा में  आश्वस्त नहीं करते दिखाई देते  . ये चुनाव जनादेश बनाम धनादेश भी हैं .जनबल के खिलाफ धनबल को ताल ठोंकते हुए पूरी दुनिया देख रही है .ममता ने कुछ और किया हो या नहीं किया हो भाजपा को वो चुनौती तो दी ही है जो कांग्रेस बीते सात साल में नहीं दे पायी है .कांग्रेस फिलहाल चुनौती देने की स्थिति में है भी नहीं,इसलिए बेहतर हो कि वो चुनौती देने वालों के साथ खड़ी हो ,इससे कम से कम दो विपरीत विचारधारों के बीच एक लकीर तो साफ़ दिखाई देगी .अभी तो सियासत में धुंध इतनी है कि समझ ही नहीं आता कि कौन सा बदल कहाँ जाकर बरसेगा ?
@ राकेश अचल

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